Saturday, June 20, 2009

शैलेंद्र सिंह, यानी एक प्यारे दुश्मन का जाना

(मेरे मित्र शैलेंद्र सिंह आईबीएन7 के सीनियर एडिटर थे और अध्यात्म, फिल्म और सीरियल आधारित कार्यक्रमों की जिम्मेदारी संभालते थे। टी.वी. की चमक-दमक को साध लेने के बावजूद शैलेंद्र मूलत: आध्यात्मिक व्यक्ति थे और ब्रह्मंड की तमाम गुत्थियों को सुलझाने की कोशिशों में उलझे रहते थे। जाहिर है, उनसे मेरी समहमतियां बरायनाम थीं लेकिन उनकी निर्मलता, इस षड़यंत्रकारी समय में मुझे बेहद लुभाती थी। 17 जून की रात 12 बजे के करीब अपनी कार से मुझे घर छोड़कर वे न जाने क्यों ग्रेटर नोएडा एक्सप्रेस वे की ओर चले गए। वहां उनकी कार एक ट्रक से टकरा गई और उनके जीवन का अंत हो गया। कुछ और जानना चाहें तो नीचे लिखा पत्र पढ़ें)



जला है जिस्म जहां दिल भी जल गया होगा

कुरेदते हो जो अब राख, जुस्तजू क्या है



शैलेंद्र प्यारे...

मुझे यकीन है कि मुमकिन होता तो अपनी जलती चिता के साथ हो रही कार्यवाहियों को देखकर तुम गालिब का यही शेर दोहराते और ठठाकर हंस पड़ते। निगम बोध घाट पर तुम्हारी चिता को दूर से तकते हुए मेरे कान में तुम्हारी वो मलंग हंसी लगातार बज रही थी जो 17 जून की आधी रात तुम्हारे और मेरे बीच बात-बात में खिल उठती थी। जीवन से भरी कव्वालियां सुनते-गाते हुए हमें ये अहसास होता भी कैसे कि मौत उसी कार की पिछली सीट पर पंजे खोलने को बेताब बैठी है जहां तुम्हारी गीता, रामायण और शिवपुराण रखे हुए थे । तब शायद दो दोस्तों की मुलाकात की गर्मी के बीच दाखिल होने की उसकी हिम्मत नहीं पड़ी। उसने तुम्हारे अकेले होने का इंतजार किया औऱ माकूल बहाना मिलते ही काम कर गई।

बहरहाल, अब हर तरफ खबर है कि मैं ही वो शख्स हूं जिसके साथ तुम्हें आखिरी बार देखा गया। मैं एक गवाह की हैसियत से तुम्हारी कहानी में हमेशा के लिए चस्पा हो गया हूं। पता नहीं, तुम इसे पसंद करते या नहीं कि तुम्हारी कहानी के आखिरी सफे पर एक गवाह की जरूरत पड़ रही है। आखिर तुमने अपनी जिंदगी के सारे मुकदमे अकेले ही लड़े थे।

पर मेरा बयान सुनने को बेकरार लोगों को मैं क्या-क्या और कैसे बताऊं। कैसे बताऊं कि रात साढ़े ग्यारह बजे तक तुम मुझमें इंतजार की चिढ़ भरते हुए अपने शेरों और कविताओं को गूंथकर एक प्रेमपत्र लिख रहे थे। खुश थे कि कलम चलती जा रही है। मुंबई के कविमित्र बोधिसत्व से बीती रात ही तुम्हारी लंबी बात हुई थी जिसमें उन्होंने कुछ लिखने का इसरार किया था और तुम उसे तुरंत पूरा कर डालना चाहते थे। पहला ड्राफ्ट हो भी गया था, जिसे तुमने कंप्यूटर के ड्राफ्ट में सेव कर लिया था। इरादा था कि दूसरे दिन मुझे पढ़ाओगे और जरूरी हुआ तो कुछ तरमीम करके बोधिसत्व को भेज दिया जाएगा। मुंबई की फिल्मी दुनिया को अपढ़ों का संसार बताते हुए हमने साथ ही डींग मारी थी कि "गुरु, सही जगह पहुंच जाएं तो बाजा बजा दें।"

