एक विवाह समारोह में शामिल होने काशी गया था। रास्ते में इलाहाबाद पड़ा। वहां शास्त्री ब्रिज से गुजरते हुए गंगा का हाल देखा तो दिल धक से रह गया। मुख्य शहर के किनारे को छोड़, किलोमीटर भर फैली रेत के बाद झूंसी के करीब गंदले पानी की किसी छोटी नहर जैसी लग रही थी गंगा। संगम से महज कुछ फर्लांग पहले का ये हाल था। इसी शहर में मेरा दूसरा जन्म हुआ था। संगम में सरस्वती के लोप की भरपाई जिस विश्वविद्यालय ने की थी, उसी गुरुकुल में दुनिया को देखने की नई दृष्टि मिली थी। गंगा के किनारे रसूलाबाद घाट पर बरसों बिताए थे। महादेवी के साहित्कार संसद वाले टीले के नीचे, चंद्रशेखर आजाद की समाधिस्थल के पास रात को एक-दो बजे मित्रों के साथ भूतों को चिल्ला-चिल्लाकर बुलाने का खेल खेला था। पास ही चिताएं सुलगा करतीं थीं, पर कभी डर नहीं लगा, जैसे बच्चे मां के करीब होने से नहीं डरते। उस गंगा का हाल देखकर दिल डूब सा गया।
पर बनारस पहुंचकर इस जख्म को और भी गहरा होना था। रामनगर से राजघाट तक बीच गंगा में जगह-जगह टापू नजर आ रहे थे। भविष्य का भयावह संकेत! कुछ दिन पहले ही पढ़ा था कि गंगा अधिक से अधिक 25 बरस की मेहमान है। तो क्या लुप्त हो जाएगी गंगा! फिर कैसी होगी उत्तराखंड से लेकर बंगाल तक की भूमि! कैसे बचेगा पहाड़ का हरापन, कैसे होगी खेती, कैसे चलेगा जीवन। क्या फतेहपुर सीकरी की तरह दिल्ली भी उजड़ जाएगी जिसे पानी देने के लिए टेहरी नाम का शहर कुर्बान कर दिया गया। गाजियाबाद से लेकर कोलकाता तक उग रहे कंक्रीट के जंगलों में क्या सियार हुँआं-हुँआ करेंगे? इन्हीं के लिए लोग बैंकों से लाखों का कर्ज लेकर ईएमआईग्रस्त हो रहे हैं!
कहते हैं कि ये सब ग्लोबल वार्मिंग का नतीजा है। पर ये वार्मिंग किसी देवता का श्राप तो नहीं। हिमालय के ग्लेशिय़रों का पिघलना हमारे ही (कु)कर्मों का फल है। हजारों साल से मनुष्य और गंगा में मां-बेटे का संबंध बना रहा। पर औद्योगिक विकास के बमुश्किल सौ साला सफर ने इस मां को बेटों के हाथ जहर दिला दिया। दुर्भाग्य ये है कि इस मुद्दे पर सोचने की किसी को फुर्सत नहीं। लोकसभा चुनाव में चाहे जितनी बातें हुई हों, गंगा मुद्दा नहीं रही। न पार्टियों के लिए, न लोगों के लिए। भूले भटके किसी ने नाम लिया भी होगा तो गंगा की गंदगी का। अरे, क्या साफ करोगे? पानी या रेत!.
संवेदनहीनता या कहें बेजारी का ये आलम ही इस चुनाव की मुख्य धारा है। आखिर पचास फीसदी से ज्यादा लोगों ने वोट न देकर और क्या साबित किया है। न उन्हें प्रत्याशी वोट देने के लिए प्रेरित कर पा रहे हैं और न पार्टियां। वोट दे दिया तो भी ठीक, न दिया तो भी। एक सघन स्वप्नहीनता चहुंओर।
बहरहाल, काशी में था तो पप्पू की चाय की दुकान पर पहुंचना ही था। गंगा का हाल हो या चुनाव का गणित, अपनी समझ के कील-कांटे दुरुस्त करने के लिए इससे बढ़िया जगह कोई नहीं। अस्सी मुहल्ले की इस दुकान के बारे में हिंदी साहित्य में रुचि रखने वाले लोग अच्छी तरह जानते हैं। काशीनाथ सिंह ने अपने संस्मरणों से इसे अमर कर दिया है। उनके तमाम पात्र वहां मंडराते रहते हैं और पप्पू की वायु विमोचनी चाय के साथ देश दुनिया पर बहस करते हैं। नींबू की इस चाय में हाजमोला भी पीस कर डाला जाता है जिससे वात से राहत मिल जाती है और चर्चा में रस घुलता रहता है। वैसे, भट्ठी के करीब ही शिवजी की बूटी भी सहज उपलब्ध रहती है।
चर्चा चुनाव की हो रही थी। बनारस में 30 अप्रैल को मतदान हो चुका था। सत्तारूढ़ बीएसपी के उम्मीदवार मुख्तार अंसारी और बीजेपी की त्रिमूर्ति में से एक डा.मुरली मनोहर जोशी के बीच मुकाबला माना जा रहा है। मुख्तार पूर्वांचल का बाहुबली है और इस समय जेल में है। उस पर हत्या, डकैती जैसे कितने ही संगीन मुकदमे दर्ज हैं। और अस्सी पर चर्चा थी कि डा.जोशी फंस गए हैं। मुख्तार अंसारी जीत सकता है। वजह? मैंने भी पूछा। जवाब अलग-अलग कोण से अलग-अलग लोगों ने दिया। सुनिए (पढ़िए)
सवाल--इतना बड़ा माफिया, वोट कैसे मिला होगा?
