Monday, August 10, 2009

स्‍वप्‍न, स्‍मृति और समय की गुमी हुई सुइयां...



(इंगमार बर्गमैन की 'वाइल्‍ड स्‍ट्रॉबेरीज़' को पढ़ने की एक कोशिश)


1.
''एक दिन/माफ़ी मांगना होती है/याददाश्‍त पर निर्भर करेगा/बहुत कुछ'' -चंद्रकांत देवताले

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शुक्र है कि 57 के उस साल में इंगमार बर्गमैन को 'इतिहास वर्सेस स्‍मृति' और 'यथार्थ वर्सेस मिथक' के पॉलिमिकल झगड़ों की ख़बर नहीं थी. ऐन उसी साल 'सेवंथ सील' में मृत्‍यु से साक्षात्‍कार की आत्‍यंतिक इंटेंसिटी के बाद अब उनके सामने महज़ एक सवाल था, और वो था जीवन में लौटने की कोई सूरत. 'एक समझ, एक वापसी, एक पछतावा' (जैसा कि मदन सोनी ने निर्मल वर्मा के परिप्रेक्ष्‍य में कहा था.) बर्गमैन ख़ुद से पूछते हैं क्‍या स्‍मृति (या याददाश्‍त!) के ज़रिये भी कोई ऐसा दरवाज़ा खुलता है, जो ऐतिहासिक समय या समकाल की एकरैखिक गति को तोड़ते हुए, और उसका तक़रीबन प्रत्‍याख्‍यान करते हुए, आपको औदात्‍य या आत्‍मबोध तक ले जाए. एक सीमा के बाद 'वाइल्‍ड स्‍ट्रॉबेरीज़' में बर्गमैन इस सवाल से जूझते नहीं हैं, वे ऐसा पिक्‍चराइज़ करके दिखाने लगते हैं...और तब, वाक़ई सब कुछ के अंत में इसाक बोर्ग माफ़ी मांगता है, और ये माफ़ी याददाश्‍त पर निर्भर होती है. यहां याद के सफ़ेद दूधिया दरवाज़ों के बाहर जंगली स्‍ट्रॉबेरी का एक बाग़ समय के इधर और उधर पसरा हुआ है, सुबह है रुकी हुई, हवा में थमा हुआ किसी नाव का पाल... कुछ अफ़सोस हैं, कुछ मुर्दा शिकायतें... और अंत में एक ग्रैंड और विराट स्‍वीकार. एक रियलाइज़ेशन और एक साल्‍वेशन. स्‍मृति के ज़रिये अन्‍वेषित किया गया एक मोक्ष, जो अंतत: समकाल को भी परिष्‍कार और अर्थवत्‍ता बख्‍़श्‍ता है.

2.

