Monday, July 6, 2009

मैं भी गे हुआ, तू भी गे हुआ !

आज से मैं गे हुआ. ये घोषणा दिल्ली हाईकोर्ट के क्रांतिकारी फ़ैसले के बाद की है. क्योंकि अगर तू गे है तो प्रोग्रेसिव है. अन्यथा नहीं. अगर तू गे है तो सैंसिटिव है. अन्यथा नहीं. अगर तू गे है तो तेरा जनतंत्र पर यक़ीन है, वगर्ना तू फ़ासीवादी है.

मै न इंसैंसिटिव हूँ. न मैं जनतंत्र पर शक करता हूँ और न ही मैं फ़ासीवादी हूँ. अब मेरे पास एक ही चारा बचा है कि मैं ख़ुद को गे डिक्लेअर कर दूँ. कैसा है? इसमें बुराई भी क्या है?

अब तू अगर गे है तो ऐश कर. अब तक लास एंजेलस या सिनसिनाट्टी में रहने वाला तेरा पार्टनर ही ऐश करता था. अब तू भी कर. दिल्ली और बंबई में रहकर भी ऐश कर. मैं अब कुछ ही दिन में दिल्ली और आसपास के गाँवो-क़स्बों में गे परेड का आयोजन करना चाहूँगा. मैं नहीं करूँगा तो कोई और करेगा. तू भी आएगा ना? ये अपनी नई लिबरेशन है आफ़्टर आल.

आख़िर तू ही सपने देखता था ना कि हिंदुस्तान एक दिन सुपर पावर होएगा? तूने ही तो कहा था कि यार सरकार का काम कोई ब्रेड बनाना या स्टील बनाना नहीं है. कितनी सुपर-डुपर बात थी. आस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड और यहाँ तक कि जापान को भी वेस्टर्न कंट्री मानते हैं कि नहीं. अगर इंडिया वेस्टर्न हो रहा है तो इतनी हायतौबा क्यों? अशोक राव कवि कितना इंक़लाबी था कि पिछली सदी में ही खुल्लेआम कहता था कि मुझे ट्रक़ ड्राइवर कित्ते पसांद हैं. (अरे वही अशोक राव कवि जिसने गाँधी को सनकी बनिया कहा था... हाहाहाहाहाह !!!)

दिल्ली से पुलिस हेडर्क्वार्टर्स के बाहर 1992 का वो प्रदर्शन याद है जिसमें सुंदर मुखड़ों वाली सुकन्याएँ घोषणा कर रही थीं कि उन्हें लड़कों से नफ़रत हैं और लड़कियों से प्यार? कित्ते डरा करते थे हम लोग यार.... डेमाक्रेसी में रहने के बावजूद तू अपने पार्टनर को चुम्मा नहीं दे सकता था. उसकी बाँह में बाँह डालकर घूम नहीं सकता था. साउण्ड्स लाइक सो, सो, लास्ट सेंचुरी.

नाउ तो इंडिया हैज़ चेन्ज़्ड ए लाट, यार !! तेरी बात भी सुनी जाएगी. दिल्ली हाईकोर्ट इज़ रियली, रियययली, रिययययली रिवाल्यूशनरी.

(उम्मीद है कि एक बहस छिड़ेगी. अगर नहीं छिड़ी तो भी क्या. भारत तो वर्ल्ड पावर बन ही रहा है.)

13 comments:

Gyan Darpan said...

