Homosexual behaviour is a nearly universal phenomenon in the animal kingdom, according to a new study.
Louise Gray, Environment Correspondent
The pairing of same sex couples had previously been observed in more than 1,000 species including penguins, dolphins and primates.
However, in the latest study the authors claim the phenomenon is not only widespread but part of a necessary biological adaptation for the survival of the species.
They found that on the Hawaiian island of Oahu, almost a third of the Laysan albatross population is raised by pairs of two females because of the shortage of males. Through these 'lesbian' unions, Laysan albatross are flourishing. Their existence had been dwindling before the adaptation was noticed.
Other species form same-sex bonds for other reasons, they found. Dolphins have been known engage in same-sex interactions to facilitate group bonding while male-male pairings in locusts killed off the weaker males.
A pair of "gay" penguins recently hatched an egg at a German zoo after being given the egg that had been rejected by its biological parents by keepers.
Writing in Trends in Ecology & Evolution, Dr Nathan Bailey, an evolutionary biologist at California University, said previous studies have failed to consider the evolutionary consequences of homosexuality.
He said same homosexual behaviour was often a product of natural selection to further the survival of the species.
Dr Bailey said: "It's clear same-sex sexual behaviour extends far beyond the well-known examples that dominate both the scientific and popular literature – for example, bonobos, dolphins, penguins and fruit flies.
"Same-sex behaviours – courtship, mounting or parenting – are traits that may have been shaped by natural selection, a basic mechanism of evolution that occurs over successive generations," he said.
"But our review of studies also suggests that these same-sex behaviours might act as selective forces in and of themselves।"
(The Telegraphs, London)
14 comments:
really !?!
it is well said "reality is stranger than fiction"
i keep doubt in my mind for this type of so called research observation....
so if, any body is enough knowldgeable then plz make a comment on it....
Dear Rang,
All this 'research' has a dubious intention. Gay lobby, getting stronger every day, wants to validate its stand using this 'research'. The day is not far when being gay would be 'in thing' as being a progressive socialist was a fashion statement among the intelligentsia once. Even though there is no parallel between the two but it is only a matter of time when u will witness this happening . Since these people will not be gay by instinct they will actually become ''bi-sexuals'' and the real thing will start only then . It has started already in west . So, if good Christians say the forces of Satan are on prowl ,let us just believe them with Hanuman Chalisa on lips.
@ swapndarhi ji
u hv brought a great twist in this all debate !!
god save the GODs !!
Dear Rangnath the phrase is ....''with a prayer on lips''. I simply replaced 'prayer' with 'Hanumaanchalisa' which is very common expression in hindi and without any religious notions .
I am sure if i had said '...with Gurbani on lips' or '...with Ya Ilaahi on lips' , Ms. Swapndrshi would not have reacted like this .
Moreover, it is none of your business to comment on a matter of faith Ms. Swapndarshi . Having a green card does not give u a green signal to utter non-sense without any context. Look at the subject of post and then evaluate ur obnoxious comment.
थोड़ा लेट हो गया हूँ लेकिन कुछ देशी बातें कहना चाहता हूँ, पहले लिख लूँ। आशा है आप सब लौटकर पढेंगें।
In total agreement with Munish.
Swapndarshi's reaction reflects that she probably has some old bone to pick with Munish. A response of this irrelevant and utterly out of context nature would not otherwise have come.
OBNOXIOUS is the word.
I do not know Mr. Munish and my comment relates to my interest in symbolism. Any I am deleting my comment.
I appreciate this gesture of yours Swapn ji as it is in tune with essential feature of democracy --Tolerance and since u r living in world's loveliest democracy America so who can understand it better than u?
न तो सारी टिप्पणी ही पढ पाया न सारी पोस्ट फिर भी..
