Saturday, July 11, 2009

उदयप्रकाश पर दो-चार बातें खरी-खरी

- उदयप्रकाश मेरी राय में हमारे समय के सबसे सफल रचनाकारों में से हैं। हिंदी के इस समय के संभवत: अकेले सुपर स्टार। जैसे कि बॉलिवुड में अमिताभ बच्चन हैं या फिर मॉलिवुड में रजनीकांत। हिंदी साहित्य के दो कौड़ी के या महान कहे जाने वाले और ताल-तिकड़म से हासिल होने वाले पुरस्कारों से अलग एक कामयाब साहित्यकार।

- उदयप्रकाश किसी से भी पुरस्कार लें या न लें, ये उन्हें ही तय करना है। जैसे कि मुझे ये तय करने का अवसर मिला होता तो मैं आदित्यनाथ के हाथों कोई पुरस्कार लेना शायद स्वीकार नहीं करता। लेकिन चूंकि इसका अवसर आया नहीं है, इसलिए अपने आचरण के बारे में ये एक हायपोथेटिकल स्थिति ही है। मिसाल के तौर पर जब मै नौकरी नहीं करता था तो मुझे लगता था कि मैं किसी की नौकरी नहीं कर पाऊंगा। मुझे लगता है कि किसी को भी कांग्रेस के किसी नेता से कोई पुरस्कार नहीं लेना चाहिए क्योंकि वो देश में अब तक हुए ज्यादातर दंगों के पीछे यही पार्टी है। सिख विरोधी दंगा कांग्रेस का इतना बड़ा अपराध है कि उसके नेता पुरस्कार देने के लिए नाकाबिल ठहरा दिए जाने चाहिए। नरेंद्र मोदी ने जिस तरह गुजरात में दंगाइयों को भड़काया, वही काम तो राजीव गांधी ने अपनी मां की हत्या के बाद किया था (पेड़ गिरने पर धरती हिलने वाला बयान आपको याद होगा)। बुद्धदेव भट्टाचार्य और सीपीएम के नेताओं से तो सिंगुर, नंदीग्राम और लालगढ़ के कुकर्मों के कारण कोई पुरस्कार नहीं लेना चाहेगा। बेशुमार नरसंहारों में निजी सेनाओं के साथ षड्यंत्र में शरीक रहे लालू प्रसाद और उनकी पार्टी के नेताओं से भी पुरस्कार और सम्मान नहीं लिए जाने चाहिए। रामपुर तिराहा कांड की वजह से मुलायम सिंह यादव भी पुरस्कार देने के काबिल नहीं हैं। इन पार्टियों के सरकार में रहते समय क्या सरकारी नौकरी करना, सरकारी कमेटियों और पदों पर बैठना अनैतिक नहीं है? इस मामले में पत्थर फेंकने का अधिकार उन्हें ही होना चाहिए, जो किसी "पाप" में शरीक नहीं है। हम खुद तो सेठों की नौकरी करें, और दूसरों से क्रांति के लिए सबकुछ छोड़ देने की उम्मीद करें, ये गैरवाजिब है। खासकर तब जबकि सामने वाला कह भी न रहा हो कि वो क्रांति कर रहा है या क्रांति करना चाहता है।

- उदयप्रकाश के बारे में अनिल यादव की टिप्पणी तीखी है लेकिन मेरी राय में गलत नहीं है। अनिल यादव को पूरा हक है कि किसी रचनाकार से कैसे आचरण की अपेक्षा करें। रचनाकार का जीवन पूरी तरह निजी नहीं हो सकता। उदयप्रकाश के लेखन और उनके अब तक के व्यवहार के आधार पर अनिल यादव को लगता है कि उदयप्रकाश को आदित्यनाथ के हाथों पुरस्कार या सम्मान नहीं लेना चाहिए। तरुण विजय या किसी भाजपाई साहित्यकार से तो वो इसकी अपेक्षा नहीं कर रहे हैं। मेरी भी उदयप्रकाश से वैसी ही उम्मीद है, जैसी उम्मीद अनिल यादव को है। उदयप्रकाश की ये संघी या जातिवादी आलोचना नहीं है। अनिल यादव क्या इस बारे में इसलिए बात न करें कि वो पायोनियर मैं नौकरी करते हैं?

