Tuesday, April 7, 2009

दुनिया का सबसे बड़ा 'कबाड़खाना' हमारा दिल है !

हमारे परम कबाड़ी मित्र और युवा कवि शिरीष कुमार मौर्य अपनी कलम और कीबोर्ड का कमाल दिखलाते हुए अब 'देशबंधु' अखबार में 'ब्लाग कही शीर्षक से स्तंभ भी लिखने लगे हैं।अभी हाल ही में उनका नया संग्रह भी आया है-'पृथ्वी पर एक जगह'. शिरीष ने हिन्दी ब्लॉग पर बतकही के मुताल्लिक पहली कड़ी 'कबाड़खाना' पर लिखी है. इसे अपने ही घर पर कुछ लिखा -पढ़ा न समझा जाय. 'कबाड़खाना' हमारा साझे का घर है और हम इससे बहुत प्यार करते हैं. इस आलोक में शिरीष की बतकही को मैं एक तरह से आत्मावलोकन भी मानता हूँ। अपने मुखिया अशोक पांडे और बाकी साथियों से अनुमति की प्रत्याशा में शिरीष की बतकही को यथावत प्रस्तुत कर रहा हूँ-

इस
बार की ब्लागकही 'कबाड़खाना' पर केन्द्रित है। पहला सवाल उठता है कि आंखिर है क्या ये कबाड़खाना? अड़तीस-चालीस लोगों का अपना एक आत्मीय अड्डा या इससे आगे एक समूचा विचार? जाहिर है कि ब्लाग का नाम ज्ञानरंजन की प्रसिद्ध पुस्तक 'कबाड़खाना' से लिया गया है लेकिन हमारे 'कबाड़खाना' ने अपनी एक सैद्धान्तिकी भी दी है! वरिष्ठ कबाड़ी और 'हिंदुस्तान' अख़बार में कार्यरत आशुतोष ने इस सैद्धान्तिकी को इन शब्दों में जाहिर किया -


''दुनिया के सबसे खादू और बरबादू देश अमेरिका की कोख से जन्मा है कबाड़वाद (फ्रीगानिज़्म) और बनाना चाहता है इस दुनिया को सबके जीने लायक और लंबा टिकने लायक. कबाड़वादी मौजूदा वैश्विक अर्थव्यवस्था में उत्पादित चीजों को कम से कम इस्तेमाल करना चाहते हैं. फर्स्ट हैण्ड तो बिल्कुल नहीं. ये लोग प्राकृतिक संसाधनों से उतना भर लेना चाहते हैं, जितना कुदरत ने उनके लिए तय किया है. कबाड़वाद के अनुयायी वर्तमान व्यवस्था की उपभोक्तावाद, व्यक्तिवाद, प्रतिद्वंद्विता और लालच जैसी वृत्तियों के बरक्स समुदाय, भलाई, सामाजिक सरोकार, स्वतंत्रता, साझेदारी और मिल बांटकर रहने जैसी बातों में विश्वास करते हैं. दरअसल कबाड़वाद मुनाफे की अर्थव्यवस्था का निषेध करता है और कहता है इस धरती में हर जीव को अपने हिस्से का भोजन पाने का हक है. इसलिए कबाड़वादी खाने-पीने, ओढ़ने बिछाने, पढ़ने-लिखने सहित अपनी सारी जरूरतें कबाड़ से निकाल कर पूरी करते हैं. मैं समझता हूं हम कबाड़खाने के कबाड़ियों में भी ऐसा कोई नहीं, जो कबाड़वाद की भावना की इज़्ज़त न करता हो. कबाड़वादी बनना आसान नहीं लेकिन हम सब उसकी स्पिरिट के मुताबिक बड़ा बनने की लंगड़ीमार दौड़ से बाहर रहने के हिमायती रहे हैं.


तो हे कबाडियो! आज कसम खाएं, कबाड़खाने में सहृदयता के बिरवे को हरा-भरा रखने के लिए अपनी आंखों की नमी को सूखने नहीं देंगे. आमीन!''


