Saturday, November 29, 2008
जाना विश्वनाथ प्रताप सिंह का
बम्बई में तबाही ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही.मेरे बहुत से सम्पन्न मित्र जो राजनीति को 'डर्टी पीपल्स गेम' कह कर समय के बड़े-बड़े सवालों से अपने को अलग कर लिया करते थे, भी बहुत संजीदा होकर पूछने लगे हैं : "अब क्या होगा?"
पूरी तरह से नष्ट-भ्रष्ट हो चुके हमारे लोकतन्त्र और शासन की कलई जब तब उतरती रहती है पर वह बेशर्मी की सारी हदें पार कर चुका है और अगली वारदात का इन्तज़ार करता रहता है.
... ख़ैर, इस पर बहुत ज़्यादा लिखा जा चुका है. पिछले दसेक दिनों से लगातार अस्पताल के चक्कर काटने के क्रम में अख़बार वगैरह पर निगाह डालने तक की फ़ुरसत नहीं मिली. अब आज सुबह जा कर पिछले दिनों के अख़बार सामने रखे. वही क्रिकेट और आतंक की मारी हमारी सतत भ्रमित जनता की जद्दोजहद भरी ज़िन्दगानियों की छोटी-बड़ी दास्तानें. उसके बाद बम्बई, बम्बई और बम्बई ...
'वी पी नो मोर' एक अख़बार की यह हैडिंग पढ़ने के बाद से मेरे दिल के भीतर कुछ तिड़क सा गया है. राजा साहब के राजनीतिक जीवन का उरूज था जब मैं स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई कर रहा था. १९८४ में इन्दिरा गांधी की हत्या, उसके बाद राजीव गांधी का प्रधानमन्त्री बनना, राजीव गांधी की कॉमेडी सरीखी 'हम हमारे देश में' और 'हम देखेंगे' स्टाइल मूर्ख-वक्तृता, सैम पित्रोदा, कलर टीवी, कम्प्यूटर, धीरूभाई अम्बानी ... यानी यह सब और ढेर सारा ऐसा ही कुछ. इस गर्द-ओ-ग़ुबार में राजा साहब की शालीन भाषा, और उससे ऊपर उनकी बेहद ईमानदार आंखें बहुत उम्मीद बंधाती थीं. यह मेरे कॉलेज जीवन के बिल्कुल शुरुआती साल थे ...
फिर राजीव गांधी द्वारा उन्हें बोफ़ोर्स मामले के उठने पर शर्मसार किए जाने के बाद उनका सत्ता में लौटना और प्रधानमन्त्री बन जाना उम्मीद बढ़ाने वाली मेरी सबसे पुरानी और बड़ी स्मृति है (यह अलग बात है कि वे साल भर भी पी एम नहीं रह पाए - देवीलाल और चन्द्रशेखर जैसे महापुरुषों को साथ ले कर चलना कोई आसान थोड़े ही था). मंडल कमीशन जैसे मसले को उठाकर उन्होंने "अनेकता में एकता" और "सामाजिक समभाव" के कांग्रेसी नारों की पोल खोल कर रख दी थी. उन्हें कुर्सी का लालच रहा होता तो वे क्या-क्या नहीं कर सकते थे.
ज़रा याद कीजिए इधर हाल के सालों में इस पाए का कोई भी और नेता आपको झुग्गीवालों के साथ धरने पर बैठा दिखाई दिया है! हमारा राजनैतिक तन्त्र इस महापुरुष की पूरी मेधा के इस्तेमाल से वंचित रह जाने को अभिशप्त रहा. अब वे नहीं हैं.
१९८३ में वे नैनीताल में मेरे स्कूल बिड़ला विद्यामन्दिर के वार्षिकोत्सव में मुख्य अतिथि बन कर आए थे. हर साल देश का कोई न कोई बड़ा आदमी मुख्य अतिथि बन कर आया करता था पर वी पी सिंह बिल्कुल फ़र्क थे. उन्होंने क़रीब घन्टे भर तक उपस्थित बच्चों और मेहमानों से बेहद अनौपचारिक बातचीत की. पिछले सालों में मुख्य अतिथि "प्यारे बच्चो" टाइप कोई उबाऊ स्पीच दिया करते थे और हम उसका अन्त हो चुकने के बाद इन की भाषण-शैली की पैरोडी बनाते. नारायण दत्त तिवारी की स्पीच की पैरोडी तो आज अट्ठाईस साल बाद भी मेरा एक सहपाठी बना लेता है. लेकिन वी पी वाक़ई फ़र्क़ थे.
नेहरू हाउस का हाउस कैप्टन होने के नाते मुझे उनसे स्वागतद्वार पर हाथ मिलाने का मौका मिला था. फिर एक ईनाम भी उन्होंने दिया. साइंस एक्ज़ीबीशन में मैंने तमाम डायोड-ट्रायोड जोड़जाड़कर कुछ झांय मॉडल बनाया था. वी पी बहुत देर मेरे पास खड़े रहे और ढेरों सवाल पूछते रहे. उनकी पत्नी अपने बड़े से पर्स में टॉफ़ियां लिए थीं. एक मुझे भी मिली जिसे जाहिर है और बच्चों की तरह मैंने भी नहीं खाया. वीरेन डंगवाल से पंक्तियां उधार लूं तो इस पूरे समय मेरा सीना कबूतर की मानिन्द तना रहा था.
वी पी नो मोर! लॉंग लिव वी पी!!
