(हमें सूचना के रूप में एक पत्र मिला है, जिसे हम यहां सार्वजनिक कर रहे हैं। मंगलेश डबराल पर उछाले जा रहे कीचड़ के बीच पाठक इस पत्र को पढ़ें और जानें कि साहित्य में विमर्श और ब्लागिंग में बहस के नाम पर कितनी जघन्यता बरती जा रही है और उसके बरअक्स प्रकारांतर से एक लेखक का ईमान क्या कहता है! मंगलेश जी की सचाई, विचार के प्रति समर्पण और घनघोर हिंसक समाज में भी अपनी ज़मीन पर खड़े रहने के उनके जीवट को हमारा सलाम - कबाड़खाना परिवार )
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मंगलेश डबराल
326- निर्माण अपार्टमेंट , मयूर विहार फ़ेज 1,
दिल्ली -92
आदरणीय प्रो0 सिंह,
आपके 13 फरवरी 2009 के पत्र के लिए धन्यवाद। यह रजिस्टर्ड पत्र मुझे बहुत देर से मिला और कुछ विलम्ब मुझे इसका उत्तर देने में भी हुआ। मैं आभारी हूं कि बिहार राष्ट्रभाषा परिषद और उसके निर्णायक मंडल ने वर्ष 2006-07 के इक्यावन हज़ार धनराशि के राजेन्द्र माथुर स्मृति पत्रकारिकता सम्मान के लिए मेरे नाम का चयन किया है।
सबसे पहले यह सूचना मुझे नेशनल बुक ट्रस्ट के एक सहयोगी सम्पादक श्री कमाल अहमद के जरिए मिली जिन्हें इस वर्ष परिषद का एक साहित्य पुरस्कार प्राप्त हुआ है। उनके माध्यम से मैंने यह संदेश आप तक पहुंचाया था कि मैं बहुत विनम्रता के साथ यह पुरस्कार लेने में असमर्थ हूं और पुरस्कार न लेने का कारण मैं इसकी औपचारिक सूचना प्राप्त करने के बाद सूचित करूंगा। अब जब यह लिखित सूचना मिल चुकी है, मैं इस पुरस्कार को ग्रहण न कर पाने के मुख्य कारणों का उल्लेख नीचे कर रहा हूं -
१-राजेन्द्र माथुर निश्चय ही आधुनिक हिंदी के उन बड़े पत्रकारों में थे जो ऊंचे लोकतांत्रिक मूल्यों, सम्पादकीय स्वायत्तता और अभिव्यक्ति की आज़ादी पर अगाध विश्वास करते थे और उनके लिए संघर्ष भी करते रहे। बिहार सरकार ने ऐसे पत्रकार की स्मृति में सम्मान की स्थापना करके एक महत्वपूर्ण कार्य किया है। मैं यह भी जानता हूं कि मुझसे पहले अनेक महत्वपूर्ण पत्रकारों को यह पुरस्कार मिल चुका है। लेकिन यह पुरस्कार राज्य की ओर से दिया जाता है और इस समय बिहार शासन भारतीय जनता पार्टी नामक एक ऐसे दल के गठबंधन में चल रहा है जिसकी साम्प्रदायिक और हिंदूवादी विचारधारा से मेरी सहमति नहीं है। मेरा मानना है कि हमारे समाज के अनेक संकटों के लिए मुख्यत: यही विचारधारा जिम्मेदार है। इन विचारों का प्रतिनिधित्व करनेवाले राजनीतिक दल के सक्रिय सहयोग से चल रहे राज्य का पुरस्कार लेने में मैं असमर्थ हूं।
२- हिंदी प्रदेशों की तमाम राज्य सरकारें साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रति वर्ष कई दर्जन पुरस्कार देती हैं। वे कई बड़े व्यक्तित्वों के नाम पर स्थापित किए गए हैं लेकिन कुछ अपवादों को छोड़कर उनके वितरण से साहित्य और पत्रकारिता का कितना हित हुआ है, यह सोचने का विषय है। मेरी निजी राय है कि राज्य सरकारों को ऐसे एकमुश्त पुरस्कार देने के बजाए कुछ ठोस और सार्थक रचनात्मक कामों या परियोजनाओं के लिए आर्थिक सहयोग के रूप में ये राशियां देनी चाहिए। शायद यहां एक उदाहरण देना उचित होगा कि विश्व भर के साहित्य को आज हम जिन अंग्रेजी अनुवादों के कारण जानते हैं उनमें से ज्यादातर इसी तरह की आर्थिक सहायताओं के चलते सम्भव हो पाते हैं।
मेरा यह भी अनुरोध है कि मेरे निर्णय को किसी भी रूप में अपनी या निर्णायक समिति या पहले पुरस्कृत हो चुके लोगों की अवमानना के रूप में नहीं लेंगे । यह मेरा नितांत वैचारिक निर्णय है और सच तो यह है कि इस तरह के कुछ फैसले मैंने पहले भी किए हैं।
आशा है आप अच्छी तरह होंगे।
शुभकामनाओं के साथ
आपका
मंगलेश डबराल
मेरा यह भी अनुरोध है कि मेरे निर्णय को किसी भी रूप में अपनी या निर्णायक समिति या पहले पुरस्कृत हो चुके लोगों की अवमानना के रूप में नहीं लेंगे । यह मेरा नितांत वैचारिक निर्णय है और सच तो यह है कि इस तरह के कुछ फैसले मैंने पहले भी किए हैं।
आशा है आप अच्छी तरह होंगे।
शुभकामनाओं के साथ
आपका
मंगलेश डबराल
प्रो0 रामबुझावन सिंह
निदेशक - बिहार राष्ट्रभाषा परिषद
मानव संसाधन विकास(उच्च शिक्षा) विभाग
बिहार सरकार
पटना- 800 004
8 comments:
बहुत शुक्रिया शिरीष! मुझे भी यह मेल अभी कुछ समय पहले मिला. इसे यहां लगाने की मंशा मेरी भी थी.