पाठक समझ सकते हैं कि यह एक गम्भीर विचारकर्म और पहलकदमी थी, जिसे जाहिरा तौर पर एक मस्ती के साथ अंजाम दिया जाना था. इस ब्लाग के संचालक सुपरिचित अनुवादक अशोक पांडे की अपनी एक जीवन शैली है और उनकी शख्सियत के बारे में एक पंक्ति में कहा जा सकता है कि "अजब आज़ाद मर्द है"! अशोक ने आजादी चुनी है. वे खुद से जुड़ी सभी चीजों को उसी आजादी के साथ अंजाम देते है. उन्होंने जब ब्लाग बनाना तय किया तो अकेलेपन के निषेध के साथ. उन्होंने मुझे, सिद्धेश्वर सिंह, आशुतोष उपाध्याय आदि मित्रों को जोड़ा और हमें मजबूर किया कि हम इस ब्लाग की स्पिरिट को समझें और इस कुनबे को आगे बढ़ाएं. ऐसा हुआ भी - आज इस ब्लाग में उस्ताद कबाड़ी विख्यात कवि वीरेन डंगवाल के साथ-साथ पंकज श्रीवास्तव, महेन मेहता, मीत, विजयशंकर चतुर्वेदी, अनिल यादव, राजेश जोशी, रवीन्द्र व्यास, गीत चतुर्वेदी, संजय पटेल, अजित वडनेरकर, आनन्द स्वरूप वर्मा, उदयप्रकाश, दिलीप मंडल आदि कई नाम है. कबाड़खाने के सदस्यों में एक अद्भुत विविधता है. अनिल यादव पत्रकार हैं तो आदरणीय साथी आनन्दस्वरूप वर्मा की एक उग्रवामपंथी पृष्ठभूमि रही है. गीत चतुर्वेदी विख्यात युवा कवि और कहानीकार हैं. महेन बैंगलोर में रहते हैं अजित वडनेरकर भोपाल में. रवीन्द्र व्यास पेंटर हैं. राजेश जोशी 'बी।बी.सी. लंदन' जैसे वैश्विक माध्यम में हैं और विनीता यशस्वी नैनीताल के पाक्षिक पत्र 'नैनीताल-समाचार' में! यह परिचयमाला बहुत लम्बी है, इसलिए मैं विस्तार में नहीं जाऊंगा.


कबाड़खाना के सदस्य एक स्वर में कहेंगे कि इसमें विभिन्न माध्यमों में हम जिंदगी के लिए ज़रूरी चींजों की तलाश करते हैं, जिसमें हर सदस्य का अपना योगदान होता है. हम किसी एक चट्टान से चिपक कर खड़े नहीं हैं बल्कि जीवन की राहों के कंकर चुन रहे हैं. सबकी अपनी विधाएं हैं और अपनी वैचारिकी. ऐसा बहुत कम देखने में आता है कि इस तरह के उच्च वैचारिक स्तर के इतने लोग बिना आपस में टकराए एक साथ एक काम को मिशन के तौर पर अंजाम दे रहे हों. कबाड़खाना में आपको साहित्य और उसकी सैद्धान्तिकी मिलेगी. राजनीति तथा आर्थिक विश्लेषण भी मिलेंगे. यहाँ आपको रवीन्द्र व्यास की खूबसूरत हरी पेंटिग्स के साथ गुलजार की नज़्मों की व्याख्या मिलेगी. अशोक, सिद्धेश्वर सिंह, मीत, एस. बी. सिंह आदि साथियों द्वारा उपलब्ध कराया गया संगीत भी विपुल मात्रा में मिलेगा, जिसमें शास्त्रीय, कव्वाली आदि से लेकर पुराने सपनीले फिल्मी गीत तक शामिल है. इसमें भारत से लेकर सुदूर यूरोप तक की यात्राओं के विवरण हैं और हमारे आभ्यंतरीकृत संसार के कई अनोखे दृश्य भी. कई लम्बी राजनीतिक- साहित्यिक बहसें हैं, जिन्हें शातिर लोग 'विमर्श' कहेंगे पर एक कबाड़ी शातिर हो ही नहीं सकता - वह बहस ही कहेगा और बहस ही करेगा. हाल की प्रविष्टियों पर निगाह डालें तो राजनीति के बाहुबलीकरण पर पंकज श्रीवास्तव और अनिल यादव ने एक सार्थक मुहिम छेड़ रखी है.