लेकिन अफसोस अब वो प्रेमपत्र कोई नहीं पढ़ा पाएगा। पता नहीं, हम ऐसे रिश्ते में कैसे बंध गए थे कि एक दूसरे को अपना लिखा दिखाने और सलाह पर कान भी देने लगे थे। वरना न तुम कम ऐंठू थे और न मैं। तुमसे संवाद तो तब से था जब हम स्टार न्यूज में थे। तुम मुंबई दफ्तर में और मैं लखनऊ में। याद है, 'हंस' में छपी तुम्हारी गजलों को लेकर जब मैंने तुम्हें बधाई दी थी तो तुमने तड़प कर कहा था कि मुंबई में 'हंस' नहीं मिलता। फिर मैंने उस पन्ने को जब फैक्स किया तो तुमने बड़े प्यार से शुक्रिया कहा था। पर दिल्ली आकर जब आईबीएन7 में तुमसे मुलाकात हुई तो बड़ा निराश हुआ था। ऐसा लगा कि तुम मुझे पहचानते ही नहीं। हाथ में सिगरेट लेकर बगल से ऐसे गुजर जाते थे जैसे मेरा अस्तित्व ही न हो। अपने जेहन में तुम्हारे नाम के आगे मैंने 'घमंडी' दर्ज कर लिया था। लेकिन जल्दी ही पता चल गया कि कई बार दूसरे ही नहीं तुम खुद भी वहां नहीं होते, जहां से तुम्हें गुजरते देखा जाता था।

फिर तो संवाद बढ़ाने की मेरी पहल के साथ ही सारी दीवारें भरभरा के गिर पड़ीं। हम वाकई दोस्त बन गए। ऐसे दोस्त जिनमें कुछ भी समान नहीं था। तुम इस दुनिया से ज्यादा 'उस' दुनिया की बातें करते थे जबकि मैं इस दुनिया को बेहतर बनाने के उपक्रमों में रुचि लेता हूं। तुम दुनिया को ईश्वर की देन बताते थे और मैं ईश्वर को मनुष्य का सबसे दिलचस्प आविष्कार। तुम क्रियायोग और कुंडलिनी जागरण के तमाम तिलिस्म में विचरने वाले जीव थे और मैं स्वास्थ्य रक्षा के आदिम ज्ञान को रहस्यों में ढकेलने के लिए तुम जैसों को जी भर कोसता रहता था। साझा बस इतना ही था कि मानुष की जाति को हम दोनों ही पानी का बुलबुला मानते थे और लाखों साल के मानव सभ्यता के इतिहास में अपने जीवन को औकात से ज्यादा महत्व देने को मूर्खता। हम मौका पाते ही एक-दूसरे के पास पहुंच जाते थे क्योंकि आग के लिए पत्थरों के बीच रगड़ जरूरी होती है और हम अपने अंदर की आग को जलाए रखने के लिए टकराते रहते थे।

ऐसा नहीं था कि तुम दुनियादार नहीं थे, लेकिन तुम कभी ये भूलने नहीं देते थे कि ये दुनिया फानी है। इस लिहाज से न्यूज चैनलों की चीखपुकार के अजब संसार में तुम्हारी उपस्थिति बेहद मौलिक थी। तुम्हारी संजीदगी और बेचैनी की वजह से वे लोग जरूर तुम्हे अर्धपागल समझते थे जिन्हें खुद के पागल न होने का पक्का यकीन है। चूंकि ऐसा यकीन मुझे नहीं है इसलिए मैं तुम्हारी ईमानदारी पर कभी शक नहीं कर सका। तुम जो कहते थे, उस पर तुम्हें पूरा यकीन था। तुम्हारी भावुकता हृदय की गहराइयों से पैदा हुई थी। इस लिहाज से तुम वाकई मेरे लिए एक उपलब्धि थे। 12 साल की नौकरी में पहली बार कोई मिला था जिसने मन के कोने में दबी दार्शनिक भूख को इस कदर जगाया। जिसकी निकटता से कलम खुद ब खुद मचल उठी और चेतना के सूखते जा रहे दरख्त को पानी मिला।