- अनिल यादव की टिप्पणी पर बिफरकर उदयप्रकाश ने कबाड़खाना और उसके मुख्य मॉडरेटर के बारे में जो लिखा है और जैसी भाषा का इस्तेमाल किया है, वो गलत है। उदयप्रकाश से मेरी अपेक्षा है कि वो अपनी उस टिप्पणी को दोबारा पढ़ेंगे और जो उन्हें अनुचित लगे, उन्हें वापस ले लेंगे। जिस उदयप्रकाश का मैं इतने साल से फैन हूं, उनसे मैं ऐसे ही व्यवहार की उम्मीद करता हूं। (यहां ये स्पष्ट करना जरूरी है कि उनसे मेरी अब तक मुलाकात नहीं हुई है और हम कहीं टकरा गए तो एक दूसरे को पहचान भी नहीं पाएंगे)। हालांकि वो ऐसा न करें तो कोई आसमान नहीं फट जाएगा। कबाड़खाना की एक लोकतंत्रिक मंच के रूप में अहमियत इससे कम नहीं हो जाएगी। कबाड़खाना की ये ताकत है कि कोई यहां आकर कबाड़खाना को गालियां दे सकता है और इसके बावजूद इस मंच का बना रह सकता है। मेरा निजी अनुभव मुझे ये मानने से रोकता है कि कबाड़खाना कोई जातिवादी मंच है। लोकतांत्रिक मंच होने के कारण मैं इसे जातिवाद विरोधी मंच मानता हूं। अनिल यादव की एक आलोचना भर से उदयप्रकाश को ये मंच जातिवादी लगने लगा, ये आश्चर्यजनक है।

- मैं उदयप्रकाश से ये भी उम्मीद करता हूं कि हिंदी साहित्य में जातिवादी सड़न पर वो वैसी ही खरी-खरी बातें करते रहेंगे, जैसा कि वो अब तक करते रहे हैं। हिंदी साहित्य में सड़ांध बहुत बढ़ गई है। हिंदी साहित्य के मठ अब टूटने ही चाहिए। इन मठों पर खास जातियों के महानुभावों का कब्जा है, जबकि उनका रचनाकर्म दो पैसे की औकात नहीं रखता। आम तौर पर 500 प्रिंट ऑर्डर के गणित पर चलने वाले हिंदी साहित्य की इस दशा के पापी वहीं हैं जो इन मठों पर जमे बैठे हैं। मैं उनकी चेलामंडली समेत विदाई की और उनके नाश की कामना करता हूं। हिंदी भाषा का मठाधीशी साहित्य मर चुका है। नया हिंदी साहित्य संभवत: ब्लॉग पर रचा जाएगा। इसकी शुरुआत हो चुकी है। हिंदी के पंडितों को न इसकी समझ है, न ही परवाह। हिंदी के ज्यादातर साहित्कारों का कंप्यूटर ज्ञान शून्य है। सामंती मिजाज के ये महानुभाव टाइपिंग करते नहीं, कराते हैं। मनोरंजन की दुनिया में हिंदी के विस्फोट से पैदा हुए अवसर उन्हें छुए बगैर निकल गए हैं। उदयप्रकाश कम से कम ब्लॉग पर तो हैं और इसी नाते हम उन्हें कोस भी सकते हैं और उनसे पूछे गए सवालों के जवाब की अपेक्षा भी करते हैं। वरना हिंदी के ज्यादातर पंडित तो अपने को इतना वलनरेबल बनाने को तैयार ही नहीं है।

