Saturday, June 6, 2009

हमारी किस्मत में सिर्फ विदूषक हैं!

पं.नेहरू के बाद पहली बार कोई प्रधानमंत्री पांच साल पूरा करने के बाद दोबारा गद्दी पर बैठा है। जाहिर है, कांग्रेस को जश्न मनाने का पूरा हक है। लेकिन सफलता की तुलना में जश्न का गुब्बारा कई गुना बड़ा है। बाजार जिस तरह इस गुब्बारे में हवा भरने में जुटा है, उससे इसके फूटने का खतरा साफ नजर आ रहा है। ऐसा लग रहा है कि जब सेंसेक्स डूबा था तो मनमोहन सिंह नहीं, कोई और प्रधानमंत्री था। गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई, मंदी, आतंकवाद, किसानों की आत्महत्या आदि ऐसे मुद्दे थे, जिन पर किसी भी सरकार की बलि चढ़ सकती थी । लेकिन मनमोहन की गद्दी बरकरार रही तो इसलिए कि जो विकल्प देने वाले नायक होने का दावा कर रहे थे, वे जनता की नजर में महज विदूषक थे। ये विकल्पहीनता लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत है।

दरअसल, गैरकांग्रेसवाद के सारे पुरोधा उन्हीं बीमारियों के शिकार हो गए जिनके खिलाफ कभी उन्होंने जनता के बीच अलख जगाने की कोशिश की थी। कांग्रेस पर लोकतंत्र से खिलवाड़ करने, वंशवाद और भ्रष्टाचार जैसे आरोप लगाकर जिन्होंने राजनीति की सीढि़यां चढ़ीं वे शिखर पर पहुंचते ही उसी शक्ल में ढल गए जो कांग्रेस की पहचान थी। देश की जितने भी क्षेत्रीय जनाधार वाले दल हैं, वे किसी न किसी नेता की जागीर बन चुके हैं। न कोई नीति न कोई विचार, जो नेता जी कहें वही स्वीकार। उनके बेटा-बेटी को इस तरह उत्तराधिकारी बतौर पेश किया जाता है जैसे किसी राजवंश की स्थापना हुई हो। जो अविवाहित हैं उन्होंने भी वसीयत कर दी है कि उनके बाद कौन गद्दी संभालेगा। इतना ही नहीं, भ्रष्टाचार के मामले में जिस तरह उन्होंने रिकार्ड बनाए, उसके सामने कांग्रेसी दौर के किस्से कहीं नहीं ठहरते। शायद ही कोई होगा जो आय से ज्यादा संपत्ति के मामले में फंसा न हो।

उधर, क्षेत्रीय दलों के नकार में दोध्रुवीय राजनीति का सपना देख रही बीजपी को भी विकल्प कैसे माना जाता। कम से कम आर्थिक मोर्चे पर कांग्रेस से अलग दिखने के लिए उसके पास कुछ भी नहीं है। स्वेदेशी का विचार तो तभी दफ्ना दिया गया था जब उसे केंद्र में सरकार चलाने का मौका मिला। परमाणु करार मुद्दे का विरोध बाद में कैसे समर्थन में बदल गया, कोई नहीं जानता। कांग्रेस के वंशवाद का विरोध करने वाली पार्टी के तमाम नेताओं के बेटा-बेटी, बतौर उत्तराधिकारी पेश किए गए, पर कोई आवाज नहीं उठी। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर भी जगहंसाई कम नहीं हुई। चाहे तहलका कांड हो, या रिश्वत लेकर संसद में सवाल पूछने का मसला, बीजेपी नेता और सांसद हमेशा आगे-आगे नजर आए।

बीजेपी इस मामले में जरूर कांग्रेस से अलग है कि वो अल्पसंख्यकों के नाम पर घड़ियाली आंसू नहीं बहाती। बल्कि उलटे-सीधे तथ्यों के आधार पर बहुसंख्यकों को डराने के लिए उनका इस्तेमाल करती है। लेकिन उसके उन्मादी तेवर देश के मिजाज से मेल नहीं खाते। मोदी या वरुण गांधी के भाषण पर ताली चाहे जितनी बजी हो, लालकिले से ऐसी भाषा सुनने के लिए देश तैयार नहीं। वैसे भी, उन्माद की सबसे बड़ी पहचान यही है कि वो स्थायी नहीं रहता। इसलिए उन्माद का झाग बैठते ही वोटों का सूखा पड़ जाता है।

दूसरी तरफ तीसरे मोर्चे के नाम पर अवसरवादी नेताओं का जमघट तैयार करने वाले वामपंथियों ने भी विचारधारा के नाम पर गजब प्रहसन रचा। जिन नीतियों को लेकर मनमोहन सरकार को कोसते रहे, पश्चिम बंगाल में उन्हीं को लागू करने की कोशिश करते रहे। सिंगूर और नंदीग्राम में उनका जैसा बर्बर चेहरा सामने आया, उसने किसान-मजदूर को लेकर लगाए जाने वाले उनके तमाम नारों को खोखला साबित कर दिया। आखिर जनता ये दोमुंहापन कैसे बर्दाश्त करती। वामपंथियों के शिखर पर भ्रष्टाचार के छींटे चाहे न पड़े हों, कैडर के भ्रष्टाचार की कहानी गांव-गांव सुनाई जा रही थी। हद तो ये हो गई कि कांग्रेसी संस्कृति में पली-बढ़ी ममता कहीं ज्यादा वामपंथी नजर आ रही थीं। ये संयोग नहीं कि महाश्वेता देवी जैसी मशहूर लेखिका ही नहीं वामपंथी छवि के बुद्धिजीवियों, लेखकों, संस्कृतिकर्मियों की बड़ी तादाद ममता के लिए नारे लगाने निकल पड़ी।