अपन ने न तो कोई शोध किया है और न ही पढ़ा है। काफी समय तक अपना काम ढोर चराने का रहा है, (भाँति-भाँति के पशु) कबूतर, चिडिया, मोर, तीतर, बटेर आदि के साथ भी खूब रहे हैं। बहुत कुछ आँखों से देखा है,। संयोग से नामचीन वामपंथियों का साथ-स्नेह भी मिला, तो एक-आध समलैंकिक से भी छोटी-मोटी मुठभेड़ हो चुकी है। तो इस लिहाज से मैं कह सकता हूँ कि हमारे प्रगतिशील अभी बहुत पिछड़े हुए हैं जो सिर्फ समलैगिता पर अटके हुए हैं। अरे भइयो, पशु-पक्षियों में तो मां-बहन, बेटा-बेटी, भूआ, ताई, दादी, बाप-दादा को कौनउ बंधन ना हुआ करै, अउर आदि मानव में भी ना रह्यो होगो। हम का बात के प्रगतिशील हैं जो अभी ई मांग भी ना उठी, समलैंगिकन तो अब वैश्यावृत्ति को लाइसैंस जारी करवानो है, बाकी बात तो हो चुकी भइयो और सब सहमत हैं। लेकिन एक बात हम मजौ खैचबा के बारे में भी कहन चावैं। ई सारे ढोर-पक्षी बेचारे, समलैंगिक मुद्रा तो बना लेवैं, अठखेलियाँ भी खूब करैं, पर मजो ना खींच पावैं, ना ही कभू या घुण-बीदण में रहवैं। मजो बस आदमी ही खींच पावै, समलैंगक से, तकिये से, रजाई से, अपने आप से, धरती से, सपना मैं, सौच-सौच कै हर तरह से मजो खींच सकै, या पशु कोउ पै डिपन्ड ना है मजे की खातिर। पशु बिचारा कौशिश करें कि जानै खेलैं पर मजो तो जहां खींच सकैं वहाँ ही खींच पावैं, उनको रामजी नै समलैंगिक सुख ना लिखो। फिर कौनउ लुच्चागिरी ना है जो आदिकाल सै ना होती आई। पर पहलै इनकै पास वोट की ताकत ना ही, अब है गई है। ई मजा खींचबा की बात निराली है, आदमी अपने आप सूं भी मजो खींचबो शुरू करै तो खींचतो ही चलो जावै पर डाक्टर रोक दे कि या तो हानिकारक मजो है। आदमी मजा की तलाश में विपरीत लिंगी, समलिंगी, पशु(बकरी आदि), अपने हाथ, रजाई से परे अपनी मृगतृष्णा में मुँह, नाक, पेट, पीठ, कान आदि तक दौडो जावै पर मिलै का है? जैसो चावै, सोचै वैसो हो ना पावै, फिर भी बार-बार जावै उतकूँ। एक आँखिन देखी बात और बतावैं, बड़ी प्राकृतिक बात है, ई जो सांड हुउ न वा सांड भी नाही, गाय भी नांही बेटी को बाप कई बार भैंस पै कूद जावै पर ई को परिणाम सुनो भैयो, जा भैंसै या बिगाड़ै वा बिचारी कोई काम की ना रह, मतलब दुबारा प्रिगनैंट ना हो सकै अपने जीवन मां, आँखिन देखी और भोगी बात है भइयो। तो बडे-बुजरगन नै का कही है, कि जानवरपनो छोड़बो भी आदमीपनो है। पर समस्या एक और है ई आदमीपना को कहा करैं? चाटैं? जब कोई हमैं प्रगतिशील या बौद्धिक ना मानैं। तौ भइयो मानो कछू भी, जभू तक हर छिछोरी बात को समर्थन नहीं करोगे तो तुम्हैं प्रगतिशील कौन मानैगो, कोउ नहीं, याते ऐसो करो लोग एक कहैं तुम्हैं दो कहो। मुनीश भाईसाहब, आप भी सत्य कूँ स्वीकार लिया करो। जब अपनी कल्पना, अपनी इच्छा कूँ हम कल्पना ना कह कर शोध कह देवैं तो वा तार्किक हो जावै सो समर्थक भी मिल जावैं, और वाय कल्पना ही कहता रहो तो वा रूढीवाद है, हालांकि रूढिवाद मैं कल्पना की जरूरत नांय है। समलैंगिकन कै बारे में भी एक-दो बात कहन चावैं। ये कोई एक ते प्रेम ना करैं रोज – दूसरो चावैं, ढूँढता फिरैं। राम नै भी इनकै साथ बुरी करी कोई भी जाती ऐसी नाय छोडी जो एक लिंगी ही हो, सब जातन मैं नर-मादा की जोडी बनादी(राम और जाति मुनीश जी वाली) एक-आध बना देतो तो इनकी बात को जवाब ना लगतो कोउ पै।
अब कछु प्रश्न हैं हमारे—
1. जब समलैंगिकता प्राकृतिक है, तो जोडे में से कोई एक लिंग परिवर्तन क्यूँ करवाता है?