- और एक बात जिसका जिक्र पंकज श्रीवास्तव कर रहे हैं वो है हिंदी के बारे में उदयप्रकाश के विचारों को लेकर। देखिए हम सब अपने दिल पर हाथ रखकर पूछें कि क्या हिंदी को लेकर हममें दरअसल कोई रोमांटिसिज्म बचा भी है। मैं मेट्रो शहरों के किसी मध्यवर्गीय हिंदी सेवी या हिंदी प्रेमी को नहीं जानता, जो अपनी संतानों को हिंदी माध्यम में शिक्षा दिला रहा हो। जो भी "समझदार" हैं वो हिंदी के भविष्य के बारे में शंकाएं नहीं पालते और अपने बच्चों का भविष्य खतरे में नहीं डालते। देश के बाकी लोग हिंदी से प्यार करें लेकिन मैं अपने बच्चे को हिंदी माध्यम के स्कूल में नहीं पढ़ा सकता- ये दोहरापन नहीं चलने वाला। हिंदी की बात करने वालों के व्यवहार और व्यक्त किए जाने वाले विचारों में गहरा अंतर्विरोध है। मौजूदा पावर स्ट्रक्चर में हिंदी की ज्ञान और रोजगार की भाषा के रूप में स्थापना आसान नहीं है। इसलिए इस मामले में अब अपने द्वंद्व खत्म कर लेने का समय शायद आ गया है। मैं खुद इस बात का समर्थक हूं कि देश में शिक्षा का माध्यम अगर कुछ लोगों के लिए अंग्रेजी है, तो ये सरासर गलत है और बहुसंख्य आबादी के बच्चों को अच्छे रोजगार से वंचित रखने का षड्यंत्र है। उदयप्रकाश कुछ अलग तर्कों के आधार पर हिंदी सहित्य संसार को ब्राह्मणवादी और अंग्रेजी को प्रगतिशील मान रहे हैं। इस पर बहस होनी चाहिए। इस आधार पर किसी को खारिज नहीं कर देना चाहिए कि इतने समय तक हिंदी की रोटी खाने के बाद अब अंग्रेजी का गाने लगे।

20 comments:

Uday Prakash said...

मैं सुपर स्टार नहीं, एक मामूली मेहनतकश लेखक हूं. लेकिन लोकतान्त्रिक और आधुनिक विचारों पर आस्था रखने वाला. आपने 'कबाड़्खाना' के बारे में लिखा है :
कबाड़खाना की एक लोकतंत्रिक मंच के रूप में अहमियत इससे कम नहीं हो जाएगी। कबाड़खाना की ये ताकत है कि कोई यहां आकर कबाड़खाना को गालियां दे सकता है और इसके बावजूद इस मंच का बना रह सकता है। मेरा निजी अनुभव मुझे ये मानने से रोकता है कि कबाड़खाना कोई जातिवादी मंच है। लोकतांत्रिक मंच होने के कारण मैं इसे जातिवाद विरोधी मंच मानता हूं। अनिल यादव की एक आलोचना भर से उदयप्रकाश को ये मंच जातिवादी लगने लगा, ये आश्चर्यजनक है।'
अब आप कृपया इस 'लोकतांत्रिक' और 'जाति-निरपएक्ष मंच के बायें बाजू देखिये. मेरे ब्लाग का कोई निशान कहीं दिख रहा है क्या?
मैं इस मंच से फिर दुहरा रहा हूं, धर्मनिरपेक्षता की पहली लड़ाई 'जातिवादी फ़ाशीवाद' के खिलाफ़ संघर्ष से शुरू होनी चाहिए. वैसे मुझ पर यह हमला एक बड़े डिज़ाइन का हिस्सा है. धन्यवाद.
(अशोक पांडेय जी, कृपया मेरे पक्ष को 'delete' न करें.)

Anshu Mali Rastogi said...

