Sunday, October 19, 2008

सिमो द बुवा के लिए एक अपील


सिमो द बुवा की 'द सेकेंड सेक्‍स' का हिंदी और अंग्रेज़ी अनुवाद क्‍या पूरी तरह सही है? मैंने तो इस पर कभी सोचा भी नहीं था. वह किताब तो प्रभा खेतान के हिंदी अनुवाद 'स्‍त्री: उपेक्षिता' में पढ़ी थी. पिछले दिनों एक नई बहस का पता चला. सौजन्‍य, जेएनयू के प्रोफ़ेसर सत्‍यपाल गौतम. उन्‍होंने जो बताया, उसका सार-संक्षेप यह कि जून 1949 में जब यह किताब छपी और फ्रेंचभाषी दुनिया में इसकी ख़ूब चर्चा हुई, तो प्रकाशन संस्‍थान रैंडम हाउस ने अंग्रेज़ी में बिक्री की संभावनाओं को देखते हुए तुरत-फुरत इसका अंग्रेज़ी अनुवाद कराया. इसके अंग्रेज़ी अनुवादक हावर्ड पार्शले बायलॉजी के विद्वान थे और दर्शन से उनका कोई ख़ास लेना-देना नहीं था. सो, अनुवाद के दौरान उन्‍होंने गोले मार दिए. स्‍त्री-अस्तित्‍व के प्रश्‍नों से जुड़े कई पैराग्राफ़्स को उन्‍होंने छोड़ दिया, जो कि उनकी समझ में नहीं आए थे. दर्शन के कई ठेठ शब्‍दों का ग़लत अनुवाद कर दिया. अंग्रेज़ी के ज़रिए किताब दुनिया के एक बड़े हिस्‍से में पहुंची, लेकिन फ्रेंच संस्‍करण से उसे कभी मिलाकर नहीं देखा गया. ऐसा मिलान कुछ बरसों पहले ही हुआ है और अंग्रेज़ी अनुवाद में यह भयंकर गड़बड़ पाई गई है. रैंडम हाउस से बार-बार मांग की जा रही है कि वह उसका सही अनुवाद प्रकाशित करे, लेकिन प्रकाशक इस पर राज़ी नहीं. न ही वह ग़लती मान रहा है.

तोरिल मोई जैसी विद्वानों का मानना है कि यूरोप में सिमो पर होने वाले विवादों का प्रमुख कारण यह ग़लत अनुवाद ही है, जिसके कारण उसकी कई स्‍थापनाएं पाठकों को पूरी तरह समझ में नहीं आ पातीं. अगर फ्रेंच में पढ़ा जाए, तो हर बात साफ़ हो जाती है. निश्चित ही, ऐसी किताब, जिसका हर पैराग्राफ़ सदियों से चली आ रही मान्‍यताओं के खि़लाफ़ आपको उकसाता हो, झिंझोड़ता हो, उसके दस पैराग्राफ़ भी ग़ायब हों, तो लेखक की बात तो अधूरी रह ही जाएगी.

इसे क्‍या कहा जाए, बौद्धिक जालसाज़ी ही न. लेखक और पाठक दोनों के साथ बेईमानी? यह अनुवाद की सीमा है या अंतरराष्‍ट्रीय प्रकाशकों द्वारा आनन-फानन माल कबाड़ने की नीयत का एक और अध्‍याय? क्‍या सिमो इसका कोई अपवाद हैं या अंतिम आखेट? क्‍या सारे अनुवाद ऐसे अंदाज़गोलों से भरे होते हैं? बीसवीं सदी की सबसे बड़ी किताबों में से एक किताब, जिस पर दुनिया-भर का स्‍त्री विमर्श, मुक्ति-आंदोलन कुहनी टेक कर खड़ा होता है, उसे हमने आधा-अधूरा और ग़लत-शलत पढ़ा है, समझे कितना हैं, यह अभी कैसे तय हो जाए? हम बहुत सारा साहित्‍य अनुवाद के ज़रिए पढ़ते हैं और लॉस्‍ट इन ट्रांसलेशन वाली आशंका हमेशा रहती है, लेकिन यह क्‍या, कि कई-कई पन्‍ने ही ग़ायब हो जाएं, क्‍योंकि वे अनुवादक को समझ में नहीं आए थे. अहा. कैसा उछलता-फलांगता-कुलांचता, अनुवादक का हिरणावतार है! यानी 'इस युग में हर चीज़ को संदेह की नज़र से देखो' की सूक्ति को लैमिनेट कराके दीवार पर टांग लिया जाए? सोचिए.

इस किताब का सही अनुवाद कराके दुबारा मुद्रित-प्रकाशित कराने की मांग को लेकर इंटरनेट पर एक हस्‍ताक्षर अभियान चल रहा है. अब तक 598 हस्‍ताक्षर हुए हैं. 596वें नंबर पर मैंने किए थे. पेटीशन का लिंक इसी लाइन में छुपा है. एक बार जाइए. दस लाइनें पढि़ए, और साइन कर दीजिए. शुक्रिया मैं नहीं, सिमो की आत्‍मा बोलेगी.

16 comments:

Ek ziddi dhun said...

