Tuesday, September 9, 2008

प्रशियन नाइट्स से एक कविता

कल रात एक मित्र ने फ़ोन पे एक कविता सुनाई ... बहुत ही लम्बी कविता ... अब तक ज़हन पे छाई है ... उस के बाद एक तहखाने में गया .... न जाने कितने सालों पहले पढ़ी एक किताब याद आ गई थी ......

यहां प्रस्तुत कविता 'कैंसर वार्ड' जैसे कालजयी उपन्यास के लेखक नोबेल पुरस्का विजेता अलैक्ज़ैन्डर सोल्ज़ेनित्सन, ने एक रूसी आर्टिलरी ऑफ़िसर के रूप में दूसरे विश्व युद्ध के दौरान अपने प्रिज़न कैम्प में लिखी थी :

रूसी से अंग्रेज़ी अनुवाद किया है रॉबर्ट कॉन्क्वेस्ट ने


From her shoulders slipped the shawl,
Woven of some white-checked wool.

In my confusion I was stuck,
Losing the flow of German speech.

Somehow I could only reach
The shawl, and throw it around her neck.

From her hands, still warm after the wash,
A faintest wisp of steam uncurled.

Questioning, and unsure,
She stepped back toward the threshold ….
I strode to the still-open door,
And I shut it with a crash.

Condemned to action, without looking,
I just gestured to her, “Komm !”
It wasn’t passion, or the firm
Pleasure in the muscles ringing ….
With my back to the mean bed I
Shortly heard that she … was ready ….

And after, unnaturally close
To the pale blue of her eyes,
I said to her – too late – “How base !”
Anne, that moment, with her face
Sunk in the pillow, in an unsteady
Voice that she could not control,
Begged, “Doch erschiessen Sie mich nicht !”

Have no fear ... For ... Oh ! ... already
Another’s soul is on my soul ...

अब पेश है हिन्दी अनुवाद:

सफ़ेद चेकदार ऊन से बुनी शॉल
ढुलकी उस के कन्धों से

मैं अवाक था हकबकाया
जर्मन बोलने का मेरा प्रवाह बाधित

किसी तरह मैं पहुंच सका उस शॉल तक
डाल दिया उसकी गरदन के गिर्द

अभी अभी धुले उसके गर्म हाथों
से लहराती उठी भाप की एक मद्धम लौ

सवालात से भरी और अनिश्चित
वह वापस जा रही थी देहरी की तरफ़

मैं दौड़ता हुआ पहुंचा अब तक खुले दरवाज़े पर
और भेड़ कर बन्द कर दिया उसे

कर्मान्ध होकर बिना उसकी तरफ़ देखे,
मैंने उसे इशारा किया: "आओ!"
यह कोई आवेग न था, न
मांसपेशियों में लहराता सुख ...
बिस्तर पर थी मेरी पीठ जब
मैंने उसके ... तैयार हो चुकने की संक्षिप्त आहट सुनी

बाद में जब मैं अप्राकृतिक तरीके से
निकट था उसकी आंखों के फ़ीके नीले के
मैंने उससे कहा - अलबत्ता बहुत देर हो चुकी थी - "कितना बर्बर!"
उस क्षण, उसका मुंह धंसा हुआ था तकिये में,
काबू से बाहर हो गई अस्थिर आवाज़ में
उसने याचना की: "और तब भी तुम मुझे गोली से नहीं उड़ाते!"

डरो मत ... उफ़! ... अभी से ...
मेरी आत्मा पर सवार किसी दूसरे की आत्मा ...

6 comments:

फ़िरदौस ख़ान said...

Questioning, and unsure,
She stepped back toward the threshold ….
I strode to the still-open door,
And I shut it with a crash.

कभी न भूलने वाली कविता...बहुत ख़ूब...

MANVINDER BHIMBER said...

बहुत अच्छा लिखा है . भाव भी बहुत सुंदर है. पर्याप्त जानकारी भी है. जारी रखें

महेन said...

मीत भाई, बहुत ही बढ़िया कविता है। मैं कुछ निवेदन करना चाहता हूँ। यदि आप अपना ई-मेल आई डी दे सकें तो।

वर्षा said...

बहुत सुंदर कविता

वर्षा said...

बहुत सुंदर कविता

दीपा पाठक said...

शानदार, असरदार और खतरनाक कविता।