मैं आपसे पूरी तरह से सहमत हूं दिलीपजी। यूंही उत्तर देते रहें इन मठाधीशों को। मेरी खुद की भी लड़ाई इन मठाधीशों से है। पूरे हिंदी साहित्य को तबाह कर डाला है इन लोगों ने।

Sunder Chand Thakur said...

Is badhe design ke piche kaun kaun log hain, iska khulasa kaun karega? Pata nahin kyon Uday ji pichle kai saalon se kyon aise baat kahte aa rahen hain, unke chahne wale ise samajhne mein puree tarah asamarth hain. Ve bar-baj jaativaadi fashivaad ki baat kar rahen hain jaise ki akele ve hi iske khilaf sangharshrat hain. Jahan tak kabaadkhaane ka sawal hai to wahan Ashok ke aise kai mitra hain jo loktantrik hone ki shart par hi uske saath khade hain. Ve is manch ko jaativaadi nahin hone de sakte, fashiwaadi hone ka to sawaal hi nahin utatha. Isliye Uday ji kripya dobara dekhiye hamne apni bhool ko sudharne mein jyada der nahin lagayee aur bayeen aur ab apka blog phir shobhniya hai. Isi tarah gujarish ye hai ki aap bhi apni galti man lijeye aur ek khooni, jaatiwaadi, fashivaadi vyakti se puraskar grahan karne ki apni badhi bhool par maafi mangiye. Mohandas jitna shabdon aur vicharon mein jivit hai utna karm mein bhi jivit rahe!

Unknown said...

बन्दर के हाथों कुत्ते की लेंडी को पुरुस्कार की तरह लेना बन्द करो दोस्तो!

और अपनी भाषा का सम्मान करना सीखो!

Unknown said...

ब्राह्मणवाद मुर्दाबाद! ठाकुरवाद मुर्दाबाद!

Rangnath Singh said...

उदय जी बार-बार अपने खिलाफ साजिश की शिकायत कर रहे हैं। उदय जी के खुल कर अपनी बात लिखनी चाहिए। अगर ऐसी कोई साजिश है तो उसके लिए गोल गोल सारलीकृत आरोपों की बजाए ठोस बात कहें। हिंदी के सबसे अधिक पढ़े जाने वाले लेखक में इस उम्र में किससे भय है। मुझे नहीं लगता कि नई पीढ़ी में उदय प्रकाश से ज्यादा समर्थक किसी और लेखक के होंगे। उदय जी सही हुए तो उनके समर्थक की कमी नहीं होगी।

Rangnath Singh said...

उदय जी का ब्लाग आज शाम को गायब हो गया था। पहले मुझे लगा उदय जी की इच्छा से ऐसा हुआ होगा। अभी उनकी टिप्पणी देखी तो मामला कुछ और निकला।
कबाड़खाना के सदस्य होने के नाते मैं इसका पुरजोर विरोध करता हूँ। उदय जी के खिलाफ इतनी कड़ी प्रतिक्रियाएं आने के बावजूद कबाड़खाना को बीच बहस में उनका ब्लाग(जिसे हम विपक्ष का स्वर कह सकते हैं!) हटाना एक निंदनीय कृत्य है।
कुछ लोग उदय प्रकाश के खिलाफ अपने निजी हिसाब चुकाने की फिराक में नजर आ रहें है। ये लोग बहती गंगा में हाथ धोने की आदत से लाचार लगते हैं। ऐसे लोगों को उदय प्रकाश से ज्यादा सावधान रहना चाहिए। जब उनका नंबर आएगा तो उनके दिन में तारे नजर आने लगेंगे। क्योंकि उनके पास उदय प्रकाश जितने संचित सद्कर्म भी नहीं होगे कि लोग मुरव्व्त कर जाए !!
कोई बहस लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए होनी चाहिए। अपने निजी रंजिशों को सुलझाने के लिए सार्वजनिक मंच का चालाक दुष्प्रयोग निंदनीय है।

Neeraj Rohilla said...