इस पूरी फ़ि‍ल्‍म में बर्गमैन क़दम-क़दम पर समय, स्‍वप्‍न और स्‍मृति के प्रत्‍ययों का सामना करते हैं. फ़ि‍ल्‍म में कई जगह गहरे अस्तित्‍ववादी इशारे हैं और यह देखना हमेशा हैरान करता है किस तरह अस्तित्‍ववादी क्रायसिस हमेशा अंतत: मिथक और स्‍मृति में अपना मोक्ष तलाशने की कोशिश करता है. गहरे अर्थों में यथार्थवादी होते हुए भी (और बर्गमैन की सर्वाधिक यथार्थवादी फ़ि‍ल्‍मों में शुमार किए जाने के बावजूद) ये एक 'सर्रियल' फ़ि‍ल्‍म है. ये घड़ी की गुमी हुई सुइयों सरीखे किसी 'लॉस्‍ट टाइम' की तलाश भी है, जिसमें प्रूस्‍त और जॉयस के बाद फिर तमाम मॉडर्न लिट्रेचर और फ़लसफ़ा मुब्तिला रहा था. फ़ि‍ल्‍म की ऐन शुरुआत में ही यह 'सेट' क‍र दिया जाता है. इसका दूसरा दृश्‍य ही एक 'नाइटमेयर' है. इसाक बोर्ग कामू की किताब से निकले किसी गुमे हुए शहर, गुमे हुए चेहरे और गुमे हुए वक्‍़त (इसे बिना सुइयों वाले घड़ी के डायल के एक शॉट से सजेस्‍ट किया गया है और फिर यह डिवाइस पिक्‍चर के बीच में जाकर ख़ुद को एक दफ़े फिर दोहराती है, दर्शक को ये इलहाम देती हुई, कि डायरेक्‍टर ठीक-ठीक किस दिशा में बढ़ रहा है और क्‍या स्‍थापित करना चाह रहा है.) के बीच है और वो दुर्घटनावश उसके सामने आ गिरे एक ताबूत में अपनी ही मुर्दा देह देखता है. इस दु:स्‍वप्‍न से जागने पर उसे लगता है कि मौत उसका पीछा कर रही है, लेकिन अंत तक जाकर वो ये पूरी तरह से समझ से पाता है कि दरअसल मौत उसका पीछा नहीं कर रही, उसे दबोच चुकी है. इसाक बोर्ग की रीढ़ की हड्डी में बर्फ-सा सर्दीलापन है. यही सर्दीलापन उसके बरताव और उसके नज़रियों में भी ट्रांसलेट होता है. वो एक बदमिजाज़ और ख़ब्‍ती बूढ़ा है. लेकिन, केवल तभी तक, जब तक़रीबन किसी अप्रत्‍याशित घटना के चलते, उसके बचपन का संसार औचक उसके हाथ लग जाता है. एक स्‍वप्‍न से दूसरे स्‍वप्‍न में तैरते हुए, एक पराजय से दूसरे पछतावे तक लौटते हुए वो आखिरकार ख़ुद को अपनी आत्‍मकेंद्रितता के बाहर कहीं खोज पाता है, जब वो एक नॉ‍स्‍टेल्जिक दंश के साथ (जिसमें उसके अपनी पत्‍नी से अलगाव के संकेत छुपे हैं) वापस लौटता है, और आखिरकार अपने बेटे और अपनी बहू की जिंदगी में संवेदनात्‍मक दिलचस्‍पी लेता है, अपनी नौकरानी तक से माफ़ी मांगता है, सफ़र में साथ देने वाले युवा साथियों को खुली उत्‍फुल्‍लता से विदा करता है... और जंगली स्‍ट्रॉबेरी के उस बाग़ में और अपने पुराने दिनों में वापस लौट जाता है. रात की आखिरी रोशनियां इस वक्‍़त इसाक के चेहरे पर बुझ रही होती हैं और वो दो वक्‍़तों के बीच है... एक अजब-सी शांत तन्‍मयता के साथ... सिनेमा के इतिहास में इससे ज्‍़यादा लिरिकल एंडिंग्‍स कम ही फ़ि‍ल्‍मों की रही हैं.

3.

''स्‍वप्‍न एक किस्‍म का पागलपन है और पागलपन एक किस्‍म का स्‍वप्‍न.''- शॉपेनऑवर-
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वह उक्ति... जिस पर 'वाइल्‍ड स्‍ट्रॉबेरीज़' के अंतिम दौर में बुज़ुर्गवार फ़ादर जैकोब रिमार्क करते हैं- 'लेकिन क्‍या जीवन भी एक स्‍वप्‍न नहीं?'

4.

बर्गमैन ने एक दफ़े कहा था- ''मैंने सिनेमा को माध्‍यम के रूप में इसलिए भी चुना, क्‍योंकि सपनों के लिए जगह बनाने की इससे बेहतर कोई जगह नहीं हो सकती थी''. बगैमैन से पहले लुई बुनुएल और उनके बाद आंद्रेई तारकोव्‍स्‍की सिनेमा और स्‍वप्‍न के इस सम्‍मोहक संसार की शिनाख्‍़त करने वालों में शुमार रहे हैं, लेकिन बर्गमैन की स्‍वप्निल इमेजरी, जो अभी बौद्धिकता, मृत्‍युबोध और सिनिसिज्‍़म से दूषित नहीं हुई है और अपने सृजन की अलसुबह में है, वाइल्‍ड स्‍ट्रॉबेरीज़' में चरम पर नज़र आती है. फ़ि‍ल्‍म का शुरुआती दु:स्‍वप्‍न दृश्‍य एक निहायत ख़ूबसूरत मिडशॉट के साथ आगे बढ़ता है और इसाक के चेहरे पर क्‍लोज़अप होते हुए ख़त्‍म होता है. जंगली स्‍ट्रॉबेरी के बीच मिले पुराने घर में फिर से जीवंत हुए उस छूटे हुए संसार की सारी तफ़सीलें मुस्‍तैदी के साथ बताई जाती हैं. पूरे वक्‍़त इसाक वहां एक तटस्‍थ 'ऑनलुकर' की तरह मौजूद रहता है और उसके साथ-साथ हम दो वक्‍़तों के एक साथ साक्षी होते हैं. पिक्‍चर के संवाद नुक़ीले हैं और पिक्‍चर की सर्रियल सिनेमैटोग्राफ़ी या फ़लसफ़ाई उठान के बावजूद अपने आपमें एक एंटी-रोमैंटिक लहज़ा लिए रहते हैं. कई दफ़े तो लगता है कि आप बर्नार्ड शॉ का कोई टेक्‍स्‍ट पढ़ रहे हों. पिक्‍चर की सेटिंग न जाने क्‍यों तुर्गेनेव के उपन्‍यासों में ले जाती-सी लगती है, जहां सांसे लेता हुआ-सा एक बेहद आत्‍मीय और अनन्‍य स्‍पेस है...जैसे पानी पर जहाज़ फिसल रहा हो... और एक बहुत मद्धम गूंजता हुआ समय... गुन्‍नार फ़ि‍शर के कैमरे की गति सीक्‍वेंस में समय का बोध कराती हुई आगे बढ़ती है, और वो बहुत 'स्‍मूद' है... स्‍याह और सफ़ेद छवियों के साथ, क्‍योंकि बर्गमैन का पुख्‍़ता ख्‍़याल था कि रंगीन तस्‍वीरें 'यथास्थितिवादी' हुआ करती हैं... ब्‍लैक एन वॉइट के साथ आप कभी भी शुरू हो सकते हैं- रहस्‍यपूर्ण संकेतों और बहुआयामी समय की पारे सरीखी पारदर्शी परतों के भीतर.

