लखनऊ के बड़े शायरों में शुमार था जनाब मोहसिन काकोरवी (१८२६-१९०५) का. इन्होंने नातिया कलाम लिखने में महारत हासिल की थी. पैग़म्बर हुसैन की शान में लिखी जाने वाली एक ख़ास काव्य-विधा होती है नात. मोहसिन साहब की एक नात बहुत विख्यात है: 'सिम्त-ए-काशी से चला जानिब-ए-मथुरा बादल'. मुझे बहुत बचपन में एक बेहद सुरीली आवाज़ में इसे सुन चुकने की स्प्ष्ट स्मृति है. गायक का नाम वगैरह कुछ याद नहीं. काफ़ी तलाशने के बावजूद भी वह आवाज़ अब तक नहीं मिली. ख़ैर!
गंगा-जमुनी साझा विरासत की जो बातें हम अक्सर किया करते हैं, उस खत्म हो रही परम्परा की अनूठी मिसाल है यह नात. पहले स्टैंज़ा पर गौर फ़रमाएं:
सिम्त-ए-काशी से चला जानिब-ए-मथुरा बादल
तैरता है कभी गंगा कभी जमुना बादल
नातिया कलाम में कहीं कहीं कृष्ण का भी ज़िक्र सुनने को मिलता है. देखिये इसी नात का अगला हिस्सा:
खूब छाया है सरे गोकुल-ओ-मथुरा बादल
रंग में आज कन्हैया के है डूबा बादल
सक़लैन नक़वी से सुनिये मोहसिन काकोरवी की नात 'सिम्ते-ए-काशी से'
(वीडियो साभार यूट्यूब)
2 comments:
उस सुरीली आवाज को हम भी तलाशेंगे यही सब चीजें तो भारत को अखंड रखे हुए हैं
मैने सुना है कि नात में सिर्फ हजरत साहब का ज़िक्र होता है अगर कृश्न भगवान का ज़िक्र है तो वह नात कैसे हुई कृपया शंका समाधान करें
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