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पर्याप्त अध्यात्म है बिल्कुल न सोचने में भी
-फ़र्नान्दो पेसोआ
पर्याप्त अध्यात्म है बिल्कुल न सोचने में भी
क्या सोचता हूं मैं दुनिया के बारे में?
मैं कैसे जान सकता हूं मैं क्या सोचता हूं दुनिया के बारे में?
- मैं सोचता अगर बीमार होता तो
चीज़ों के बारे में मेरे क्या विचार हैं?
कारक और प्रभाव के बारे में?
ईश्वर, आत्मा, संसार और सृष्टि की बाबत
मेरा चिन्तन क्या है?
-मुझे नहीं मालूम, इस सबके बारे में सोचना
मेरे लिए अपनी आँखें बन्द कर लेने जैसा है
न सोचने जैसा
अपनी खिड़कियों के परदे खींच लेने जैसा
(पर उनमें परदे नहीं है)
वस्तुओं का रहस्य?
कैसे जान पाऊँगा क्या है वह?
इकलौता रहस्य यही है कि कोई ऐसा भी है
जो रहस्य के बारे में सोच सकता है
ऐसा एक कोई जो धूप में खड़ा हो आँखें मूँद लेता है
यह जानना बन्द कर कि सूरज क्या है
वह तमाम गर्मीभरी चीज़ों के बारे में सोचने लगता है
फिर वह अपनी आँखें खोलता है और
सूरज को देखता है
- अब वह कुछ भी नहीं सोच पाता
क्योंकि सूरज की रोशनी
विचारों से कहीं अधिक मूल्यवान है
सारे दार्शनिकों, कवियों से कहीं अधिक मूल्यवान है
सूरज की रोशनी नहीं जानती वह क्या कर रही है
और इसलिए नहीं भटकती
और वह सभी के लिए है और अच्छी है
अध्यात्म?
क्या अध्यात्म है इन पेड़ों में सिवा इसके कि वे हरे हैं?
उनमें चोटियाँ और शाखाएँ हैं
और वे अपने समय पर फलते हैं -
जो नहीं है वह हमें सोचने पर विवश करता है
हम जो यह भी नहीं जानते
कि उनके बारे में सोचा कैसे जाए
लेकिन उनके अध्यात्म से बेहतर क्या अध्यात्म हो सकता है
जो जानते ही नहीं वे जीवित क्यों हैं
जो यह भी नहीं जानते कि वे नहीं जानते?
`चीज़ों की आन्तरिक संरचना...
ब्रह्मांड का गूढ़ रहस्य...`
यह सब असत्य है, निरर्थक है,
यह अविश्वसनीय है कि लोग
इस सबके बारे में सोच सकते हैं
यह तो ऐसा ही हुआ
जब सुबह के शुरू में किरणें आती हैं
और पेड़ों के किनारों पर
सुनहरी धुंधभरी चमक उतरना शुरू करती है अंधेरे को हटाती
और कोई उसके
कारण और परिणाम के बारे में सोचने लगे
वस्तुओं के आन्तरिक अर्थ के बारे में सोचने का अर्थ है
परिश्रम की बरबादी
या जैसे स्वास्थ्य के बारे में सोचना
या जैसे जलप्रपात के पास गिलास ले कर जाना
चीज़ों का आन्तरिक अर्थ यही है
कि उनका कोई आन्तरिक अर्थ नहीं होता
मैं ईश्वर पर विश्वास नहीं करता
क्योंकि मैंने उसे कभी नहीं देखा
अगर वह चाहता होता कि मैं उस पर यकीन करूँ
तो निश्चित ही मेरे पास आता
और मुझसे कहता `यह मैं हूं`
(शायद यह उस व्यक्ति के कानों को हास्यास्पद लग रहा होगा
जो यह नहीं जानता
कि चीज़ों को कैसे देखा जाना चाहिए
जो उस आदमी को भी नहीं समझता
जो चीज़ों की बात उसी तरह करता है
जैसा उनका दिखाई देना
उनके बारे में सिखाता है)
लेकिन अगर पेड़, फूल
पहाड़ और चाँदनी और सूरज ही ईश्वर है
तो मैं उसे ईश्वर क्यों कहता हूं
मैं उसे फूल, पेड़, पहाड़, सूरज और चाँदनी ही कहता हूं
क्योंकि यदि
वह ख़ुद को मुझे दिखलाना चाहने के लिए
अपने आप को
सूर्य और चाँदनी और फूल और पेड़ और पहाड़ बनाता है
यदि वह मुझे
पेड़, पहाड़, चाँदनी
सूरज और फूल की तरह दिखाई देता है
तो सत्य यह है कि वह चाहता है
कि मैं उसे पेड़, पहाड़, फूल, चाँदनी और सूरज की तरह ही
समझूं और जानूं
लेकिन अगर फूल, पेड़, पहाड़ और सूरज
और चाँदनी ईश्वर है
तो मैं उस पर विश्वास करता हूं
तो मैं उस पर हर घड़ी विश्वास करता हूं
और मेरी पूरी ज़िन्दगी
आँखों और कानों के माध्यम से
लगातार की गई
एक प्रार्थना है
और इसीलिए मैं उसकी आज्ञा का पालन करता हूं
(मैं स्वयं कितना अधिक जानता होऊँगा
ईश्वर के बारे में,
जितना वह स्वयं को जानता होगा?)
मैं उसकी आज्ञा का पालन जी कर करता हूं
ऐसे व्यक्ति की तरह जो अपनी आँखें खुली रखता है
और देखता है
और मैं उसे चाँदनी, सूरज और पहाड़
पेड़ और फूल कहता हूं
और इस बारे में सोचे बग़ैर उसे प्यार करता हूं
और देख और सुनकर उसके बारे में सोचता हूं
और हर पल
मैं उसके साथ-साथ चलता हूं
'धरती की सारी ख़ामोशी -फ़र्नान्दो पेसोआ की चयनित रचनाएं' (संवाद प्रकाशन)से साभार
3 comments:
हां यही तो मैं कहना चाहता हूं कई बार
bahut sundar. lekin socho k sochne par kya hoga__!
शायदा दोस्त....
अच्छा है दिल के पास रहे पासबाने अक्ल
लेकिन कभी-कभी इसे तन्हा भी छोड़िए
(इकबाल साहब से गुजारिश के साथ कि न सोचं अगर मुझ से कोई शब्द कम या फालतू हो गया हो)
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