Sunday, February 8, 2009

कभी जल कभी जाल


कभी जल कभी जाल. यह नाम है हेमन्त कुकरेती के चौथे काव्य संग्रह का. इस संग्रह में प्रेम को लेकर बहुत सारी कविताएं हैं. इस विकट समय में प्रेम कविता लिख पाना और अच्छी प्रेम कविता लिख पाना बहुत मुश्किल काम लगता है मुझे. इस लिहाज़ से यह संग्रह बहुत मानवीय और ज़रूरी लगता है.

१३ मार्च १९६५ को जन्मे हेमन्त को हिन्दी की युवतर पीढ़ी में महत्वपूर्ण माना जाता रहा है. २००१ में भारतभूषण सम्मान, २००२ में कृति सम्मान, २००३ में हिन्दी अकादेमी और केदार सम्मान से नवाज़े जा चुके हेमन्त ने अपना यह संग्रह मुझे कुछ सप्ताह पहले कौसानी में दिया था. मैंने वायदा किया था कि कबाड़ख़ाने में उनकी कुछ रचनाएं लगाऊंगा.

आज वही वादा पूरा करता हुआ मैं आप को उनकी कुछ प्रेम कविताओं से रू-ब-रू करा रहा हूं:


आंख की तरह दिल
(कांगड़ा कलम का एक चित्र देख कर)

उसने आंख की जगह
निकाल कर रख दिया दिल
रुकी हुई दुनिया चलने लगी

वे यादें थीं
गाढ़े ख़ून-सी बूंद-बूंद टपकती
उसके सीने को ढंकते
नदी थे उसके बाल
जिसमें नहा रही थीं
बत्तख सी उंगलियां

हाथों में था एक फूल दहकता
जिससे कपटी मौसम में वह
अपनी इच्छाओं को कह रही थी

दुनिया झुकी हुई थी
उसके सामने हाथ फैलाए

वह धर ही देती
उसके हाथ पर अपनी आंखें
जो दिल की तरह उछल रही थीं
हर डर पर ...

प्रेम कविता में दरवाज़ा

उसने तय किया भूख मिट जाए
वह प्रेम की कविता लिखेगा
जिसमें प्रेम नामक शब्द कहीं नहीं होगा
अद्भुत प्रेम कविता होगी वह

इसके लिए नफ़रत और युद्ध
युद्ध और विनाश जैसे शब्द ज़रूरी थे

उसे बसों में भूल गए
रूमालों की बात नहीं करनी थी
उन चिठ्ठियों के बारे में भी
उसने नहीं सोचा
जो पीली पड़ती जा रही थीं

बच्चों को वह भूल गया
मिलने आए लोगों से मिलना
उसने ज़रूरी नहीं समझा
अब तक उसे सूझ नहीं रहा था
कि शुरू कैसे करे?

उसे दरवाज़े का ख़याल आया
यही है मुसीबतों की जड़
इसी रास्ते आते हैं कविता में ख़लल ...

उसकी प्रेम कविता में दरवाज़ा बन्द था
बन्द थे झरोखे

लिख-लिख कर वह शब्दों को
फेंक रहा था बियावान में.

जो डरा रहा था

उसकी कमर पर
वह अपने होठों की तितली
चिपकाना चाहता था
दुख हुआ कि कभी जो तितली से ज़्यादा सुन्दर थ
अब ठीक से होंठ भी नहीं थे

वह प्यार था
या उसका न होना
जो उन्हें डरा रहा था.

मिलने पर

मिटाया तो और उभर गया
जलाया तो पी गया आग को

पहले तो ऐसा नहीं था

मैं उससे मिला तो
अपने बारे में पता चला.

एक विदागीत की अधूरी पंक्तियां

चिड़िया तो तू मेरी ही ठहरी
मेरी आंखों में ही था
तेरा पहला घोंसला

मैंने ही सिखाया था
निडर उड़ना

लौटते कैसे हैं
बस यह सिखाना भूल गया ....

9 comments:

अनिल कान्त said...

अच्छी कवितायेँ पढ़वाने और अच्छी जानकारी देने के लिए शुक्रिया ....


अनिल कान्त
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

शायदा said...

लौटते कैसे हैं
बस यह सिखाना भूल गया ....

sunder kavitayen.

संगीता पुरी said...

बहुत सुंदर...

महेन said...

खूब!

Ek ziddi dhun said...

khoob (samkhya aur gunvatta dono)likhte hain Hemant

एस. बी. सिंह said...

लौटते कैसे हैं
बस यह सिखाना भूल गया ......

काश ! यह सिखा पाते.........अच्छी कवितायें पोस्ट कराने के लिए धन्यवाद।

ravindra vyas said...

achhi hain!

Unknown said...

good poem and thanks for the information.

by the way, when i was searching for Hindi typing tool, found "quillapd". do u use the same for typing in your blog...?

Keep posting good one as usual.

trinetra said...

naye bimbon mein ek pracheen vishaya. Hemant Kukreti samkaaleen kavita mein ek alag pahchaan or craftsmanship ke saath ubhar rahe hain. wah bari sambhavnaon wale kavi hain. aage bhi unki achhi kavitaen padhne ko milti rahengi.