अनिल का कहना सही है कि किसी गदगदायमान कविता या ऐसी ही किसी और सुन्दर शाकाहारी पोस्ट पर टिप्पणियों की बाढ़ आ जाती है पर हमारे जीवन से जुडें सबसे कड़वे सचों से हम यँ ही ऑंख चुराते हैं. इसी बहस के बीच की जगहों में आप अनीता वर्मा की कविताएँ देख सकते हैं, जो उनके खराब स्वास्थ्य के बीच जिजीविषा की अद्भुत अभिव्यक्ति हैं. इधर अशोक और अनिल ने मिलकर भारत के महानायक पर एक चुटीली व्यंग्य श्रृंखला शुरू की है, जिसे पढ़कर अनायास ही शरद जोशी का याद आ जाती है.


'कबाड़खाना' हमारे जीवन के उत्तरआधुनिक अंधेरे में कबाड़ समझ ली गई कई जरूरी चींजों की शिनांख्त कर रहा है और उन्हें हमारे समने रख रहा है. और जाहिर है कि दुनिया का सबसे बड़ा कबाड़खाना आदमी के दिल में होता है. हमें हमारे दिलों में झांकने की आदत डालने वाले अशोक पांडे के 'कबाड़खाना' को सलाम!


-शिरीष कुमार मौर्य
(लेखक हिंदी के चर्चित युवा कवि और ब्लागर हैं)

11 comments:

एस. बी. सिंह said...

बहुत दिनों बाद आने पर स्वागत। शिरीष भाई की यह बात बिल्कुल ठीक है की हमारा दिल सब से बड़ा कबाड़खाना है। इस कबाड़खाने पर सौ खजाने कुर्बान। क्या क्या नायाब रत्न जो जिंदगी के समुद्र मंथन से निकले है इसी कबाड़खाने में ही तो छिपे हैं।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

भाई शिरीष कुमार मौर्य जी।
आपने दिल को कबाड़खाना
बता कर व्यक्तियों को मजबूर किया है
कि वो अपना दिल टटोलें और कबाड़ को
हटा दें।
बधाई स्वीकार करें।

संगीता पुरी said...

बहुत बढिया पोस्‍ट लिखा आपने।

मुनीश ( munish ) said...

अरसा हुआ मैंने लिखा था --
"यहाँ -वहाँ ,जहाँ -तहाँ जो मिलता नहीं ज़माने में /पाया है वो सुकूँ आके मैंने तेरे कबाड़खाने में!!"
मैं तो इसीलिये यहाँ बराबर आय करता हूँ जेनाब .

श्यामल सुमन said...

है कबाड़खाना सजग सबकी खोले पोल।
कई कबाड़ी प्रेम से रोज बजाये ढ़ोल।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

अच्छा स्तम्भ शुरू हुआ है.

ravindra vyas said...

शुभकामनाएं।

महेन said...

बधाई हो कबाडियों. शिरीष की पीठ ठोकी जानी चाहिए. खरी बात.

Ek ziddi dhun said...

theek baat

दीपा पाठक said...

बढिया पोस्ट सिद्धेश्वर जी, शिरीष जी को बधाई एक नई लेखकीय भूमिका मिलने की।

Unknown said...

कबाड़खाना के पुराने और नये पाठकों की जानकारी के लिहाज से आपकी बतकही सुंदर है...बधाई.