जवाब--अरे वो सब बड़े लोगों की लड़ाई है। ठेका लेने की, ठसक बनाने की। मरता-मारता तो वही है, जो इसमें पड़ता है। आम लोगों को क्या मतलब।
सवाल--अरे,लेकिन काशी है, सर्विवद्या की राजधानी। यहां से मुख्तार सांसद होगा! अखबारों और चैनलों से रोज ही अपील की जा रही है कि बाहुबलियों को हराइये। क्या असर नहीं होगा?
जवाब-- अरे, डा.जोशी की पार्टी ने दंगे कराके जितने मरवाए हैं, उसके सामने तो मुख्तार का अपराध छोटा ही है। फिर किस मीडिया की बात कर रहे हैं आप। यहां बाकायदा पैसे लेकर खबरें छापी जा रही हैं। खुला खेल फर्रुखाबादी। असर क्या पड़ेगा..खाक।
सवाल---लेकिन काशी तो धार्मिक नगरी है। हिंदुओं की आबादी को देखते हुए एक मुस्लिम प्रत्याशी से कैसे नहीं जीतेंगे डा.जोशी?
जवाब--भइया, चुनाव में धरम नहीं, जाति चलती है। सीधा गणित है। मुसलमान और दलितों ने मुख्तार को जमकर वोट दिया। सपा प्रत्याशी अजय राय से कोलअसला क्षेत्र के कुर्मियों का झगड़ा था। वो भी अजय राय को हराने के लिए मुख्तार के समर्थन में आए। करीब साव दो लाख वोट तो सीधे गिन लो।
सवाल--और बाकी..?
जवाब--बाकी क्या। कुल साढ़े छह लाख वोट ही पड़े हैं। एक तिहाई मिल गया तो जीत ही जाएगा मुख्तार। हालांकि दोपहर बाद हिंदू-मुस्लिम भी चलाने की कोशिश हुई, लेकिन कुल 43 फीसदी वोट ही पड़ा। फिर मौजूदा सांसद कांग्रेस के राजेश मिश्र भी खड़े हैं। सपा के अजय राय हैं, वो भी तो कम हिंदू नहीं। फंस गए है डा.जोशी। जीत जाएं तो किस्मत।
मन अभी भी नहीं मान रहा कि मुख्तार काशी से सांसद बनकर दिल्ली की गोल इमारत में पहुंचेगा। पर ऐसा हुआ तो अचरज नहीं होगा। पप्पू की दुकान से मिले ज्ञान ने आंखें कुछ और खोल दी हैं। वहां तमाम बातें और भी हुईं जिन्हें बताने लगूं तो पोथा लिखना पड़ेगा। बहरहाल, कुछ निष्कर्ष पेश हैं--
1. लोग ऐसा प्रतिनिधि नहीं चुनते जो संसद में बैठकर कानून बनाने पर बहस करे। लोग चुनते हैं ऐसे शख्स को जो उन्हें संरक्षण दे। उनके अच्छे-बुरे काम में साथ दे। उनकी पहुंच में हो। जाति-धरम का प्रत्याशी होना अपनापन पैदा करता है।
2.पार्टियों के पास कोई ऐसा सपना नहीं है जो लोगों को आकर्षित कर सके। यानी जाति-धरम को छोटा करने वाली बड़ी रेखा खींच सके। ऐसे में निजी हित ही महत्वपूर्ण है। वो ही जनप्रतिनिधि अच्छा जो विकास योजनाओं के लिए आवंटित सरकारी धन की लूट में हिस्सेदार बनाए। जैसे ठेका वगैरह दिलाए, जो उद्योग विहीन इलाकों का एकमात्र उद्योग है।
3.बीजेपी अगर उत्तर प्रदेश में वोटों की फसल नहीं काट पा रही है तो उसकी वजह किसी धर्मनिरपेक्ष विचार के प्रति लोगों का आग्रह नहीं है। उसकी राह में सबसे बड़ा कांटा निम्न और पिछड़ी जातियां हैं जो बीएसपी, समाजवादी पार्टी, अपना दल, भारतीय समाज पार्टी जैसे दलों के साथ जुड़कर सत्ता में भागीदारी का सपना देखती हैं। बीजेपी उनकी नजर में सवर्ण हिंदुओं की पार्टी है। वर्ण व्यवस्था इस लिहाज से उन लोगों के लिए बूमरैंग साबित हुई है जो वर्ण व्यवस्था को बनाए रखते हुए हिंदुओं की एकता का ख्वाब देखते हैं।
