कई दिनों से बड़े दुखी मन से देख रहा था यह सब...
आज रहा नही गया। यह व्यक्तिगत क्या होता है? उदय जी आपको दिवंगत कुंवर साहब के प्रति पूरा आदर रखने की आजादी है पर उसके लिए सार्वजनिक समारोह में एक हत्यारे के साथ बैठना? इन व्यक्तिगतों से लड़कर ही लेखक विचार की राह पर आगे बढ़ता है। आप आज अपने ख़िलाफ़ बोलने वालों को जातिवादी कह रहे हैं। बहुत विनम्रता से बता दूँ किजिस कालेज में आपके दिवंगत अग्रज पढाते थे वह उसी गोरखनाथ मन्दिर द्वारा संचालित होता है जिसका मठाधीश आदित्यनाथ है और इस कालेज पर एक विशेष जाति का शतप्रतिशत वर्चस्व है...उसी जाति का जिसका होना योगी बनने के लिए ज़रूरी है। आप यायावर नही हैं - हिन्दी के तमाम लेखकों से ज्यादा बेहतर स्थिति है आपकी। कृपया इसे महिमामंडित ना करें...त्रिलोचन जी और विष्णु प्रभाकर को गए बहुत दिन नही गुज़रे। आप जैसी गरीबी और वंचना "मौला" सबको दे कुंअर साहब...
आपने गौ पट्टी पर भरपूर कीचड़ उछाला तो यहाँ के एक और आदमी की याद आ गयी। गोरख पांडे नाम था उसका ...
शायद लोगों को पता नहीं कि आप वहां कह चुके हैं कि साहित्यकारों को विचार के चौखटे में क़ैद नहीं होना चाहिये और योगी ने उसी मंच से कुंवर साहब को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का प्रतीक बताया था। आपका बयान अमर उजाला में छपा है और यह बयान जिन उदय प्रकाश सिंह के नाम से छपा उन्हे हम अब तक बस उदय प्रकाश ही मानते थे। पेपर कटिंग मेरे पास है।आप सबको गरियाईये … आपको यह अधिकार है कुंवर साहब। जो परमानंद जी ने कहा वह फिर कभी…इस पाप में आपके वह इकलौते भागीदार थे। सांप्रदायिकता के विरोध के झण्डाबरदार कमला प्रसाद क्या इस घटना के बाद उन्हें सज़्ज़ाद ज़हीर के संगठन से बाहर निकालेंगे? किसी को उम्मीद नहीं…मुझे भी नहीं।
उदय जी एक खुला सच है कि आज हिन्दी का पूरा लेखन कास्मेटिक विरोध और सुविधा का लेखन है पर आप तो ख़ुद को हमेशा से पार्टी विथ ऐ डिफरेंस बताते रहे ना...
इसीलिए तो ज्यादा दुःख हुआ था...
पर अब नहीं…अब कोई भ्रम नहीं रहा।
(कब सोचा था इस ब्लाग पर पहली पोस्ट ऐसी लिखनी होगी)
13 comments:
यह इस चर्चा का सबसे महत्वपूर्ण बिंदु है. एक लेखक का व्यक्तिगत क्या होता है. उदय प्रकाश जी का कहना है की वह एक पारिवारिक कार्यक्रम था. उनसे पूछा जाना चाहिए की वहां वे 'कुंवर' नरेन्द्र प्रताप सिंह के भाई के तौर पर सम्मानित हुए थे या हिंदी के लेखक उदय प्रकाश के रूप में. निश्चित रूप से वे हिंदी के लेखक उदय प्रकाश के रूप में सम्मानित हुए थे.जैसा की अखबार की खबर बताती हैं. क्या लेखक होना एक पारिवारिक चीज होती है ?
और यदि एक बार यह मान भी ले की यह उदय प्रकाश जी का पारिवारिक कार्यक्रम था. तब तो उनकी जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है. क्या एक संवेदनशील और जागरूक व्यक्ति अपने पारिवारिक कार्यक्रम में किसी साम्प्रदायिक हत्यारे को बुला सकता है ? क्या हम अपनी प्रतिबद्धताओं के लिए परिवार में संघर्ष नहीं करते ?
मैं इस बहस को इस दृष्टिकोण से देखने का पुरजोर विरोध करता हूँ की यह उदय प्रकाश और कबाड़खाने के बीच का मामला है. या उदय प्रकाश ने जो अशोक पांडे जी के बारे में अनाप शनाप कहा है वही असली मुद्दा है. और उदय यदि अशोक से माफ़ी मांग लें तो इसको जल्दी से रफा दफा कर देना चाहिए.
वस्तुतः यह हमारे बौद्धिक जीवन में वैधता ग्रहण कर रहे पाखण्ड का मुद्दा है. यह उदय प्रकाश और परमानन्द श्रीवास्तव में अपने चरम रूप में सामने आ गया है. आदित्यनाथ के पैर छूने वाले ये वही परमानंद श्रीवास्तव हैं जो सालों तक आलोचना जैसी पत्रिका का संपादन करते रहे. ये हमारे वरिष्ठ आलोचक डोमा जी उस्ताद (जो बनता है बलबन) के नवरत्नों में शामिल हो कर इतना कृतज्ञ महसूस कर रहे थे की अपने को रोक नपाए.