"अब आप कृपया इस 'लोकतांत्रिक' और 'जाति-निरपएक्ष मंच के बायें बाजू देखिये. मेरे ब्लाग का कोई निशान कहीं दिख रहा है क्या?"

उदय प्रकाश जी का तो मुझे नाम भी पता नहीं था, लेकिन अनिल यादव की इस विषय पर सबसे पहली पोस्ट के बाद इस ब्लॉग के बांये हिस्से पर "श्रेष्ठ कबाड़ी" लिस्ट से ही उनके चिट्ठे पर पंहुचा था और पता चला था की अरे इस चिट्ठे को तो पहले भी पढ़ चुका हूँ|

लेकिन आज उनका नाम उस लिस्ट से गायब है| क्या उन्होंने स्वेच्छा से अपने आपको इस ब्लॉग से अलग किया है? इसके जवाब की तो पाठक भी आशा करते हैं|

स्वप्नदर्शी said...

I consider Mr. Uday Prakash as one of the best hindi writer, who is highly respected for this writings.
In student days we have made posters of several of his poems.

Also, kabaadkhaana, is one the very few blogs where I dwell to read something interesting in hindi. I appreciate the kind of efforts bloggers of this blog are putting.

As a reader, I sincerely hope that both parties settle this matter keeping respectful attitude towards each other.

निशांत मिश्र - Nishant Mishra said...

दिख तो रहा है उदय जी का ब्लौग साइडबार में! क्या पहले हटा दिया गया था? ऐसा है तो बहुत गलत हुआ!

मुनीश ( munish ) said...

Amidst this intellectual brainstorming why nobody is forthrightly rejecting the satanic adjectives used against Ashok . The real stand which needs to be taken is being avoided very diplomatically .
I unequivocally condemn the attempt to malign the unblemished reputation of Ashok Pande . He has every right to kick the ass of those not conforming to the code generally expected from a gentleman.Let us try to be civil first ,then talk of literary bullshit.

sushant jha said...

लेकिन सवाल वहीं मुंह बाए खड़ा है। लाख बहस के बावजूद जो लोग उदयप्रकाशजी से उनके पुरस्कार लेने के बारे में पूछ रहे हैं उनको अभी तक इसका जवाब नहीं मिल पाया है कि उन्होने ऐसा क्यूं किया। मैं उदयप्रकाशजी के रचनाओं का प्रशंसक रहा हूं लेकिन वारेन हेस्टिंग्स का सांड अभी तक पूछ रहा है कि वो कौन से हालात थे कि उदयजी, योगी के मठ में साथ-2 थे ? उदयजी ने इन सवालों का कोई जवाब नहीं दिया है। ऐसे में कई लोगों को मौका मिल सकता है कि वो तकलीफदेह सवाल उठाएं। मुझे इस बात की तकलीफ है कि लोग इसे 'कुंवर साहब' और योगी के 'ठाकुरबाड़ी' का कनेक्शन मानने लगे हैं। उदयप्रकाश ऐसे नहीं हो सकते, लेकिन इस बात का स्पष्टीकरण भी तो कोई दूसरा नहीं दे सकता। अगर वो तस्वीर गलत है जो अमर उजाला में छपी है तो उदयप्रकाश को एक लेखक की चरित्रहत्या के नाम पर अखबार के खिलाफ अदालत में जाना चाहिए। हमे उम्मीद है कि उदयप्रकाश जल्द ही अपनी बात सामने रखेंगे।

ravishndtv said...

