समारोह के पहले जिस तरह वहाँ के ताकतवर लोगों को प्रस्तुत किया गया वह पूरी दुनिया को धमकाने की अमेरिकी अदा है. जान लेना होगा कि ओबामा के आ जाने से पूंजीवाद और पश्चिमी तथा अमेरिकी साम्राज्यवाद का आधुनिक मुखौटा 'बाज़ारवाद' का चेहरा नहीं बदल जाएगा. ओबामा अश्वेत शरीर में श्वेतात्मा है. भाषण देने और लिखवाने में वह रिपब्लिकन जॉन मकैन से अव्वल रहे. जीत-हार की यही असलियत और अन्तर है. शपथग्रहण के वक्त भी ओबामा का भाषण शानदार रहा. वह अमेरिकी जनता को धोखा दे सकते हैं दुनिया को नहीं. लोगों को मुगालता हो हमें नहीं है
दुनिया और भारत की मजलूम जनता को बधाई हो! अश्वेत अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का शपथग्रहण समारोह संपन्न हो गया है. टीवी चैनलों के माइकों के जरिए ऊह-कू और ऊह-पू की समवेत ध्वनियाँ सारी दुनिया में नाद कर रही हैं. करीब ७५० करोड़ डॉलर इस समारोह में ख़र्च किए गए है; आख़िर किसलिए? क्या यह दिखाने के लिए कि हमारे यहाँ मंदी है लेकिन हम अब भी पैसा पानी की तरह बहा सकते हैं! आख़िर यह जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा नहीं तो क्या अमेरिकी माफिया का धन है? मैं अर्थशास्त्री तो नहीं लेकिन मुझे मंदी की इस चाल में भी अमेरिका की कोई गहरी राजनीति लगती है. अमेरिकी जनता का एक हिस्सा तो इसी पर लट्टू है कि एक अश्वेत व्यक्ति अमेरिका का राष्ट्रपति बन गया. हमें भी इस ख़बर से ख़ास नुकसान नहीं है लेकिन आप तक वे खबरें कभी नहीं आने दी जाएँगी कि प्रतिरोध की अमेरिकी आवाजें ओबामा के बारे में क्या सोचती-समझती और कहती रही हैं! माफ़ कीजिएगा, वहाँ भारतीय मीडिया की तरह भूसा-खाता नहीं है!
'चेंज' के आवाहन पर जीत कर आने वाले ओबामा ने कभी यह नहीं कहा कि वह मेहनतकशों का जीवन सुधारेंगे अथवा अमेरिका के सदियों से दबे-कुचले अश्वेत लोगों को नौकरियों में प्राथमिकता देंगे या दुनिया के मजलूमों के लिए कोई वैश्विक अर्थनीति प्रस्तुत करेंगे. अलबत्ता उन्होंने एक असंतुष्ट अमेरिकी वर्ग को यह समझाकर कि बेरोजगारी दूर करने के लिए आउटसोर्सिंग बंद कर देंगे, एक झांसा दिया है. पाक के ख़िलाफ़ एक सांकेतिक बयान देकर भारतीय मूल के मतदाताओं की भावनाओं से खिलवाड़ किया. यह भी समझ लेना चाहिए कि माइकल या जेनेट जैक्सन तथा हॉलीवुड में चंद अश्वेतों की सफलताओं से अमेरिका के अश्वेतों के बारे में कोई राय बना लेना भ्रामक होगा.
बहरहाल, जिस तरह शपथग्रहण से पहले जिन जीवित पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपतियों जिमी कार्टर, सीनियर बुश तथा बिल क्लिंटन और अब जूनियर बुश को भी मिला लें तो, अमेरिकी जनता और टीवी-इन्टरनेट के जरिए पूरी दुनिया के सामने पेश किया गया उनके काले कारनामे सिर्फ़ एशिया महाद्वीप में ही नहीं बल्कि दुनिया के हर द्वीप में दर्ज़ हैं. अखबारों में छपने के बाद सीएनएन और बीबीसी तथा चंद भारतीय न्यूज चैनलों के एंकर यह इतिहास बताना नहीं भूले कि कैपिटल हिल तथा व्हाइट हाउस अश्वेत दासों की मेहनत से बने थे और आज कैसा महान क्षण आया है कि एक अश्वेत उसी कैपिटल हिल में शपथ लेगा तथा उसी व्हाइट हाउस में निवास करते हुए दुनिया का भाग्य विधाता बनेगा
लेकिन इनसे काफी पहले के अमेरिकी राष्ट्रपतियों की करतूतों पर नजर डालने वाला यह आलेख मैने काफी अहले 'आज़ाद लब' में प्रस्तुत किया था. आज फिर दे रहा हूँ. लेकिन उससे पहले एक बात- अगर ओबामा का भाषण-लेखक आधुनिक हिन्दी कविता पढ़ लेता तो उसे अधिक मेहनत नहीं करनी पड़ती. उनमें कहीं ज़्यादा उथली, करिश्माई और हवाई बातें होती हैं. एक बात और, जब वो बुजुर्ग पादरी ओबामा के लिए ईशप्रार्थना करते हुए कैपिटल हिल पर लगभग रो रहा था तब मुझे कामू के उपन्यास 'ला स्ट्रेंजर' के उस पादरी की याद आ गयी जो नायक को मृत्यु की सज़ा पा जाने के बाद जेल की कोठरी में ईश्वर पर भरोसा दिलाने के लिए आया करता था.) अब कृपया वह लेख पढ़िए जिसका सम्बन्ध पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपतियों से है. लिंक ये रहा-
'आज़ाद लब'
3 comments:
बहुत मौजूं मुद्दा उठाया है आपने. दरअसल, अमेरिका जिस राह चलकर आज जिस मुकाम पर पंहुचा है, दुनिया की ज्यादातर मुसीबतें वहीं से निकलती हैं. अब यह समझाना कि ओबामा अमेरिका की राह बदल कर उसे दूसरे देशों के साथ बराबरी बरतना सिखा देंगे, बचपना ही कहा जाएगा. ओबामा की राजनीती में अमेरिका के चरित्र को बदल डालने का माद्दा नही है. भारत-पाक रिश्ते, पश्चिम एशिया, इस्लामिक कट्टरपंथ, अफ्रीका का पिछड़ापन जैसे दुनिया के तमाम ज्वलंत सवालों का हल भी कहीं न कहीं अमेरिका की राजनीति से जुड़ा है. ओबामा राजनीति की जिस धारा की उपज है, उसकी निरंतरता इन सवालों को जिलाए रखने में है, हल करने में नही. अलबत्ता अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान अश्वेत राष्ट्रपति के प्रतीक से अपनी छवि बदलने की कोशिश जरूर कर रहा है. ओबामा के निजी अतीत में मार्टिन लूथर किंग या अब्राहम लिंकन की विरासत की लेश मात्र भी झलक मिलती है क्या?
जिस तरह से कल सारे संसार में मीडिया-प्रायोजित उत्सव का माहौल था उसकी पृष्ठभूमि में यह एक बहुत ज़रूरी लेख है विजय भाई! आशुतोष की बात भी सही है.
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