यह केवल इन दो व्यक्तियों का मामला नहीं है. ये दोनों तो इस हद तक गिर गए की साम्प्रदायिक हिंसा में लिप्त उस गुंडे के चरणों में लोट गए.
लेकिन मामला इतना ही नहीं है. यह ओफिसिअल वामपंथ की राजनीति के पाखण्ड का भी मामला है. मेरा कहना है की सिंगुर नंदीग्राम और लालगढ़ के बाद जहां तापसी मल्लिक जैसी कई किशोरियों का cpm के गुंडों द्वारा सामूहिक बलात्कार किया गया हो. किसानों पर cpm वालों ने पुलिस के वर्दी में आ कर गोलियां चलाईं हो . cpm ke कार्यकर्त्ता जहां नए जमींदार बन कर किसानों मजदूरों और आदिवासियों पर जुल्म ध रहें हो. ऐसे समय में cpm जैसी छद्म कम्युनिस्ट पार्टियों के लेखक संगठनों में रहना क्या नैतिक है ?
आज लेखक को साफ़ तय करना होगा की वह लालगढ़ में किसके साथ है वह निरपेक्ष नहीं रह सकता.
बिल्कुल ठीक बात है
ना तो ये सब गोरखपुर की उस सभा में शुरु हुआ और ना ही किसी माफ़ी से समाप्त हो जायेगा।
चर्चाअ इसी पर होनी चाहिये कि वामपंथ हिंदी के लेखकों के लिये बस दुधारु गाय है या वैचारिक प्रतिबद्धता?
I have learnt one thing from this long drawn debate--- that Hindi writers are as fiercely divided on political ideology lines as are the Indian historians.Thankfully, this is not the case with Indian English writers. For me, literature is,basically, expression of human emotions; that it may voice social concerns, philosophy etc. is quite natural,but, in my opinion, it should not become propagandist.
I, therefore, have nothing to say on this debate except that I have known Ashok Pandey for over 20 years ; he used to be my student in Nainital during the mid-80's. From what I know of him, he is neither communal nor casteist. The allegation that he is a casteist is, I feel, quite unwarranted. He is a very talented young man and a gentle soul. I'm, of course, not giving him any certificate; who am I to do that anyway? I'm only saying what I truly feel. I hope that members and visitors of this blog will, at least, concede him this much.
अब इस माहौल में कबाडी बना तो स्वागत क्या खाक होता।
पर मै अशोक कुमार पाण्डेय हूं ग्वालियर से
शुक्रिया अशोक जी। इस सिलसिले में आपका कुछ कहना सबसे जरूरी था।
क्यूं भला?
पोलजी,
सबसे पहले अपना सही नाम बताइए वरना आपके कमेंट रोकने पड़ेंगे। आप किसी प्रेतबाधा के असर में खेल रहे हैं।
हटिया खुला बजाजा बंद,झाड़े रहो कलक्टरगंज
मैंने जब से वह विरोध पत्र पढ़ा है तब से ठगा महसूस कर रहा हूँ। उस विरोध पत्र में छपे नामों को देखने के बाद मेरा पूरा आत्म-विश्वास हिल गया।
निश्चय ही वह सूची उदय प्रकाश आरोप के पक्ष में जाती है।
यहाँ पोल खोल ने जो बातें कहीं है उनके जवाब आने चाहिए
अभिषेक जी
निश्चय ही आप ने अपनी टिप्पणी में कुछ पँक्तियाँ मेरे कहे की तरफ इशारा करती है।
मैंने यह कभी नहीं कहा कि योगी का मामला कबाड़खाना और उदय प्रकाश का मामला है।
उदय प्रकाश ने अपने पुनश्च में जिस तरह गाली दी वो तो कम से कम कबाड़खाना का मामला है
अगर ऐसा नहीं है और यह मामला सार्वजनिक है तो,
यही ‘भारत के सबसे शरीफ इकसठ-बासठ‘ या ज्यादे लोग एक और विरोध पत्र क्यों नहीं लिखते की उदय प्रकाश ने कबाड़खाना की अवमानना क्यों की ?
यहाँ तो उदय प्रकाश की पीठ पर चढ़ कर सांप्रदायिकता से लड़ा जा रहा है !
मुझे शतरंज की बिसात पर युद्ध अभ्यास करने का कोई खब्त नहीं है।
सांप्रदायिकता पर बात होगी तो उसके केन्द्र में उदय प्रकाश क्यों होंगे ?
जैसे कि अशोक कुमार पाण्डेय ने कहा है उसके केन्द्र में समूचा हिन्दी लेखक वर्ग होगा।
मैंने अपनी पोस्ट इसी लिए हटा दीं कि मेरे लेखों का सम्बन्ध इस फर्जी बहस से कोई संबंध नहीं था।
बाकि इस विषय पर विस्तार से अपना पक्ष रखुँगा। तब तक के लिए धैर्य रखें।
I was shocked to read all different dimension of this episode. I like Uday Prakash as a writer, and say I liked Kabaadkhaana as well, becoz of its creativity and quality of material in hindi.