मैंने भी एक टिप्पणी उदय जी के ब्लाग पर की है। तब तक मुझे यह नहीं मालूम था कि इसका संबंध योगी आदित्यनाथ से पुरस्कार लेने से है। पत्रकारों की जल्दबाज़ी जैसी आदत के कारण उदय जी के समर्थन में हिंदी पट्टी की इतर समस्याओं के प्रति अपनी सहमति दे दी।

पर अब मैं दुबारा लिखना चाहता हूं। पूरी तरह सबको पढ़कर। अशोक पांडे एक ज़िम्मेदार व्यक्ति हैं। मुझे नहीं लगता कि किसी जातिगत आवेश में आलोचना की होगी।

मुझे साहित्य की परंपरा का कोई ज्ञान नहीं है। दिलचस्पी है तो सिर्फ बेहतरीन लिखे हुए को पढ़ने में। इससे ज़्यादा साहित्यकार से कोई उम्मीद नहीं रखता। मगर कम से कम उम्मीद जरूर रखता हूं कि आदित्यनाथ जैसों के साथ कोई लेखक मंच पर न जाये। लेखक को खारिज नहीं कर सकता लेकिन लेखक को इस संदर्भ में उठाये गए सवालों का जवाब देना चाहिए। बताना चाहिए कि उस मंच पर आदित्यनाथ के बारे में क्या कहा गया। क्या उसकी आलोचना की गई। कई सवाल हैं। कोई मित्र इतना ज़रूरी कैसे हो सकता है। यह बताने वाला मैं कौन होता हूं। लेकिन मित्रता के संबंध निजी रखे जा सकते हैं। उसे मंच पर ले जाने से अगर कोई ऐसा आ जाता है जिसपर सांप्रदायिक होने के पुख्ता आरोप हैं तो तब निजता की दलील कमज़ोर पड़ती है। लेकिन क्या हम जानते हैं कि मंच पर जाते जाते उदय प्रकाश ने अपनी सोच का त्याग कर दिया। उन्होंने क्या समझौते किये हैं। शायद नहीं। अगर बाद में उदय जी को अफसोस होता है तो ज़ाहिर कर देना चाहिए। कबाड़खाना वो ब्लाग है जिससे मेरी धारणा बनती है कि हिंदी पट्टी में प्रतिभाओं की कोई कमी नहीं है चरित्र हनन करने वालों की कोई कमी नहीं है और ये किस भाषा पट्टी में नहीं है।।

Uday Prakash said...

मैंने ऐसा कुछ नहीं किया है जिसकी 'सफ़ाई' देने की ज़रूरत मुझे हो. अपने ब्लाग में मैं इसका खुलासा करूंगा. अपने भाई की मृत्यु के बाद उनकी स्मृति में होने वाले नितांत पारिवारिक कार्यक्रम का यह सारा प्रसंग है. योगी आदित्य नाथ ने कोई 'पुरस्कार' नहीं, मेरे भाई कुंवर नरेंद्र प्रताप सिंह की स्मृति में 'नरेंद्र स्मृति' पहला सम्मान इसलिए मुझे दिया था क्योंकि ऐसा परिवार के सभी लोग चाहते थे. योगी आदित्य नाथ से उनके पारिवारिक संबंध हैं. 'अमर उजाला' में छ्पी तस्वीर में दायीं ओर मेरी भतीजी डा. भारती सिंह, जो एंसिएंट हिस्टरी की प्राध्यापिका हैं और उसके बगल में मेरे भतीजे सामंत राज की तस्वीर है. इस अवसर पर जिस किताब का विमोचन हुआ उसमें मेरे भाई के साथ मेरे संबंधों का पूरा ज़िक्र है.वैचारिक मतभेदों का भी. किताब का शीर्षक है 'इससे बेहतर शबाब क्या होगा'.
इस मुद्दे को तूल बनाने के पीछे क्या मंशा है, मैं इतना अबोध भी नहीं हूं, कि न समझूं. आप सबका मेरे प्रति सदभाव के लिए शुक्रिया. वैसे बिना तथ्यों की पड़ताल किए मुद्दा खड़ा करने की बीमारी से मीडिया और ब्लागर्स दोनों को बचना चाहिए. (उम्मीद है ऊपर के वाक्यों में ऐसा कुछ नहीं होगा जिससे 'लोकतांत्रिक मंच' के 'जाति-निरपेक्ष' सदस्य कोई और मुद्दा खड़ा करें. मैंने इसे एक 'बड़ी डिज़ाइन' इस लिए कहा था क्योंकि इस पूरे प्रकरण में सम्मिलित तत्वों के बारे में मुझे सूचनाएं लगातार मिल रही हैं. आभार और शुभकामनाएं!)

