( कुछ दिन पहले मैंने मार्क स्ट्रेंड की एक कविता का अनुवाद यहां पोस्ट किया था। अब एक और ...)
हम पढ़ रहे हैं किस्से अपनी जिंदगी के
हम पढ़ रहे हैं किस्से अपनी जिंदगी के
जो बनते हैं एक बंद कमरे में
कमरा झांकता है एक गली में
कोई नहीं है वहां
किसी चीज़ की आवाज़ नहीं
पेड़ लदे हैं पत्तों से
खडी कारें चलती ही नहीं कभी
हम कुछ होने की उम्मीद में
पलटते रहते हैं पन्ने
जैसे कि दया या परिवर्तन
एक स्याह पंक्ति जो जोड देगी हमें
या कर देगी अलग
जिस तरह है सबकुछ
लगता है
ख़ाली है हमारी ज़िंदगी कि किताब
कभी नहीं बदली गयी
घर के फर्नीचरों की जगह
और उन पर पडे बिछावन
हमारी छायाओं के गुज़रने से
हर बार हो जाते हैं और स्याह
यह वैसे ही है कमोबेश
कि जैसे कमरा ही था पूरी दुनिया
पढते हुए पलंग के बारे में
हम बैठे हैं पलंग पर अगल-बगल
हम कहते हैं - आदर्श है यह
आदर्श है यह!
3 comments:
यह भी उम्दा!
मार्क स्ट्रेंड की प्रतिनिधियों कविताओं का संकलन तैयार करें तो और बेहतर होगा.
मार्क स्ट्रेंड की दोनों कविताओं के अनुवाद पढ़े | दोनों के विषय बहुत अच्छे लगे | मेरी भी यही अनुरोध है कि उनकी प्रतिनिधि कविताओं का संकलन तैयार करें |
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