2. कोई है जो दावे के साथ कह सकता है कि कोई गे किसी मादा के साथ सहज हो ही नहीं सकता है?
3. इस विषय पर अकादमिक और वैज्ञानिक अधिकार रखने वालों के बीच मत भिन्नता क्यूँ है?
4. पति-पत्नी के बीच जो क्रिया वैधानिक है बल्कि वह क्रिया न करना अवैधानिक है। वही क्रिया चौराहे पर अवैधानिक क्यूँ कर रखी है हम इसके लिये आदोलंन कब तक करेंगे? कोई रूपरेखा तैयार कर रहा है या नहीं!
5. कोर्ट ने फैसला दे दिया है तो बहस किस लिये हो रही है? अपील तो हो सकती है, बहस क्यूँ?
6. वैदिक काल से ही राक्षस विवाह, पिशाच विवाह का उल्लेख मिलता है, पशु-पक्षी भी जोर-जबरदस्ती करते हैं फिर तथाकथित मनुष्य के लिये यह प्रतिबंधित क्यूँ हैं? इसके लिये भी कोई आंदोलन चल रहा हो तो कृपया बतायें, एक है जो बहुत भाव खा रही है।
तो भइयो हम नै ढोर चराबे को धन्धो का छोडो, लोग रोज ही हमैं ढोर समझ कै चराबो शुरू कर दियो। हाय हमारी किस्मत।
एक शेर सुनो भइयो
दिन को दिन, रात को रात कहना
इसमें क्या है कि सोचकर कहना
जो चीज दिन-रात की तरह साफ सामने पडी हो उसमें क्या शोध और क्या पढना-लिखना, सोचना समझना!
अब हमार नजरियो—ऐसी बातन पर जब बहस करैं तो इन बातन नै देखैं---
आप अपने लिये अपने प्रियजनों के लिये कैसी दुनिया और समाज चाहते है? अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिये कैसी दुनिया छोड जाना चाहते हैं? क्या ऐसी व्यवस्था आपका यह सपना पूरा करने में सहायक है? आप सक्षम हो सकते हैं लेकिन फर्ज कीजिये आपकी आने वाली पीढ़ी आप जितनी सक्षम नहीं हुई तो भी यह व्यवस्था उसको गुमराह न कर सके, शोषण न कर सके वो इस व्यवस्था में चैन से जी सके। पिछली पोस्ट पर एक भाईसाहब ने हमें वैधानिकता के विषय में बताया है। मैं कहना चाहता हूँ कि उन्होंने पूरा उत्तर नहीं दिया है, सत्ता समाज का ही हिस्सा है, और सत्ता भी वैधानिकता के क्या आधार तय करती है, प्रश्न यही है। बडे-बुजरग नै एक शब्द “संयम” पतो नहीं आदमी लिये ही गढो है या जानवरन कै लिये भी। दो आदमी जब प्यार करैं, साथ रहबो चावैं तो अपनी बहुत सारी निजता, स्वतंत्रता छोडैं हैं भइयो, हमार ...अ.. की गलफैंड को फोन शाम 8 बजे आ जावै तो बिचारो खानो भी ना खावै और भागो-उडो जावै।
जब आदमी...खैर छोडिये..
मानो तो मानो भइयो ना मानो तो हम तो वापस ढोर चराबे चले जएंगे।
"न तो सारी टिप्पणी ही पढ पाया न सारी पोस्ट फिर भी.........." that is why u could not understand what i said dear dinesh bhai.
प्रिय मुनीश जी,
आपकी सारी टिप्पणियां एवं पोस्ट फुर्सत में वापस पढूँगा, अभी तो क्षमा याचना करता हूँ। कहीं ऐसा तो नहीं है कि मेरी भाषा के कारण गलतफहमी हो गयी हो। क्या टिप्पणी में मैं अपनी बात कह पाया हूँ? यो ढोर ही रहा!
मैंने आप की टिप्पणी पर नहीं तथा कथित रिसर्च पर टिप्पणी की है।
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