बढ़िया ! अब गे बनो या ना बनो दो जिगरी दोस्तों को लोग गे ही समझेंगे |

अभिषेक मिश्रा said...

rajesh joshi ji,
aapki bat samajh nahin aai aisa lagta hai ki aap samlaingik logon par apni frustration nikal rahen hain. samlaingikon ne yah kabhi nahin kaha ki agar koi samlaingik nahin hai to vah janvaadi ya krantikari nahin hai. samlaingikon ki pida to bas itni hai ki unko bhi ek aam nagrik ki terah jeene ka hak hai.
aur jo sexual minority ke hakon ko recognize nahin karta vah janvaadi nahi hai. jaise koi yadi bharat mrn dharmik alpsankhyakon jaise muslimon ke nagrik adhikaron ko nahinmanta to vah janvadi nahin hai.samlaingikon ko aam logonki terah jeene ka hak hai yah manne ke liye samlaingik hona jaruri nahin hai. jaise dalit utpeedan ka virodh karne ke liye dalit hona jaruri nahin hai.

मुनीश ( munish ) said...

I don't find any frustration in the article , Rajesh Joshi is just scoffing at a set of people . He is at his satirical best .

अभिषेक मिश्रा said...

और दूसरी बात, आपने जो समलैंगिकों को एक खास राजनैतिक प्रवित्ति से जोड़ा है. आपका कहना चाहते हैं की समलैंगिक कारपोरेट भुमंदालिकरण और निजीकरण के समर्थक है या सुपरपावर बनने के पूंजीवादी प्रचार को ठीक मानते हैं. यह एकदम गलत है.यह सही है समलैंगिक अधिकारों के लिए आन्दोलन पहले पश्चिमी देशों में हुए और फिर भारत में आयें हैं. लेकिन ऐसा तो जनवादी लोकतंत्र के बारे में भी सच है. जनवाद के लिए संघर्ष भी पहले पश्चिम में ही हुए. जनवादी क्रांतिया पश्चिम में हुई. संसदीय लोकतंत्र और वयस्क मताधिकार की संकल्पना भी पहले पश्चिम में आई. साम्यवादी और सामाजवादी आन्दोलन भी पश्चिमसे शुरू हुए.आधुनिक नारीवादी आन्दोलन भी पश्चिम से शुरू हुए. यहाँ इतना लिखने का मतलब यह नहीं हैं की पश्चिमकी हर चीज सही है. मैं बस इतना कहना चाहता हूँ की कोई आन्दोलन पहले पश्चिममें शुरू हुआ इससे ही वह प्रतिक्रियावादी या पश्चिमपरस्त नहीं हो जाता

Rangnath Singh said...

समलैंगिकता के कारण और प्रभाव से अनजान हूँ। इसलिए उसका विरोध नही करता। संस्कारगत मान्यताओं के चलते आँख मूँद कर उसे स्वीकार भी नहीं करता। निराला ने बिल्ले सुर बकरिहा लिखा है। गाँव-गिराँव में लौण्डेबाजी के किस्से आम हैं। इसे गैर-कानूनी बनाना तो सरासर दमनकारी कानूनी कृत्य था। असामान्य के प्र्रति असहज होना एक बात है और उसे दण्डनीय अपराध बताना दूसरी बात है।
राजेश जोशी ने जो लिखा है वह उपहासजनक है। उनका तथाकथित व्यंग्य समलैंगिकों और उन्हें मान्यता देने वालों दोनों को एक साथ अपमानित करता है। कई बार ऐसा होता है कि लोग उन बातों को जिनके लिए तीव्र विरोध की संभावना होती है, कहने के बाद यह जोड़ना नहीं भूलते कि मैं तो मजाक कर रहा था !
हो सकता है कल को राजेश जोशी भी यही कहें कि यह तो व्यंग्य था, यार !!
व्यंग्य और चुटकुलों में फर्क होता है यह कोई कहने की बात नहीं है।

Rangnath Singh said...

राजेश जोशी ने इस विषय पर बहस की माँग की है। मैं यह नहीं समझ नहीं पाता कि हिन्दी वालों की समस्या क्या है ? ऐसा न हो कि कल कोई हिन्दी का विद्वाना यह माँग न करें कि आओ मित्रों पार्टिकल फिजिक्स पर बहस करें ! आओ मित्रों जेनेटिक थियरी पर बहस करें !

