Wednesday, May 6, 2009

जंगल तेरे, परबत तेरे, बस्ती तेरी सहरा तेरा

जिन चीजों ने 'बरबाद' करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है उनमें से एक इब्ने इंशा (१९२७-१९७८) की शायरी भी है. इंशा खुद कहते हैं - 'एक जरा से किस्से को अब देते क्या हो तूल मियाँ ' इसलिए लिखत - पढ़त ज्यादा नहीं !

जब शायरी के पक्षी को संगीत के पंख मिल जायें तो क्या कहने ! आइए सुनते हैं इंशा साहब की एक कालजयी रचना - स्वर है आबिदा परवीन का -

कल चौदहवीं की रात थी, शब-भर रहा चर्चा तेरा.
कुछ ने कहा ये चाँद है, कुछ ने कहा चेहरा तेरा।

हम भी वहीं मौजूद थे, हमसे भी सब पूछा किये,
हम हँस दिये, हम चुप रहे, मंज़ूर था पर्दा तेरा।

इस शहर में किससे मिलें, हमसे तो छूटीं महफ़िलें,
हर शख़्स तेरा नाम ले, हर शख़्स दीवाना तेरा।

कूचे को तेरे छोड कर जोगी ही बन जायें मगर,
जंगल तेरे, परबत तेरे, बस्ती तेरी सहरा तेरा।

बेदर्द सुननी हो तो चल, कहता है क्या अच्छी ग़ज़ल,
आशिक़ तेरा , रुस्वा तेरा, शाइर तेरा 'इंशा' तेरा।




(मन करे तो इंशा और आबिदा को यहाँ भी सुन सकते हैं. चाँद की तस्वीर इंटरनेट से, गूगल बाबा की जय )

6 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

मेरी सब से पसंदीदा ग़ज़लों में से एक।

कंचन सिंह चौहान said...

कूचे को तेरे छोड कर जोगी ही बन जायें मगर,
जंगल तेरे, परबत तेरे, बस्ती तेरी सहरा तेरा।

Andhra Pradesh me service ke silsile me 1 yr ke ekanta pravas ke Dauran ye line repeat kar kar ke suni jaati thi.

aur sath me "kaun ayega yahaN, koi na aaya hoga" bhi

admin said...

यह मेरी पसंदीदा गजल है। सुनकर मजा आ गया।

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SBAI TSALIIM

पारुल "पुखराज" said...

इस शहर में किससे मिलें, हमसे तो छूटीं महफ़िलें,
हर शख़्स तेरा नाम ले, हर शख़्स दीवाना तेरा।
abida ki aavaaz me aur bhi shaandaar

Bhavesh Pandey said...

Baat to aapne sahi kahi ibne insa ki shayari ne barbaad karne main koi kashar nahi chhodi par insa ji b ye maante hain kya jara gaur faramayen...
ये बातें झूठी बातें हैं, ये लोगों ने फैलाई हैं
तुम इंशा जी का नाम न लो, क्या इंशा जी सौदाई हैं?

हैं लाखों रोग ज़माने में, क्यों इश्क़ है रुसवा बेचारा
हैं और भी वजहें वहशत की, इन्सान को रखतीं दुखियारा
हाँ बेकल बेकल रहत है, हो प्रीत में जिसने दिल हारा
पर शाम से लेके सुबहो तलक, यूँ कौन फिरे है आवारा
ये बातें झूठी बातें हैं, ये लोगों ने फैलाई हैं
तुम इंशा जी का नाम न लो, क्या इंशा जी सौदाई हैं?

गर इश्क़ किया है तब क्या है, क्यूँ शाद नहीं आबाद नहीं
जो जान लिये बिन टल ना सके, ये ऐसी भी उफ़ताद नहीं
ये बात तो तुम भी मानोगे, वो क़ैस नहीं फ़रहाद नहीं
क्या हिज्र का दारू मुश्किल है, क्या वस्ल के नुस्ख़े याद नहीं
ये बातें झूठी बातें हैं, ये लोगों ने फैलाई हैं
तुम इंशा जी का नाम न लो, क्या इंशा जी सौदाई हैं

जो हमसे कहो हम करते हैं, क्या इन्शा को समझना है
उस लड़की से भी कह लेंगे, गो अब कुछ और ज़मना है
या छोड़ें या तकमील करें, ये इश्क़ है या अफ़साना है
ये कैसा गोरख धंधा है, ये कैसा ताना बाना है
ये बातें झूठी बातें हैं, ये लोगों ने फैलाई हैं
तुम इंशा जी का नाम न लो, क्या इंशा जी सौदाई हैं

एस. बी. सिंह said...

हम भी वहीं मौजूद थे, हमसे भी सब पूछा किये,
हम हँस दिये, हम चुप रहे, मंज़ूर था पर्दा तेरा।

आह !
बार बार अलग अलग आवाजों में सुनिए पर हर बार परदे से अलग रंग झांकते नज़र आते हैं। इंशा जी की सदाबहार ग़ज़ल सुनवाने का शुक्रिया।