शमशीर बरहना माँग ग़ज़ब बालों की महक फिर वैसी है,
जूड़े की गुँठावत बहरे - ख़ुदा ज़ुल्फ़ों की लटक फिर वैसी है.
हर बात में उसके गर्मी है हर नाज़ में उसके शोख़ी है.
आमद है क़यामत चाल भरी चलने की फड़क फिर वैसी है.
मेहरम है हबाबे-आबे-रवाँ सूरज की किरन है उस पे लिपट,
जाली की ये कुरती है वो बला गोटे की धनक फिर वैसी है.
वो गाये तो आफ़त लाये है सुर ताल में लेवे जान निकाल,
नाच उस का उठाए सौ फ़ितने घुँघरू की छनक फिर वैसी है.
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शब्द : बहादुरशाह 'ज़फ़र'
स्वर : हबीब वली मोहम्मद
10 comments:
माड्डाला!
सुभान अल्लाह,
दो बार सुन चुके हैं और अभी भी झूम रहे हैं...
कैसे आभार चुकायें, चलिये अपने ब्लाग पर कुछ सुनवाते हैं, :-)
Garda... bhai... Garda...
macha diye aap to.. :)
यह एक इत्तेफाक है या यह गज़ल नज़ीर अकबराबादी की है जिसकी पक्तियां हैं-
खूरेज़ करिश्मा, नाज़ सितम धमजों की झुकावट वैसी है
मिज़्गां की सिन्न नज़रों की अनी अबरू की खिचावट वैसी है
पलकों की झपक, पुतली की फिरट सुरमों की घुलावट वैसी है॥....
बहुत अच्छा लगा ।
शानदार !
cmpershad ji, mujhe to nahi lagta ki koi ittefaq jaisi baat hai.. han magar mujhe akbarabadi ji ka vo geet jise Mujaffar Ali ji ne compose kiya tha bahut basand hai..
Kabadiyon se gujarish hai ki kabhi mauka mile to vo bhi sunayen.. "Husn-e-Jana" naam ke album me hai vo geet.. :)
आदरणीय प्रसाद जी (cmpershad )
प्रस्तुत रचना तो ज़फ़र की ही है.आप जिसका उल्लेख कर रहे हैं वह रचना नज़ीर अकबराबादी की है .यह संयोग है या पूर्ववर्ती -परवर्ती के संवेदन व अभिव्यक्ति के तेवर का मिलन.. जो भी हो , सहॄदयों के लिए मुफ़ीद ही है.भारतेन्दु और मोमिन की छांदिक समानधर्मिता का उदाहरण यहाँ देखें -
http://kabaadkhaana.blogspot.com/2007/11/blog-post_04.html
नज़ीर अकबराबादी की रचना जल्द ही आपको दिखाई और सुनाई देगी - यहीं , इसी ब्लाग पर. तो फिर मिलते हैं ..
इस प्रस्तुति को पसंद किया जा रहा है ,अतएव सभी मित्रों के प्रति आभार !
कतल हो गया हजूर!
दद्दू !!! पहाड़ का अंक तो हमारे ही पास रह गया... याद करते करते भी रह ही गया. अगली बार मय सूद वापिस किया जाएगा. ये वादा रहा.
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