चलिए अब ये बहस ख़त्म हुई ....
अशोक भाई,
छिछले लोग चाहते हैं कि कोई उनके स्तर पर उतर आए। ऐसे लोग जिनके पास अपने घिनौनेपन के लिए कोई शर्म नहीं है। इसी ब्लॉग की दुनिया में उनकी करतूत नुमायां हो रही थी।
मंगलेश डबराल हिंदी के समकालीन कवियों में सर्वाधिक प्रगतिशील नाम हैं। आपको आपके कविता संग्रह हम जो देखते हैं के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल चुका है। यह पुरस्कार उन्हें 2000 में मिला। उस वक्त केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार थी।
हे सखि क्या सच?
Look friends neither have i read him nor do i intend to read in future 'cos i am simply a prose lover, but i am aware of his stature in the realm of literature . That is why i condemned those bunch of rascals who were hell bent on making fun of him on a certain shady blog.
I also know that he represents an atheistic school of scholars, however, that doesn't stop me from standing up for him since he belongs to Garhwal " the abode of warrior gods" . Jai Badrivishal!
मंगलेश जी ने उचित ही फैसला किया. वैसे मेरी राय में पत्रकारों को किसी भी सरकार से पुरस्कार नहीं लेना चाहिये, भाजपा हो या वामपंथी.
पत्र महत्वपूर्ण है और साथ ही नीलोफर जी द्वारा दी गई जानकारी भी..!
ye poora mamla hi hindi me chal rahe bikao charitrahanan ka hi hai.lagta hai hindi ke sahitya sansar ke ek hisse ko ab logon ke kathin hote ja rahe jeevan se koi matlab nahi rah gya.jin logo ne ise chla rakha hai unki samajh ki balihari.wo itna bhi nahi jante ki akadmi puraskar ek swayatt sanstha deti hai bharat sarkaar nahi aur bihar ke jis purashkar ko manglesh ji ne nahi liya wo rajya sarkar deti hai. waise mohlla ke karta dharta bihar ke hi hain aur itni soochna to wo bhi rakhte hain fir bhi is chichore vivaad ko chla rahe hain to ab unke bare me kya kaha jay.nilofar aur kanchan ji jaise log pata nahi kaun sa saty janna chahte hain.patra lamba ho raha hai lekin man kafi chubdh hai. bas yad dila do ki yahi puraskaar tha aur kareeb 10 ya 12 baras pahle bihar me bathani tola jansanghar ranveer sena ne laloo ji ki sarparasti me kiya tha.21 bacchon aur mahilaon ki nirmam hatya kar di gai thi tab manglesh ji ke hi sanghthan jan sanskriti manch ne hi lekhko se purashkar thukra dene ki appel ki thi.tab kai bade log is par kafi naraj bhi hue the ki aap logo se ye kahe kah rahe hai.fir jab trilochan ji ne ek puraskaar le liya jb wo jasam ke adhykh the tab yahi log halla karne lage ki kahe liya.darasl mamla to kahi aur hi hai.khair behtar hota ki vivad jis kavita par likhne se hua yani asad jaidi ki 1857 ka samaan ya 1857 ko dekhne ka najariya to kuch baat banti.par yaha to baat ki gunjaish hi nahi. koi vichar par baat karne ko tyaar hi nahi.sirf aur sirf vyktigat kuntha ka samrajya faila hua hai.
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