5.

पिक्‍चर का दूसरा 'दु:स्‍वप्‍न' दृश्‍य ज्‍़यादा 'फ्रायडियन' हुआ जाता है. एक कमाल की सिनेमाई ड्रमैटिक युक्ति के साथ बगैमैन इस दु:स्‍वप्‍न के सूत्र उस मिस्‍टर आलमेन के हाथों सौंप देते हैं, जिसे इसाक और मारियाना ने कुछ समय पहले तक़रीबन झुंझलाते हुए कार से उतार दिया था. पिटे हुए चेहरे वाला ये शख्‍़स दु:स्‍वप्‍न में बहुत ठोस और क्रूरतापूर्ण सधेपन के साथ सामने आता है. बर्गमैन दस्‍ते की स्‍थायी सदस्‍या बीबी एंडरसन अपनी दोनों भूमिकाएं बहुत ख़ूबसूरती से निभाती हैं, और सच में वे पिक्‍चर का सबसे राहतभरा हिस्‍सा हैं. बहुत मासूम और सहज. इसाक बोर्ग की मुख्‍य भूमिका में विक्‍तोर स्‍योनस्‍त्रोन ऐन शुरुआत में ही 'स्‍टोनफ़ेस' सरीखी मुद्रा लेकर आते हैं और आखिर तक आते-आते उस चेहरे को मोम बनते भी हम देखते हैं. स्‍वीडन के इस महान थिएटर कलाकार की ये आखिरी परफ़ॉर्मेंस है- और निश्चित ही सबसे यादगार. मारियाना मानसिक दृढ़ता के लिहाज़ से संभवत: पिक्‍चर की सबसे ताक़तवर किरदार है और उसकी भूमिका निभा रही इंग्रिड थुलिन अपनी स्‍वयं की भी इस निजी ख़ूबी के चलते हर उस फ्रेम को एक तरह से बैलेंस करती है, जिसमें वो मौजूद है. फ़ि‍ल्‍म का बहुआयामी देशकाल फ़ेलिनी की 'एट एंड हाफ़' के 'मल्‍टी-नैरेटिव्‍स' की याद दिलाता है. गलबहियां करता हुआ गुत्‍थमगुत्‍था वक्‍़त और स्‍पेस, जो रूई के फ़ाहों सरीखी सूनी सफ़ेद रोशनी में तैरता रहता है- नैतिक परिष्‍कार के गहरे संकेतों के साथ.

6.

एक ख़ामोश गूंज... 'वाइल्‍ड स्‍ट्रॉबेरीज़' के बाद बस यही याद रह जाता है. अतीत का एक आस्‍थागान- जैसा कि बर्गमैन ख़ुद उसके बाद फिर कभी हासिल नहीं कर सके... 'परसोना', 'विंटर लाइट' और 'क्राइज़ एंड विस्‍पर्स' में ख़ुद से भी आगे निकल जाने के बावजूद

5 comments:

Ashok Pande said...

आपका लिखा मन में गहरे उतर जाता है भाई. हमेशा की तरह एक और शानदार आलेख लगाया आपने. बर्गमैन से अपना भी खासे अपनेपन का नाता है.

शुक्रिया सुशोभित भाई!

Unknown said...

नशीली राइटिंग है भाई, नशीली... हुच्च!

मुनीश ( munish ) said...

i think i have to watch it first 'cos words can never replace the picture.

Bhupen said...

अतीत में गोते लगाया वो बूढ़ा मुझे फिर याद आया.

Khatti mithee said...

आपने जिस ढंग से फ़िल्म के बारे में लिखा मानो अभी हीं कोई सपना देख डालूँ और कोई आकृति दे दे ।
आज इस फ़िल्म को देखने की कोशिश होगी ।