Tuesday, December 23, 2008

लम्हे... नीलेन्द्र सिंह कुशवाह की कविता

मेरा खास दोस्त है नीलेन्द्र. मेरे भागलपुर से दिल्ली आने और जामिया मिल्लिआ इस्लामिया मे एडमिशन के दौरान शायद पहली दोस्ती उसी से हुई. रायपुर से दिल्ली आना और फ़िर आजकल आस्ट्रेलिया पहुंचना हम दोस्तों के लिये कम रोमांचकारी नही है. कभी झगड़ा तो कभी मारपीट और फ़िर एक दूसरे के बिना घंटे भर भी बिता पाना दोनों के लिये मुश्किल रहा है.जब हम लोगों ने जामिया से जनसंचार का कोर्स पास कर "सेंटर फ़ार पीस एंड कान्फ़लिक्ट" में दखिला लिया तो उसकी लिये अंग्रेजी सिरदर्द था. कहता जिस दिन यह कोर्स खत्म होगा उस दिन मैन दूल्हा बनूंगा और मेरे सिर पर सेहरा होगा. सभी दोस्तों के हर दुख-सुख मे साथ रहने वाला नीलेन्द्र आजकल आस्ट्रेलिया के ब्रिसबेन शहर में रह रहा है. इतनी दूर रहते हुए भी जिस दिन उससे बात नही होती वह दिन अधूरा सा लगता है. "संडे पोस्ट" दिल्ली में काम करने वाला एक पत्रकार नीलेन्द्र की काबिलियत कई रूपों में है, लेकिन पहचान पाना कठिन है दूसरों के लिये.आज उसने एक कविता भेजी है. क्यों ना आज उसकी कविता और मन की आवाज से रूबरु हों. ...विनीत उत्पल

लम्हे...

कुछ मुँह चिढ़ाते
तो कुछ कुछ की
याद दिलाते लम्हे....

कुछ हाथ से छूट कर
छन से गिरे हुए,
मानो किसी ग़रीब
बीमार के हाथ से
दवा की शीशी फूटी हो | लम्हे...

कुछ ऐसे
मानो दूर कहीं
बादल के कुछ टुकड़े
ठठाकर हँस पड़े हों
और उनकी अट्टहास से
फूटते पानी ने
मुझे पूरा भिगो दिया हो |

भीगने का ये सिलसिला
चलता रहेगा...
यूँ ही अनवरत...
लेकिन हर बार
कुछ अलग
तरीके से भिगोएगी
ये बारिश...

हर बार
एक नया ही होगा
तरीका...
हर बार
एक नया ही होगा
बहाना...

ऐसे ही भीगते - भीगते
एक दिन
मै घुल जाऊँगा
मिट्टी का बना हूँ ना...
मिट्टी में ही मिल जाऊँगा |

8 comments:

संगीता पुरी said...

ऐसे ही भीगते - भीगते
एक दिन
मै घुल जाऊँगा
मिट्टी का बना हूँ ना...
मिट्टी में ही मिल जाऊँगा |
यही शाश्‍वत सत्‍य है....बधाई।

शिरीष कुमार मौर्य said...
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एस. बी. सिंह said...

भीगने का ये सिलसिला
चलता रहेगा...
यूँ ही अनवरत...
लेकिन हर बार
कुछ अलग
तरीके से भिगोएगी
ये बारिश...

बहुत सुंदर कविता।

सुधांशु said...

bahut sundar nahi kah sakta chaplushi swabhav me nahi hai??
bhav achhe hai isaliye achhi kah sakta hun??/
mehnat...
ki jarurat hai..haan watan se itani dur rahkar kavita ke liye samay nikalne ke liye...
or apni samvednaon ko kund hone se bachane ke liye shukriya

Unknown said...

विनीत जी धन्यवाद....
एक चेहरे के पीछे छिपे एक दूसरे चेहरे को सामने लाने के लिए...

preeti said...
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preeti said...
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preeti said...

कुछ कुछ की
याद दिलाते लम्हे....
कुछ नम भीगे -भीगे
कुछ हंसते - मुस्कुराते
जीने के लिए सांसे देते
फूले से महकते
चाँद तारों से रोशन
इन्द्र धनुष के रंगों से खेलते
लम्हे
बारिश की बूँदें बनकर
मिटटी में घुलकर
खिली घास में
उग आये पौधे को
जीन्दगी देते
लम्हे
****भरे
हमारे लम्हे

ye pankitiyan add kar do ...kavita thordi muskurane lagegei ...positive ho jayegi ...vaise bahut achchee likhi hai .....jindgi ki is aapdhaapi me bhi dosti ki bhavnayen jeevit hain ...yah sukhad hai ..ese hi rahna ....