वाकई, तुमसे झगड़ना एक नशे की तरह था जिसके बिना न तुम्हें चैन पड़ता था न मुझे। हालांकि मैं कभी आपे से बाहर नहीं हुआ लेकिन फिर भी न जाने क्यों तुमने मुझे 'दुर्वासा' का नाम दे दिया था। बदले में मैं तुम्हें 'परासर' कहने लगा। इरादा 'सत्यवती प्रसंग' की याद दिलाकर तुम्हारे छैला बने रहने की कोशिशों पर रस लेना था। इसका मजा लेने में तुम पीछे रहे भी नहीं। हालांकि उन बहसों में मैं तुमसे कभी जीत नहीं पाया। आखिर मैं इसका क्या जवाब देता कि मेरी सारी समस्या मेरा दिमाग है। तुम्हारी 'माइंड से नो माइंड' वाली बात मेरे लिए एक विकट बकवास थी लेकिन इस पर तुम्हारी आस्था अभिभूत करती थी। फिर जब तुम ये कहते थे कि 'मैं' 'मैं' कहां और 'तुम' 'तुम' कहां कि बहस की जाए, तो मेरा माथा घूम जाता था। मैं इसके सिवा क्या कहता कि सदियों से ऐसी बातें करके विद्वतजन आम लोगों को मूर्ख बनाते आए हैं। तुम जोर से हंस पड़ते थे। कुछ इस अंदाज में कि 'देखा बच्चू, घुमा दिया न।'

लेकिन आखिरकार हफ्ते भर पहले तुम्हें हराने का सुख मुझे मिल ही गया। 'ये इश्क नहीं आसां, बस इतना समझ लीजै, इक आग का दरिया है, और डूब के जाना है' को तुम गालिब का शेर बता बैठे थे जबकि ये जिगर मुरादाबादी का निकला, जिन पर मेरा दांव था। वैसे तुम इस हार से दुखी नहीं थे क्योंकि मेरी जीत के जश्न में तुम्हारी शिरकत भी तय थी।

हां, ये सच है कि उस दिन आधी रात मुझे घर छोड़ते जाते वक्त तुम्हारा अजब ही रूप मेरे सामने था। तुम दिल का एक-एक रेशा उधेड़ रहे थे। तुम हंस रहे थे, गा रहे थे और कभी-कभी उदास भी हो रहे थे। तुम चाहते थे कि मैं देर तक तुम्हारे साथ रहूं। अब लगता है कि काश तुम्हारी बात मान लेता तो शायद अनहोनी टल जाती। पर हमारे जीवन में न जाने ऐसे कितने 'काश' आते हैं जब हाथ मलने के सिवा कुछ नहीं बचता।

मुझे घर छोड़कर तुमने जिस तरह हंसते हुए विदा ली थी, वो चेहरा मेरे सामने अभी भी घूम रहा है। बुरा न मानना मित्र, मैंने तुम्हारा मरा मुंह नहीं देखा। न अस्पताल में, न पोस्टमार्टम हाउस में और न निगमबोध घाट में। न, मैं नहीं चाहता कि मेरी यादों में मुस्कराते चेहरे की जगह कोई क्षत-विक्षत लाश तुम्हारे नाम पर दर्ज हो जाए।

मुझे लगता है कि अगर मृत्युपार का जीवन वैसा ही है जैसी तस्वीर पुराणों में है, तो तुम यकीनन स्वर्ग में रहोगे, और वक्त आया तो मेरे लिए भी एक बर्थ का इंतजाम जरूर कर दोगे। उस मोटे यमराज को अपनी तरह स्लिम बनाने का लालच देकर स्वर्ग का ऑफीसियल योगगुरु बनने में तुम्हें देर नहीं लगेगी। वैसे, मुझे वाकई इंतजार है कि तुम पारलौकिक जीवन का कोई सबूत मुझ तक पहुंचाओ। इस दार्शनिक मुठभेड़ में तुम अब भी चाहो तो मुझे हरा सकते हो।

वरना मेरे लिए तुम्हारे जैसे दोस्त कभी नहीं मरते। वे हमारी स्मृतिपुंज का हिस्सा बनकर हमारे वजूद में शामिल हो जाते हैं और भविष्य की यात्रा में गिरने-बहकने की तमाम संभावनाओं के खिलाफ सचेत करते रहते हैं।

तुम इस भूमिका में हमेशा मेरे साथ रहोगे...हमेशा। अलविदा शैलेंद्र...अलविदा!