लोकतंत्र की ताकत को कमजोरी मे बदल देने वाली ऐसी आदतों से हम हिन्दी वाले कब आजाद होंगे। हम हर विषय पर बोलने की आजादी है लेकिन इस आजादी के संग कोई जिम्मदारी भी जुड़ी है कि नहीं ?
बिहैवियरलिस्ट, बायलाजिस्ट, सायकालाजिस्ट, सोसल सायकालाजिस्ट ही इस विषय पर कोई सार्थक बहस कर सकेंगे।
समलैंगिकता सामान्य है या असामान्य है इसका निर्धारण साहित्यकार अध्यापक या पत्रकार कैसे करेंगे ?
यदि हमें अपना संस्कारगत मान्यताओं के दायरों में रहकर ही बात करनी है तो बहस करने का कोई मतलब नहीं है। क्या नैतिक है क्या अनैतिक यह कहना तो किसी भी साक्षर इंसान के लिए दुविधा भरा काम होगा। संभवतः राजेश जोशी इस बात से सहमत होगें कि यौन नैतिकता भूगोल और समाज के साथ बदलने वाली चीज है। फिर इस पर वह किस एंगल से बहस करना चाहते है।
राजेश जोशी किसी भी बहस को शुरू करने से पहले यह स्पष्ट करें कि उनकी क्या मान्यताएं हैं। व्यंग्य विधा की ओट मे छिपे बिना। राजेश इस विषय पर बहस चाहते थे तो उन्हें उपहासजनक व्यंग्य लिखने के बजाय अपना स्पष्ट मत रखना चाहिए था।
अभिषेक ने जो भी लिखा है उसे मेरी पूरी सहमति है। उन्होंने ने जो लिखा है उसे ध्यान में रख कर ही राजेश जोशी को फासीवाद, प्रोग्रेसिव या पश्चिमी जैसंे शब्दों को प्रयोग करना चाहिए था।

अर्कजेश said...

यदि दिल्ली हाईकोर्ट के फ़ैसले को आप गलत समझते हैं, तो आपकी नजर में सही फ़ैसला क्या होता यह भी लिखना चाहिये था ।

गे समुदाय केवल सम्मान से जीने का हक मांग रहा है और कुछ नहीं । कोई गे किसी औरत के साथ सहज नहीं होता और यदि उसके गे पन को छुपाकर किसी महिला के साथ विवाह होता है तो केवल दो जीवन नर्क बनते हैं ।

गे समाज को स्वीक्रिति केवल समलैंगिकों के लिये ही नहीं पूरे समाज के लिये लाभदायक है ।

pankaj srivastava said...
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pankaj srivastava said...

भाई लोगों, ज्यादा परेशान न हो...

इ गे वाला मसला कौउनो पश्चिम वश्चिम से नहीं आया।
प्राचीन भारत में भी ऐसा लोग थे। यकीन नहीं आता तो खुजराहो और कोणार्क मंदिर की मिथुन मूर्तियों पर निगाह फेरिये। या वात्स्यायन का कामसूत्र पढ़ लीजिए जहां पूरा एक अध्याय समर्पित है। मालिश करने वालों को लेकर कुछ बातें भी कहीं गई हैं और इसे भी आनंद का एक तरीका बताया गया है।

यानी समाज में समलैंगिकता थी, उसका पता था, हां..मंजूरी नहीं थी। उतना बड़ा अपराध नहीं था जितना अंग्रेजों ने समझा और धारा 377 बना दी।

मनुस्मृति में समलैंगिकों को सजा देने की बात है। ऐसी स्त्रियों के सर मूड़ने और पुरुषों को कपड़े पहनकर नहाने का दंड है। ध्यान से देखें तो ये दंड तत्कालीन दंड विधान के लिहाज से काफी कम हैं।

यानी हिकारत और चेहरे पर हंसी के साथ यही जुमला चलता होगा--धत्...ससुर...

