Friday, January 30, 2009

बोरों के लब लपक के खोल दे



(... गतांक से आगे, भाग-२)

लंबू्द्वीप के नागरिकों में भुसभराई का काम जिन दिनों जारी था उन्हीं दिनों भूसे की किल्लत हो गई जिसे इतिहास में "ग्रेट भूसा क्राइसिस" के नाम से जाना जाता है। उन्हीं दिनों "भूसा, कपड़ा और पेड़ की छांव" नामक एक फिल्म आई जो पालतू मवेशियों में इतनी लोकप्रिय हुई कि सिनेमा हालों में लगातार इकहत्तर हफ्ते तक चलती रही। लंबू द लपड़झप्प की कला जिस वक्त परवान चढ़ रही थी हार्वेस्टर कम्बाइन नामक एक मशीन से गेंहू की कटाई और मड़ाई होने लगी जो गेंहू की बालियों को काटकर डंठल खेत में ही छोड़ देती थी, भूसा निकलने का सवाल ही नहीं था। ऐसे में थ्रेसर युग के पहले से चले आ रहे तरीके यानि बैलों की खुरों से मड़ाई द्वारा निकलने वाला अत्यअल्प भूसा ब्लैक में बिकने लगा। भूसे की चाहत भटकाते हुए बहुतेरों को जापान तक ले गई इनमें से एक प्रजाति को "गीशा काउज" के रूप में जाना जाता है।

जो बैल जूते नहीं पहनते उनकी खुरों से एक रसायन का स्राव होता है जिसे अफगानिस्तान के वैज्ञानिक गिजा-ए-कॉमनसेंस के नाम से जानते हैं। यह रसायन मूलतः आदमी की संदेह ग्रंथियों को उत्तेजित करता है। यह रसायन नागरिकों की खाल में भरे जाते भूसे के साथ दिमाग तक पहुंचा और वे लपड़झप्प लंबू की नकली बघीरे की आवाज में स्त्रियों में बात कर अपनी ओर आकर्षित करने की कला का अवलोकन जरा और एकाग्रता से करने लगे।

भुसभरे आदमी इतने हल्के हो चले थे कि वायु निःसृत करते समय राकेट नोदन के सिद्धांत के मुताबिक जमीन से कई फीट ऊपर उठ जाते थे लेकिन इसी हल्केपन के कारण विरोधी उनकी खूब कुटाई भी करते थे। अंदर भूसा भरा होने के काऱण चोट कम लगती थी लेकिन संदेह ग्रंथियों के उत्तेजित होने का कारण उनमें से कुछ को खटका लगा रहता था कि कहीं उनका अपमान तो नहीं किया जा रहा है। लंबू द लपड़झप्प जब नकली बघीरे की आवाज में जब अपनी टांगे झटकते हुए कला का प्रदर्शन किया करता तब लोगों को लगता कि उनके अपमान का बदला लिया जा रहा है और नकली तालियां इतनी जोर से बजाते कि अंदर भरा भूसा नाखूनों से झरने लगता। बहुत से लोगों ने इतनी तालियां बजाईं कि उनके अंदर भरा सारा भूसा झर गया और वे अपने कानों के ऊपर काल्पनिक गोलाई में कंघी घुमाते हुए अपनी कमीजों के दामन पेट पर बांध कर सड़कों पर टहलने लगे। वे खुद लपड़झप्प होना चाहते थे लेकिन अंदर भूसा ही नहीं बचा था।

इसी समय लपडझप्प को लगने लगा कि तालियां नकलीं हैं और वह बोर हो चला। पिलपिल झूंसवी उसे क्या बनाना चाहते थे और वह क्या बन गया। जवानें गायें उसका पीछा करती थीं, बछड़े उसकी तरह टांगे उछालते थे और गधे नकली बघीरे की आवाज में रेंकते हुए अपने कान आगे कर देते थे और उसे मजबूरी में वहां अपना नाम लिखना पड़ता था। मजबूरी थी, आखिर वह भूसे का ब्रांड अंबेसडर था।

एक दिन वह बोरियत से बेजार होकर भूसे की एक लकीर पर चलने लगा। यह लकीर किसी के नाखूनों के झरते भूसे से बनी थी जो कहीं आगे, बहुत दूर चला जा रहा था। लपड़झप्प को यकीन था कि यह लकीर सच्चे दिल से बस उसके लिए झरे भूसे से बनी है और उसे वहां ले जाएगी जहां उसे जरा लंबे आकार-प्रकार के बंदर की तरह कूद-फांद करने से मुक्ति मिल जाएगी और एक सार्थक जिंदगी की शुरुआत होगी।

बचपन में पिता यानि पिलपिल झूंसवी उसे सुबह अपने साथ घुमाने ले जाते थे और प्रति कनटाप अपनी एक कविता कंठस्थ कराया करते थे। यह साहित्य और मनुष्य के जैविक इतिहास में अपनी जगह सुरक्षित करने की अपनी जुगाड़मय तरकीब थी। उन्हें पता था लपड़झप्प को लोग एक दिन टिकट लेकर वैसे ही देखेंगे जैसे चिड़ियाघर में जिराफ को देखने जाते हैं। उस समय वह उनकी कविता गाएगा, इस तरह वे भूसे के तिनकों से जैविक इतिहास में और फिर कागजी इतिहास में पहुंच जाएंगे। उस लकीर के साथ लहराते चलते लपड़झप्प, अपने पिता की एक कविता बुदबुदाने लगा जिसका सार यह था कि भूसे की चाहे जितनी किल्लत हो, तू बस उस लकीर पर बां-बां करता चलता जा देखना तेरे अकीदे की तासीर से तुझे अपार भूसा मिलेगा...।

बोरे हों बड़े-बड़े
ऊंघते पड़े-पड़े
पवन का वेग तेज जो
बोरों के लब, लपक के खोल दे
और अंतरिक्ष में तू रच
तृण पथ-तृण पथ।


उस पथ पर चलते चलते उसने आपको एक देवी के घर के सामने पाया जो अपना यौवन अक्षुण्ण रखने के लिए काली बिल्लियों को चींटियों के दूध पर पालती थी फिर उनका कोरमा खाती थी। उसने लपड़झप्प को देखकर अपनी नाक सुड़क कर उस पर तर्जनी चाकू की तरह चलाई। ऐसा करते हुए वह कमसिन बंदरिया लग रही थी उस दृश्य में ऐसा कुछ था कि लपड़झप्प के भीतर बंदर के बजाय मदारी बनने की इच्छा जागृत हुई।

(सुधीजनो, लम्बूद्वीप की कथा जारी है ...)

4 comments:

महेन said...

"गिजा-ए-कॉमनसेंस"?
ये क्या बला है?

शिरीष कुमार मौर्य said...

बहुत अच्छे!

लेखकद्वय को मेरी शुभकामनाएं। बहुत चूतियापा मचाया इस लपड़झप्प ने।

हईं !!!!!!!!!!!!!!!

प्रति कनटाप एक कविता याद कराने वाला जिक्र लाजवाब है - इन कविताओं ने भी बहुत ऐसी-तैसी फेरी है साहित्य में ! लोगों की रुचि ऐसी बिगड़ी कि अब तक सुधरने में नहीं आ रही!

एस. बी. सिंह said...

इ का कौनो नई ट्रेंड है साहित्य की भइया

Neelendra Singh Kushwah said...

काली बिल्लियाँ उस पर चींटियों का दूध और इन सब से ऊपर उनका(शायद बिल्लियाँ ही होंगी) कोरमा.....अद्भुत कबाड़|