
गीत
विदा के समय
हम हिलाते हैं रूमाल
कुछ है जो हर रोज़ ख़त्म हो रहा है
कोई सुन्दर चीज़ नष्ट हो रही है
हवा को फड़फड़ाता है
लौटता हुआ हरकारा कबूतर
हम हमेशा लौट रहे होते हैं
- उम्मीद के साथ या उसके बिना
जाओ सुखा लो अपने आंसू
और मुस्कराओ, अलबत्ता आंखें तुम्हारीं अब भी जलती हुईं.
कुछ है जो हर रोज़ ख़त्म हो रहा है
कोई सुन्दर चीज़ नष्ट हो रही है
कभी कभी
कभी कभी हमें जकड़ लेती हैं स्मृतियां
और कोई कैंची भी उन्हें काट नहीं सकती
उन कड़ियल धागों को.
शायद रस्सियां होती हैं वे.
वो 'हाउस ऑफ़ आर्टिस्ट्स' के बग़ल में वो पुल देख रहे हो?
उस पुल से कुछ ही कदम पहले
सिपाहियों ने मार डाला था एक मज़दूर को
जो चल रहा था मेरे आगे-आगे
तब सिर्फ़ बीस का था मैं
पर जब भी उधर से गुज़रता हूं
याद आ ही जाती है वह याद
वह थाम लेती है मेरा हाथ और हम साथ चलते जाते हैं
यहूदी कब्रिस्तान के गेट तक
जहां बचता भाग रहा था मैं
उनकी राइफ़लों से
अनिश्चित, लड़खड़ाते कदमों से
बीतते गए साल
और बीता मैं भी.
उड़ते गए साल
जब तक कि थम नहीं गया समय.
तुम्हारी त्वचा
बर्फ़ की बूंद जैसी फ़ीकी है तुम्हारी त्वचा
पर मुंह तुम्हारा ग़ुलाब जैसा महकदार!
उबाऊ होते हैं प्रेम के शब्द
- अब मैं क्या करूंगा उनका
जबकि जल्दबाज़ी में, असमंजस की हालत है मेरी
और मैं तुम्हारे उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा हूं
बर्फ़ की बूंद जैसी फ़ीकी है तुम्हारी त्वचा
पर मुंह तुम्हारा ग़ुलाब जैसा महकदार!
अन्त में यह कि तुम दग़ा मत देना -
देखो - ग़ायब हो जाने दो उस भय को
जो परदे की तरह खिंचा हुआ है तुम्हारी आंखों के ऊपर
-देखो ना-
वह खिंचा हुआ है उस बर्फ़ की मानिन्द जो गिरी थी पिछले बरस
बर्फ़ की बूंद जैसी फ़ीकी है तुम्हारी त्वचा
पर मुंह तुम्हारा ग़ुलाब जैसा महकदार!
4 comments:
हवा को फड़फड़ाता है
लौटता हुआ हरकारा कबूतर
हम हमेशा लौट रहे होते हैं
उम्मीद के साथ या उसके बिना
सभी कविताये बेहद पंसद आयी
In prernaprad rachnaaon ko padhwaane kaa aabhaar.
{ Treasurer-S, T }
शानदार कविता और सशक्त अनुवाद
साधुवाद
बढ़िया है अशोक भाई. बेहतरीन कवितायें ....... शुक्रिया.
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