गीत जी, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि कोई और विद्वान् इसका अंग्रेजी अनुवाद करे और फिर अपने लोग उसे हिंदी में ले आयें. क्या इस पर अभी तक एक ही पब्लिशर का कब्जा है ...

Geet Chaturvedi said...

धीरेश, ये कॉपीराइट का मसला है. अल्‍फ्रेड ए. नॉफ़ ने 1952 में इसके अंग्रेज़ी अनुवाद का विश्‍व-अधिकार ख़रीदा था, और वह 75 साल तक प्रभावी रहेगा. इस दौरान, कोई और उसका अंग्रेज़ी में अनुवाद कर प्रकाशन नहीं कर सकता. 75 साल पूरे हो जाने के बाद किताब पब्लिक डोमेन में आ जाएगी, तब कोई भी अनुवाद और प्रकाशन कर सकता है.

लेकिन उसमें अभी बहुत समय है.

नॉफ़ को 1960 में रैंडम हाउस ने ले लिया था. 90 में इस संस्‍थान को एक जर्मन कंपनी ने ख़रीद लिया. इस संस्‍थान के कई सारे इंप्रिंट हैं, नॉफ, डबलडे, बैंटम, विंटेज, आरएच आदि-आदि. किसी भी इंप्रिंट से छपे, हाउस एक ही है.

Ashok Pande said...

Signed!

मसिजीवी said...

गीत जी,
अनुवाद बहुत बेचारा किस्‍म का जीव होता है तथा उसकी सत्‍ता बहुत कम लोग स्‍वीकारते हैं। पहला अवुनाद त्रुटिपूर्ण है उसका एक और अंगेजी अनुवाद होना चाहिए...इससे प्रभाजी का अनुवाद भी अप्रमाणिक हो गया होगा क्‍योंकि जो प्रति हमारे पास है उससे तो यही प्रतीत होता है कि प्रभाजी ने फ्रेंच से नहीं अंग्रेजी से अनुवाद किया था।

इसलिए हमारा आग्रह यही हो सकता है कि कोई समर्थ अनुवादक इस महत्‍वपूर्ण रचना का फ्रेंच से हिन्‍दी अनुवाद सामने लाए...

एक और अंग्रेजी अनुवाद में हमारी तो कम ही रुचि है।

siddheshwar singh said...

गीत भाई,
मैं अनुवाद और प्रकाशन के तंत्र के बारे में अधिक जानकारी नहीं रखता हूं लेकिन यह जानना चाहता हूँ कि यदि फ्रेंच से सीधे अंग्रेजी में अनुवाद हो क्या तब भी सर्वाधिकार संबंधी अड़चनें मौजूद हैं?

आपकी यह पोस्ट तो बहुत महत्वपूर्ण है. मौलिक, मूल और मिलावट/कतर ब्योंत के इस मामले से परिचित कराने लिए क्या कहूँ-शुक्रिया तो बहुत छोटा शब्द है , फिर भी..!

जितेन्द़ भगत said...

यह दुखद बात है, हम अनुवाद को मूल लेखक का लेखन मानकर खुश होते रहते हैं, जबकि‍ मूल प्रति‍ में कई चीजें छोड़ दी गई होती हैं। इस ओर ध्‍यान आकृष्‍ट कराने और संबद्ध सूचनाओं के लि‍ए शुक्रि‍या।

एस. बी. सिंह said...

अनुवाद में मूल की आत्मा पूरी तरह नहीं आ पाती यह तो निर्विवाद है किंतु जैसी गलतियाँ आपने बतायी हैं वह तो झटपट पैसा बनाने के लिए धोखाधड़ीकी श्रेणी में आता है।जानकारी देने के लिए धन्यवाद।

ravindra vyas said...

गीत, हस्ताक्षर (607) कर दिए हैं।

वर्षा said...

मैं तो ठगी हुई सी महसूस कर रही हूं। सही अनुवाद आना ही चाहिए। हस्ताक्षर अभियान में भी दर्ज करवा दिया है।

Unknown said...

किसी अखबार में क्लासीफाइड एड देखा था अभी, जिसका आशय यह था- फ्रेंच-प्रवीण लड़की की तलाश है जो सिमोन की इस किताब का हिंदी में तर्जुमा कर सके। लगता है कोई पाइरेटेड लेकिन बेहतर संस्करण बाजार में आने वाला है।

Ashok Pande said...

कृपया प्रतीक्षा करें. जल्द ही आपको नेरूदा के हिन्दी अनुवादों की कुछ शानदार बानगियां देता हूं. क्या मख़ौल है यार!

तब तक "मातोपरि" नामक शब्द पर अनुसंधान चालू कर देवें!

इस सब घोटाले के बावजूद ... प्रभा खेतान ज़िन्दाबाद!

महेन said...

614

Satish Saxena said...

signed at 619

Udan Tashtari said...

कर दिया जनाब: ६२०

राज भाटिय़ा said...

एक बहुत ही अच्छी जान करी,
धन्यवाद
शुभ दिपावली

आलोक साहिल said...

ham to hindi mein iskaintjaar kar rahe hain.
ALOK SINGH "SAHIL"