तुम्हारा

दुर्वासा...

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(शैलेन्द्र सिंह का फ़ोटो आईबीएन खबर डॉट कॉम से साभार)

12 comments:

Ek ziddi dhun said...

`laazim tha ki dekho mera rasta koee din aur
tanha gaye kyoN ? ab raho tanha koee din aur`

Pratibha Katiyar said...

ये तो नहीं कि गम नहीं
हां मेरी आंख नम नहीं...

शैलेन्द्र जी को श्रृद्धांजलि!
पंकज जी, हर लफ्ज में आपका शैलेन्द्र जी के प्रति प्यार और उनके जाने का दर्द दर्ज है. वो अंतिम हंसी...

Ashok Pande said...

बहुत ही मार्मिक.

दिवंगत को श्रद्धांजलि!

Unknown said...

दस साल पहले शैलेंद्र के लक्ष्मीनगर (दिल्ली)के मकान में दो महीने रहना हुआ था। उसका परिवार गांव गया हुआ था।
पत्रकारिता में उसकी बहुत उपेक्षा हुई और समाज में समझा नहीं गया। बहुत प्यारा आदमी था।

बोधिसत्व said...

क्यां कहूँ....मैं तो शैलेंद्र के पत्र का अब भी इंतजार कर रहा हूँ.....जानता हूँ मेल करने वाला चला गया है, लेकिन मन नहीं मानता .....इलाहाबाद छोड़ने के बाद वे अकेले ऐसे मित्र थे जिनसे बात करने का मन करता था....जी हल्का होता था...लेकिन उनका जाना सहन नही हो रहा....

कुमार अम्‍बुज said...

यह प्रसंग बेहद दुखद है।
अविस्‍मरणीय पीड़ा के‍ किसी अछोर आकाश की तरह।

अनूप शुक्ल said...

मार्मिक संस्मरण। शैलेंन्द्र को मेरी श्रद्धांजलि!

ALOK PURANIK said...

शैलेंद्रजी को श्रद्धांजलि।
टीवी में काम करने वाले कई मित्रों का जानता हूं, विकट तनावों में है। आर्ट आफ शोइंग में आर्ट आफ लिविंग को भूल रहे हैं।

पुरुषोत्तम कुमार said...

शैलेंद्रजी को श्रद्धांजलि।

Anpdh said...

comrad chaloo kisi se to haare. sailendra ki aatma ko iswar shanti de.

reporting is my first life said...

sir
mai aap ko kabhi bhi nahi bhol sakti realy i miss u so much as a intern mainai aap kai saath one month hi kaam kiya hai par mujai aap se bahut kuch shikhnai ko mila jab maine aap kai barai mai suona tho mujai bilkul belive nahi hoa
is baat ko conferm karnai kai liyai mainai bahut logo ko call kiya dil belive nahi kar raha tha ki aap ab humlogo kai saath nahi ho
jab bhi aap kai message ko padhti ho jise mai apne likh tha ki shipra hamesh koshish karti rahna keep it up nirash kabhi math hona yai padhtai hi aap ka hasta hoa face samnai aajata hai
we miss u alot
aap hamesha hum sab kai saath rahaigai
from..........
shipra tripathi

Mayank singh said...

मेरा सरोकार शैलेंद्र सर से 2007 के मई महीने में हुआ। उस दौरान मैं इंटर्नशिप कर रहा था। वैसे मैं कभी भी उनके साथ सीधे तौर पर नही जूड़ा पर मेरा उनके साथ एकदम घरेलू संबंध हो गया था। शायद पंडित जी या फिर हीरो ये दो तकिया कलाम ते उनके जिनसे वो मुझे संबोधिल करते थे। एक बार की बता याद आती है। सिगरेट पीते हुए एक बार उन्होंने मुझे पकड़ लिया था। डांटते हुए कहा बच्चे हो बच्चों की तरह रहो वरना बहुत मार खाओगे। और धौंस देते हुए कहां कि प्रबल से पिटवा दूंगा(हम लोगों में अकसर बात होती थी प्रबल जी के विशालकाय शरीर को लेकर, वैसे मैं भई कम विशालकाय नहीं हू)