वैसे धारा 377 के बारे में एक दिलचस्प जानकारी ये है कि पति के लिए भी एक खास मुद्रा में संबंध बनाने के अलावा कोई भी दूसरा तरीका दंडनीय है। (ज्यादा दिलचस्पी हो तो कानून की किताब पढ़ लें। )

भई, मसला बस इतना है कि 21वीं सदी में किसी से हाथ मिलाते वक्त ये काहे सोचा जाए कि ये जिसके साथ सोते हैं, उसका लिंग क्या है। उनकी जिंदगी, उन्हें मुबारक। किसी की यौनरुचि में समाज या कानून काहे दखल दे। लोकतंत्र में इतना हक तो होना ही चाहिए कि बिना दूसरों की जिंदगी में दखल दिए अपनी जिंदगी जिया जाए।

इंसान की शख्सियत टांगों के बीच के घोषणापत्र से बड़ी है भइये।
और ये कहने के लिए गे होना बिलकुल जरूरी नहीं।

Unknown said...

कहीं ऐसा तो नहीं हैं कि एक बीमारी के साथ जीने की मांग की जा रही हो। इनका उत्पीडन नहीं होना चाहिये, इन्हें सम्मान मिलना चाहिये यह तो ठीक है लेकिन क्या यह पर्याप्त ? क्या इनका इलाज नहीं होना चाहिये, इनकी काउंसलिंग नहीं होनी चाहिये! अगर बहस कुछ किताबों, उदाहरणों, विद्वानों को केन्द्र में रखकर की जानी है तो बातचीत क्या सीमित दायरों में ही की जानी है, कोई स्वतंत्र रूप से चिंतन करने का अधिकार नहीं रखता, जीवन का अनुभव भी तो कोई मोल रखता होगा। क्या बात है कि एक तरफ हम दावा करते हैं कि हमें कुछ खास जानकारी नहीं है तो दूसरी तरफ निर्णायक मत भी रखते जाते हैं। एक चक्र है जंगल से समाज की ओर एवं समाज से जंगल की ओर इसे कोई नहीं रोक सकता है।

विवेक सिंह said...

शेखावत जी की बात में दम है !

vivek. said...

Chaliye ek baat to vaidhanik tarike se establish ho gayee ki 'aadmi' aur 'janwar' me ek fark ye bhi hota hai...mere khyal se janwar to aise nahi hote hain(ge).
Dekhiye ye baat naaraz hone ki nahi hai, ab agar kisi ki aazzdi ke mayne yahin ja ke ghus jate hain to apan ko bhi aisa 'kuch' bolne ki to aazadi honi hi chahiye na.
Waise mere logic pe gaur farmaiyega samajhdar ho rahe bacchon ke liye agar koi nibandh likhe to ye bhi ek 'point' to hai na!
Abhishek Bhai baat sirf itnee hi nahi hai, darasal sawal kuchh had tak to naitikta ka bhi hai, par Dineshji ki baat bhi dhyan dene layak hai.
Aisi Aazadi ki mang ke chor ka andaza hai aapko.. hammam me nange hote log agar sadak par, class me, office me, bus me, talkis me bhi natural hi rahna chahte hain to kitni achhi baat hai ki hum apne mool roop me 'jangal ki or' laut rahe hain.. waise ye bhi koi nayee baat nahi rahi, NBT par do dino se ek photo dali hai, ek office ke sare karmchari office aa kar nange ho jate hain, unka 'research' kahta hai isase unki kaam ki (kaam ki hi 'kaam' ki nahi)gati aur kshamta adhik ho gayee hai...
Kya vichar hai, aalsiyon ke is desh ke vikas ke liye ye idea bhi bahut jandaaaar ho sakta hai na!!

Anil Pusadkar said...

अफ़सोस इस देश मे गे भुखमरी और बेकारी से बड़ा माम्ला हो गया है।