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14 comments:
मरे हुये कि बुराई नहीं की जाती है.. सो - वी.पी.सिंह अमर रहें..
PD भाई से सहमत, इसलिये कुछ नहीं बोलते…
वीपी राजनीतिज्ञ नहीं एक संवेदनशील व्यक्ति थे। राजनीति में असफल हो गए। फिर भी बहुत कुछ है जो वीपी से सीखा जा सकता है। मैं पीडी से सहमति नहीं रखता। एक राजनीतिज्ञ के बतौर उन की आलोचना की जा सकती है। वे इतिहास में कहाँ होंगे ये भविष्य में इतिहासकार देखेंगे। लेकिन वे अच्छे इंसान थे और उन्हों ने अपने तरीके से दुनिया को बदलने के प्रयत्न किए।
मैंने इस शख्स को पहली बार चौबटाखाल डिग्री कालेज(पौड़ी गढ़वाल के हैलीपैड पर देखा - जाहिर है हैलीकॉप्टर भी पहली बार उसी दिन देखा - वी0पी0सिंह और हैलाकॉप्टर की ये दो साझी स्मृतियां हैं।
ये तब की बात है जब मै बमुश्किल आठेक साल का था।
बाक़ी जो तुमने लिखा दद्दा उससे मैं सहमत हूं।
bahut be waqt vida hue VP Singh. Mumbai ki ghatna ki wajag se humne thik se vidai bhi nahi di.
http://therajniti.blogspot.com/
धन्य है भारतीय सन्सकृति, मरने के बाद आदमी की तारीफ करो ही करो. सच ये है महोदय कि इस आदमी की वजह से देश में जातिवादी राजनीति को जितना बढावा मिला है उतना शायद ही किसी और की वजह से हुआ होगा. अम्बेडकर ने जातिवाद का जो जहरीला बीज संविधान में बोया था उसको वट वृक्ष बनाया इस आदमी ने. दुआ करता हूं कि इनकी जीवनी किसी स्कूली पाठ्यक्र्म में न शामिल कर दी जाये.
हमारे संस्कार /संस्कृति मरे हुए की नुक्ताचीनी का निषेध करते हैं -पर वी पी के प्रति मेरे विचार कुछ अच्छे नही हैं -वे बुद्धमान थे ,संवेदनशील भी रहे होंगे पर उनके आरक्षण के निर्णय से दिल्ली में मासूमों की आत्महत्या का जिम्मेवार मैं इन्हे मानता हूँ -वे राजनीति की नयी गोटी बिछाते रहे -पर राष्ट्र उनका उतना कृतग्य नही है उनकी यशः काया खून के छीटों और अनेक आहों से सराबोर है !
जातिवाद भारतीय राजनीति ही नहीं भारतीय समाज की भी कटु सच्चाई है। और निश्चय ही यह वी पी सिंह की देन नहीं है। आरक्षण इस के दुष्प्रभावों को मिटाने का ख़राब ही सही एक प्रयत्न भर है । यदि बाकी के सब नेता यदि इतने अच्छे ही हैं तो इसे ख़त्म क्यों नहीं कर देते। हम जो किसी न किसी तरह का आरक्षण पाने के लिए आपने को अगडों, पिछडों और न जाने किन किन श्रेणियों में शामिल कराने केलिए अथवा शामिल न किए जाने के दुःख से मरे जाते हैं, वी पी को कोसने का कोई अवसर नहीं छोड़ते। वे भारतीय राजनीति में लुप्तप्राय हो चुके इमानदार नेताओं में आखिरी कुछ में थे। मेरे कुछ रिश्तेदार जो मांडा के ही है बड़ी कड़वाहट से बताते हैं की किस तरह वी पी ने , जब वे उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री थे, लखनऊ जाने पर उनका सत्कार किया था पर अपनी जाति और क्षेत्र का होने के के बावजूद उनके बच्चों को नौकरी दिलाने से मना कर दिया था। संभवतः व्यक्ति के मूल्यांकन का हमारा यही मापदंड है। याद कीजिए जिस जमाने में वी पी को लोग पानी पी पी कर कोस रहे थे और गरिया रहे थे उस समय भी किसी ने उनकी इमानदारी और व्यक्तिगत निष्ठा पर उंगली नहीं उठाई थी। बस यही कहूंगा राजा नहीं फकीर था । लॉंग लिव वी पी!!
दिनेश राय द्विवेदी जी से सहमत !!
मृतक के विषय में करनीं हो तो अच्छी टिप्पड़ी करें ऎसी भारतीय परंपरा है।वी०पी०सिंह के एक भाई थे जो फतेहपुर से सांसद हुआ करते थे,उनकी बताई बातॆं यदि सुनते तो वास्तविकता समझ आती। अच्छा हो कि ज्यादा चर्चा न की जाए।काफी नज़दीक से उन्हें देखा जाना और बरता था।
V.P. Singh, Arjun Singh, Amar Singh & now Digvijay Singh . All are great leaders . No ?
mujhe v p singh kae rajiv gandhi sae kahe sirf woh shabd yaad hain jab naujavan sadkoon par arakshan ka virodh karte hue apne aap ka agnidahan kar rahe thae ,tab rajiv gandhi nae v p singh sae "kaha ki iss bare mein sochiye" tab v p singh nae kaha ki "aisa aksar hota hai kranti aati hai thoo khoon bahta hai bahne dijiye "
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