PK RAI said...

उदय प्रकाश पर टिप्पणी करने के लिए कोई न्यूनतम योग्यता तो होनी चाहिए.......। हमें इंटरनेट और उदय प्रकाश दोनों का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उन्होंने मुफ्त में हमें यह अवसर मुहैया कराया है। उदय प्रकाश को क्या करना चाहिए, क्या नहीं, इसका सबसे सही फैसला वही कर सकते हैं।

जहाजी कउवा said...

अरे हिंदी के रखवालो अब शांति रखो....
एक बात सोचो.
कबाड़खाने का या फिर उदय प्रकाश का पाठक कौन है?
अरे पाठक है आम आदमी
क्योंकि हिंदी में लेखक ज्यादा है और पाठक कम है
मैं कबाड़खाने पर पढने आता हूँ
सुन्दर रचनाएँ, सुन्दर संगीत और तसवीरें
यह क्या चल रहा है यहाँ
क्यों कबाड़खाना ऐसी छीछालेदर की आज्ञा दे रहा है
अरे उदय प्रकाश ने एक गलती की
पर कबाड़खाना वालो आप तो गलती पर गलती करते जा रहे हो
पिले पड़े हो यार
हो गया जाने दो
नए नए कबाडी बने लोग, और ये वही लोग है जो उदय प्रकाश के गुण गाते नहीं फिरते थे
आज बंदूकें लेकर खड़े हो गए और हर घंटे हवाई फायर दाग रहे है
बंद करो बॉस , तुंरत बंद करो
क्योंकि एक बार पढने वालो ने आपका पाखाना संवाद पढना बंद किया
तो बस लिखने वाले बचेंगे
और
लिखने वाले बस लिख लिख कर झगडा करेंगे
पढेगा कोई नहीं
तो बस बैठे रहना
व्हाट एन आईडिया सरजी करते !!

Rakesh Kumar Singh said...

इस विवाद पर अब तक जितनी रायों से दो-चार हुआ, उनमें से बेहतरीन. संतुलित. अपनी कुछ कुछ ऐसी ही राय बन रही थी. उदयप्रकाश के काम खारिज नहीं किए जा सकते.

मिथिला पंचांग टीम said...

भइये, आप लोग चिल्लरगिरी पर क्यों उतर आए पता नहीं? उदय प्रकाश अगर योगी से मिलने ही चले गए तो इतना बवेला क्यो? यह क्या राष्ट्रविरोधी कर्म है? लगता है कि हिन्दी मीडिया में गुलामी करने वालों के पास कोई काम ही नहीं बचा....अपने में लड़ मर रहे हैं..। यह तो चिरकुटई का चरम है। हद हो गई यार।

Unknown said...

भैया मै़ छ्टी पास हू़. इज़ाज़त होय तो कछु मै़ भी कह दू़.
१. साहित्य मे़ जो लिखे़ वाको निजी जिन्दगी से का सरोकार है ?
२. अगर काऊ से झगडो है जावे तो ई का के वा से दुआ सलाम मत करो. साथ खडे होवे पे हल्ला- गुल्ला.
३. क्यो जी यामे़ कोई दिक्कत है का कि भाई से विचार ना मिले़ तो वाके घर मत जाओ, और म्हा पे कोई आदमी कछु देवे तो लेओ मत.
४. अब इनाम तुम तो दिलवाओ नइ और घर के देवे तो तुम्हारी - - - -
५. सब जने चलके अपने अपने काम करो अब जाके.

Uday Singh said...

दिलीप मंडल हों और बवाल न हो ऐसा कभी हो सकता है ?