ऐसे में, सोनिया-राहुल की जोड़ी लोगों को स्वाभाविक ही बेहतर नजर आई। मनमोहन सिंह की सादगी और ईमानदारी ने भी प्रभावित किया होगा। आम भावना है कि कांग्रेस का शिखर भ्रष्टाचार से मुक्त है। विदेशी मूल को लेकर निशाने पर रहीं सोनिया ने नैतिकता की ऐसी बड़ी रेखा खींची कि बाकी खुद ब खुद छोटे नजर आए। 2004 में जिन्होंने प्रधानमंत्री पद के त्याग को उनकी मजबूरी बताया था, वे भी नहीं कह सकते कि 2009 में राहुल को प्रधानमंत्री न बनाना भी किसी दबाव का नतीजा है। मनमोहन सिंह को दोबारा प्रधानमंत्री बनाकर इस परिवार ने खुद को सत्तालोलुप राजनीतिज्ञों की पांत से अलग दिखा दिया।
लेकिन क्या सचमुच कांग्रेस के विकल्प की जरूरत नहीं है। क्या वे मुद्दे वाकई बेमानी हो गए जिनकी वजह से कभी गैरकांग्रेसवाद का जन्म हुआ था। खासतौर पर किसान, मजदूर, पिछड़ों, दलितों, आदिवासियों या क्षेत्रीय अस्मिताओं की बात करने वालों की बात सुनने को क्या देश सचमुच तैयार नहीं है। आंकड़े ऐसा बिलकुल नहीं कहते। कांग्रेस को बमुश्किल 29 फीसदी मतदाताओं ने वोट दिया है। यानी 71 फीसदी जनता ने उसकी नीतियों को नकारा है। कांग्रेस को बहुमत से 66 सीटें कम मिलीं और यूपीए भी निर्णायक बहुमत नहीं पा सका। जिस उत्तर प्रदेश में मायावती और मुलायम को पिटा हुआ कहा जा रहा है वहां बीएसपी को 27.42 फीसदी और समाजवादी पार्टी को 23.26 फीसदी वोट हासिल हुए हैं। सारे राहुल फैक्टर के बावजूद यूपी में कांग्रेस को महज 18.25 फीसदी लोगों का समर्थन हासिल हुआ।

इन आंकड़ों से साफ है कि देश विकल्प की तलाश में है। आखिर 19 साल पहले मनमोहन सिंह ने उदारीकरण का जो सिलसिला शुरू किया था, उससे अमीरों की अमीरी चाहे बढ़ी हो, गरीबी कम नहीं हुई। 77 फीसदी से ज्यादा लोग 20 रुपये रोज कमा पाते हैं, ये आंकड़ा खुद उनकी सरकार की कमेटी का है। खतरा ये है कि 300 करोड़पतियों वाली संसद में गरीबों, दलितों, आदिवासियों के मुद्दों को दरकिनार न कर दिया जाए। बाजारवादी अर्थव्यवस्था के दिवालिया हो जाने के बावजूद जिस तरह से उसी राह पर तेजी से चलने का जोश दिखाया जा रहा है, उससे आने वाले दिनों में मुश्किलों का बढ़ना तय है। पर भारतीय जनता का दुर्भाग्य है कि जब किसी मौलिक विकल्प की सबसे ज्यादा जरूरत है तो उसके पास नायक नहीं, महज विदूषक रह गए हैं।

5 comments:

pallav said...

badhiya tippni.

Ashok Pande said...

... भारतीय जनता का दुर्भाग्य है कि जब किसी मौलिक विकल्प की सबसे ज्यादा जरूरत है तो उसके पास नायक नहीं, महज विदूषक रह गए हैं।

आपसे पूरी सहमति पंकज भाई! उम्दा आलेख.

मुनीश ( munish ) said...

Come on it does not behove a gentleman to use a defeatist expression like 'kismat' or 'bhagya'.
If we compare Indian leadership collectively to that of West,well there is a marked difference. Only a few know here that Russian Prez Putin is a black belt holder and a practising Judoka. He released a video as an instructor in the martial art last year. Look at the way Obama walks and speaks or the way Sarkozy handles a supermodel wife alongwith the affairs of state.
Still ,however,it is the choice of public that reigns supreme here. It is the dance of democracy and definitely not a masquerade . Those who claimed to be substitute, they talked of banishing computer and English so here is the verdict! I think India has got as good a govt. as it deserved. Forget not the percentage of voting among educated classes. So it is definitely not an occasion to grieve and indulge in 'lamentism'.

Anil Pusadkar said...

सहमत हूं आपसे।

अजित वडनेरकर said...

अरे वाह...इस बेहतरीन आलेख पर देर से नज़र पड़ी। सही आकलन है पंकज भाई...