I was shocked by reading Mr. Uday Prakash reply at first, and second time I came I saw /equally abusive language for him, not once but repeatedly. And now indeed his accusation of being a big design at back seems to hold some credentials indeed. But time will indeed open up what is truth. So I will not make opinion about anybody here, from so far away.
Well I can say that I am disillusioned once more and disappointed to see that many people for whom I had respect have lost tolerance altogether and I would like to say that as a reader I oppose this lynching effort even in the name of left politics or secularism.
अभिषेक जी
आप ने एक बहुत महत्वपूर्ण बात कही है।
लालगढ़ !!
मैं लालगढ़ में मारे जाने वालों के खिलाफ हूँ। केन्द्र सरकार और बंगाल की राज्य सरकार के दमनकारी नीतियों की पुरजोर विरोध करता हूँ।
साथ ही माँग करता हूँ कि इसी विरोध पत्र की तरह दूसरा विरोध पत्र तैयारी किया जाए जिस पर पहला हस्ताक्षर करने में मुझे पूरी खुशी होगी।
रंगनाथ जी / पोल खोल जी
पता नहीं आप जातिबोध से बाहर नहीं निकल पा रहे। अगर मैं पूछूं कि कुंवर साहब से कोई रिश्तेदारी है तो यह बेहद अश्लील होगा। लेकिन आप जानेबूझे बिना लगातार हर किसी के साथ यही किये जा रहे हैं। आपकी रुचि मुद्दे से ज़्यादा कौन किसको कितना जानता है इसमें है। पंकज जी या अनिल जी तो छोडिये अपने हमनाम को भी मैं बस उनके अनुवादों के लिये जानता था। आप एक अजीब से महानताबोध में जी रहे हैं जहां आपको हर कोई बस नाम- दाम कमाने के लिये लिखता नज़र आता है।
व्यक्तिगत कार्यक्रमों के इश्तेहार अखबारों में शाया नहीं होते न उनमे मंच लगाकर भाषण दिये जाते हैं। अगर यह शोकसभा होती तो किसे एतराज़ था…पर यह सम्मान सभा थी जहां उदय प्रकाश सिंह (यही नाम छपा था अखबार और आमंत्रण में) ने कहा कि अब विचार की कोई ज़रूरत नहीं और लेखक को विचार के चौखटे में नहीं बंधना चाहिये। अगर आप भी यही मानते हैं तो मुझे कुछ नहीं कहना पर मुक्तिबोध और मार्क्स की माला देखकर भ्रम तो होता है ना। चूंकि आप इस अनाम पोल्खोल के सवाल का जवाब चाहते हैं तो प्रश्न में आपको शामिल क्यों ना माना जाये।
और किसी जाति के वर्चस्व का विरोध क्या दूसरी जाति के वर्चस्व की स्थापना के लिये ही होता है? यही करना होता तो क्या बात थी गोरखपुर मे तिवारी हाता से सब परिचित है और उस दौर के साथी बतायेंगे कि हमारा उससे क्या रिश्ता रहा है।
सूची से शिकायत है आपको शायद सूचना से भी हो कि काश दब गया होता यह सब्। दूसरों के दामन पर दाग़ होने से अपना दाग़ छुप जाता है क्या? मैने अपनी पोस्ट मे वैसे भी इस ओर भरपूर इशारा किया था। और यहां हुई छिछालेदर के बाद ही उदय अब सहिष्णुता दिखा रहे हैं वरना शुरुआत जिस भाषा में हुई थी सच तो वही है।
इसे नेट की सफ़लता मानिये कि जो पत्रिका में महीनों में होता वह यहां दिनो मे हुआ और आज यह उदय जी के कारनामे के खिलाफ़ हुआ है तो कल औरों के खिलाफ़ भी होगा।
रहा सवाल नौकरी का तो भैया यहां अपने देश में कौन सी क्रांतिकारी संस्था है जहां से दाल रोटी कमाने जाया जाय? सारे प्रेस, एन जी ओ और यह ब्लागस्पेस भी अन्तत पूंजीपतियों की सम्पत्ति हैं। पर नौकरी करने और मंच शेयर करने में फ़र्क होता है। पोलखोल साहब ज़रूर उदय फ़ैन्स क्लब के होलटाईमर होंगे।
मैं काहें का बदला लूंगा उदय जी से? उनका कितना बडा फैन रहा हूं वह जानते हैं। दुख यही था कि जिस योगी के खिलाफ़ उनकी कविताओं के पोस्टर बनाये उसी से उन्होंने सम्मान ले लिया।
और खाये अघाये सब हैं। कोई झोपडी में रहकर लालटेन में नही लिखता। सब चलते हैं एसी में और रहते हैं लक्जरी फ़्लैट में तो इस क्लीशे मे अब कोई दम नहीं रहा।
हां लालगढ पर चलाईये अभियान हम साथ हैं। पर शिक्षा के मौलिक अधिकार वाले कानून पर कुछ मत कहियेगा। ममता दीदी रूठ गयीं तो?
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