प्रस्तुत है इकबाल बानो का गाया एक गीत- बिछुआ बाजे रे ! इस गाने के शास्त्रीय/तकनीकी पक्ष की मुझे कोई जानकारी नहीं है और फ़िलहाल उससे मेरी कोई मुराद भी नहीं है. मैं तो बस यही जानता हूं कि यह इस नाचीज को सुहाता है और बरबस ही अपने रंग में बांध लेता है. आप भी सुनें......
पुनश्च :
आज ही शाम को अशोक पांडे से फ़ोन पर बात हुई थी. उनकी शिकायत थी कि मैं आजकल कुछ लिख नहीं रहा हू,लिखना मतलब गद्य लिखना. एक तो यह है कि आजकल फ़ुरसत थोड़ी कम-सी है और एकेडेमिक किस्म के लेखन को समय देना पड़ रहा है ,यह मेरे पेशे की मांग भी है . दिन में बेतरह थक जाने के बाद शाम को आराम के लिए संगीत के शरण्य में जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता. सो फ़ोन वार्ता में तय यह हुआ कि मैं कोई गाना लगा दूं. बस जी, खाना खाया और जम्हाई लेते हुए मित्र से किए वादे को पूरा करने की धुन में अपनी पसंद का यह गाना प्रस्तुत कर दिया. अब अशोक भाई और सारे भाई-बहनों, यह मत कहना कि ये क्या किया - यह गाना तो 'सुखनसाज' पर अगस्त के तीसरे सप्ताह में पोस्ट किया चुका है. अब किया जा चुका है तो किया जा चुका है .'कबाड़खाना' एक अलग ठिया है सो हियां भी पर जरा अलग तरीके से. वैसे भी एक बार और सुन लेने में हर्ज क्या है!
3 comments:
कोई हर्ज नही है भाई .... बिल्कुल हर्ज नहीं है ...."बिछुआ बाजे रे ..." तो रोज़ सुनने में भी कोई हर्ज नहीं .... भाई वाह !
मीत भाई की बात से सौ फ़ीसद सहमति.
badhiyaa!!
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