4.लोकतंत्र के चौथे खंभे यानी मीडिया की साख रसातल मे चली गई है। लोगों की नजर में वो पूंजी का गुलाम है। चुनाव बात हिंदी पट्टी में पत्रकारों की बड़े पैमाने पर पिटाई हो सकती है। पैसा न देने की वजह से अखबारों ने जिनकी खबरों का लगभग बहिष्कार किया वे प्रत्याशी और उनके समर्थक चुनाव बाद बदला लें तो आश्चर्य नहीं। अफसोस की बात ये है कि इस नीति पर कुछ बड़े अखबार भी सीना ठोंककर चले हैं।
5.मतदान के प्रेरित करने के लिए चले राष्ट्रीय अभियान के बावजूद लोगों में वोट देने की खास इच्छा नहीं नजर आई। कभी ट्रेड यूनियन, छात्रसंघ , सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन लोगों का राजनीतिक प्रशिक्षण करते थे। पर जबसे अराजनीतिक होना बेहतर माना जाने लगा है, लोग मतदान के प्रति भी उदासीन हो गए हैं। पप्पू की दुकान पर ऐसे लोग भी मिले जो मुख्तार के खिलाफ थे, लेकिन डा.जोशी की राजनीति को भी खतरनाक मानते थे। उनके सामने कोई विकल्प नहीं था। लिहाजा घर बैठ गए।
इस पाठ को पढ़कर मैं पप्पू की दुकान से वापस आ गया। लेकिन एक बार देर तक सालती रही कि गंगा के किनारे बहसबाजी के इस अड्डे पर गंगा की दुर्दशा का सवाल एक बार भी नहीं उठा। काशी में गंगा के घाट, मंदिर, शमशान आदि एक अर्थव्यवस्था भी रचते हैं। लाखों लोगों का पेट भरता है। लेकिन गंगा का हाल चुनावी मुद्दा नहीं बनता। आस्था जबरदस्त है और आंखे बंद। ऐसा लगता है कि गंगा हमारी हवस का शिकार हुई है। हम सब गंगा के हत्यारे हैं और एक हत्यारे समाज में गंगा को क्यों बहना चाहिए। भूपेन हजारिका का ताना उसने दिल पर ले लिया है--
विस्तार है अपार, प्रजा दोनो पार,
करे हाहाकार, नि:शब्द सदा
ओ गंगा तुम, बहती हो क्यों.......?
अनपढ़ जन, अक्षर हीन,
अनगिन जन खाद्यविहीन
नेतृत्व विहीन देख मौन हो क्यों?
ओ गंगा तुम बहती हो क्यों......?
जिस समाज को गंगा के लुप्त होने का दर्द नहीं, उसे मुख्तार जैसा प्रतिनिधि मिले तो बुरा क्या है। ये तो प्राकृतिक न्याय है।
4 comments:
उम्दा चिंतन, कभी कभी भाजपा से नजदीकी होने के बाद भी उससे धृणा करने का मन करता है। काशी में जोशी के वेद मंत्र ही गूँजेगे, मुख्तार की गोली नही।
आपके निष्कर्षों से सहमत. आपने मेरे मन की बात लिख दी है.
मां गंगा की चिंता तो न करके हम अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार ही रहे हैं। और, गजब की बात आपने लिखी प्राकृतिक न्याय हो रहा है यहां के लोगों के साथ। वैसे मेरा भी ये साफ मानना है इलाहाबाद सीट से उछलकर बनारस पहुंचे जोशी ने बीजेपी के लिए 3 सीटों का नुकसान किया है। इलाहाबाद से जोशी जीत जाते, फूलपुर से बीएसपी प्रत्याशी करवरिया जोशी के रहते बीजेपी प्रत्याशी होते और बनारस से अजय राय बीजेपी से लड़ते। खैर, जोशी के पक्ष में हर वजह से हूं। लेकिन, जोशी जैसे नेता अपराधी, भ्रष्टाचारी भले नहीं हैं जनता का निरादर बहुत करते हैं। जैसे, गंगा का निरादर जनता कर रही है।
पंकज, आपका और अनिल का पीस एक साथ पढ़ कर लगा कि गंगा पर आप दोनों मिल कर कुछ लिखने के बारे में सोचें। हजार-दो हजार शब्दों के एक पर्चे जैसी कोई चीज।
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