Tuesday, April 28, 2009

पप्पुओं की चुनावी चकल्लस

यह कैसा चुनाव है, जिसमें चुनने को कुछ है ही नहीं। दिल्ली में सरकार किसकी और कैसी बनेगी- मीडिया के मुंहजोर विशेषज्ञ ही नहीं, खुद प्रधानमंत्री पद के दावेदार भी बता रहे हैं- इस बात का फैसला वोटिंग मशीनों से नहीं, कहीं और से निकलने वाला है। चुनाव बाद कौन कितनी सीटें लेकर आता है, फिर किसके बीच कैसे समीकरण बनते हैं, इन समीकरणों को बनाने में थैलियों का कैसा और कितना रोल बनता है, इससे तय होगा कि सरकार किसकी बनेगी। कैसा चुनाव है यह, जिसमें शुरू से ही तय है कि न कोई पक्ष जीतने वाला है, न कोई हारने वाला है, सारा कुछ बस ऊपर से तय होने वाला है।

इस परिघटना को क्या कहें, सिवाय इसके कि दो-ढाई दशक पहले शुरू हुई एक प्रक्रिया इसी तरह अपनी परिणति तक पहुंच रही है। जनता सरकार के पतन के बाद लौटी इंदिरा गांधी राजनीति का जो नया हमलावर मुहावरा अपने साथ लाई थीं उसकी पूर्णाहुति उन्हें अपना शरीर देकर चुकानी पड़ी। उसे जारी रखना राजीव गांधी के बूते से बाहर था, अलबत्ता श्रीलंका में उन्होंने अपनी एक कदम आगे दो कदम पीछे वाली भकचोन्हर स्टाइल में इसे जारी रखने की कोशिश जरूर की थी।

राजनीति को आक्रामक मुहावरों से चार्ज रखने के बजाय उन्होंने खुद को राजनीति के थपेड़ों में टपले खाने के लिए छोड़ दिया और अपने लिए एक राजनीति-निरपेक्ष करीअरिस्ट कांस्टिटुएंसी बनाने की कोशिश की। लेकिन यह काम रातोंरात नहीं हो सकता था। कहें तो यह बीस साल बाद, यानी कुछ हद तक अब जाकर संभव हुआ है, जब उसे संभालने-सहेजने वाला कोई नहीं है।

पंचायती राज से लेकर कंप्यूटर तक राजीव गांधी के सारे प्रयोग देख जाइए- सभी के कुछ अच्छे नतीजे भी देश के लिए निकले हैं, जिन्हें आधार बनाकर उन्हें स्वप्नदर्शी वगैरह बताया जा सकता है, बताया जा भी रहा है। लेकिन इनका दूसरा पक्ष यह है कि पंचायती राज ने गांवों के स्तर पर भ्रष्टाचार, हिंसा और गैर-जवाबदेही को असाधारण ऊंचाइयों तक पहुंचा दिया है , जबकि सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग के इर्दगिर्द नए-नवेले पैसे वालों की ऐसी जमात खड़ी हो गई है जो अमेरिका में खड़े होकर सोचती है और भारत को अपने रीयल एस्टेट की तरह देखती है।

बिजली-सड़क-पानी नाम का जो महामंत्र मीडिया पिछले सात वर्षों से जप रहा है, उसका एक पहलू यह भी है कि इन मामलों में कुछ करते हुए दिखिए, फिर चाहे जो कीजिए- आपका नरेंद्र मोदी होना भी माफ है। गांवों में यह प्रधानों और प्रधानपतियों का और शहरों में दो या तीन बेडरूम वाले ब्रह्मांड के महानायकों का लोकतंत्र है, जिनके बारे में पंकज मिश्र की किताब बटर चिकन इन लुधियाना और पवन वर्मा की द ग्रेट इंडियन मिडल क्लास अच्छी खिड़कियां खोलती हैं।

राजीव गांधी के दौर की ही दूसरी सबसे बड़ी उपलब्धि सत्ता शिखर का भ्रष्टाचार है, जिसने राजनीति में नैतिकता की रही-सही हुड़क को भी समाप्त कर दिया। हर छह में से एक उम्मीदवार करोड़पति होने के जो आंकड़े छप रहे हैं, उससे किसी को कोई आक्रोश नहीं है। अगर आप राजनीति में हैं और जाहिर तौर पर आपके खिलाफ किसी बहुत बड़े भ्रष्टाचार का आरोप नहीं है तो आप देश पर बहुत बड़ा एहसान कर रहे हैं। और अगर आरोप हो भी तो चिंतित होने की कोई बात नहीं है। जिन संस्थाओं से आपको ऐसा कोई डर हो सकता है, वे सब आपको बचाने के लिए जी-जान लड़ा देंगी, शर्त सिर्फ इतनी है कि आप किसी तरह सत्ता में पहुंच जाएं या उसके नजदीकी बन कर रहें।

राजीव गांधी के बाद की राजनीति में मंदिर आया, मंडल आया, बहुजन क्रांति आई, लेकिन ये सभी अब धीरे-धीरे जा रहे हैं। समाज में इनकी छापें लंबे समय तक रहेंगी लेकिन राजनीति में अब सारा कुछ उसी लेवल प्लेयिंग फील्ड में घटित होगा, जिसकी रचना राजीव गांधी करके गए हैं। देश की अस्सी फीसदी आबादी की छाती पर बुलडोजर की तरह फिरता एक या दो प्रतिशत सुपर अमीरों का लोकतंत्र, जिनके पीछे अट्ठारह-उन्नीस फीसदी मिडल क्लास झाल बजाता घूम रहा है।

बाकी लोगों के लिए चुनाव में चलने वाली कच्ची दारू है, टंडन के जलसे में बंटने वाली साड़ी है, छोटे-मोटे अपराध हैं, आत्महत्याएं हैं, पागलपन और भिखमंगापन है। ऐसे लोग वोट दें भी तो क्या, और न दें तो भी क्या- पप्पू लोग तो उन्हें पप्पू कह कर ही बुलाएंगे- और मई या जून की किसी तारीख को जब दिल्ली में उनकी मर्जी की सरकार बन चुकी होगी तो इसे लोकतंत्र की विजय बताएंगे।

3 comments:

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

एक दिन सब ठीक हो जाएगा.

Ashok Pande said...

बेहतरीन पोस्ट चन्दू भाई! सच में! विचारों को झकझोरती.

चलिये लोकतन्त्र की विजय का जश्न मनाया जाए.

Unknown said...

जैसे लाल चाउर, वैसे दांतनिपोर ग्राहक।
जैसे पप्पू, वैसा लोकतंत्र।