प्रोफ़ेसर तो वह पहले से ही थे. उनके भाषाविद पिता अपने बेटे को अध्यापक के रूप में ही देखना चाहते थे क्योंकि यह उनका पसंदीदा पेशा था. एक दिन इसी पसंदीदा और सम्मानित समझे जाने वाले पेशे में अपने बेटे को पूरी संजीदगी से उतरा हुआ देख पिता चुपके से कक्षा की पिछली कतार में बैठ जाया करते थे.
पुत्र झुँझलाकर पूछता - 'आप मेरी क्लास में क्यों आते हैं?'
पिता का जवाब होता - 'सीखने के लिए. सीखने की कोई उम्र नहीं होती , कहीं भी , कभी भी, कुछ भी सीखा जा सकता है. मैं यहाँ एक अच्छे अध्यापक से अध्यापन कला के गुर सीखने आता हूँ ।'
पुत्र झुँझलाकर पूछता - 'आप मेरी क्लास में क्यों आते हैं?'
पिता का जवाब होता - 'सीखने के लिए. सीखने की कोई उम्र नहीं होती , कहीं भी , कभी भी, कुछ भी सीखा जा सकता है. मैं यहाँ एक अच्छे अध्यापक से अध्यापन कला के गुर सीखने आता हूँ ।'
यह पुत्रमोह आबद्ध - अनुकूलित अभिव्यक्ति अथवा पितृत्व का सहज स्नेह - प्रदर्शन भर नहीं था. यह एक बुजुर्ग अध्यापक का युवा अध्यापक के प्रति सच्चा आभार प्रदर्शन था, परम्परा की प्रगतिगामी धारा के बहाव को देखकर कहा गया एक संतुष्टिपूर्ण वाक्य था. माँ ने छुटपन में कहा था - 'पढ़' और पिता ने बड़े होने पर कहा था -'पढ़ा'. प्रोफ़ेसर खान , माफ कीजिएगा प्रोफ़ेसर कादर खान की जिन्दगी का जितना भी हिस्सा सार्वजनिक तौर पर विद्यमान व उपलब्ध है उसमें मूलत: पढ़ने और पढ़ाने की ही बात है हालांकि उन्होंने लिखा खूब है - थोक के भाव से. चलिए अब दो के स्थान पर तीन शब्दों - पढ़ना, पढ़ाना और लिखना - के त्रिकोण से हिन्दी सिनेमा के इस धाँसू - धुरंधर लिक्खाड़ और हाजिर -जवाब हँसोड़ अभिनेता के व्यक्तित्व व कृतित्व के चौथे कोण पर निगाह डालने की कोशिश -सी करते हैं।
प्रोफ़ेसर कादर खान एक सिविल इंजीनियर हैं. मुंबई के कमाठीपुरा इलाके की तंग गलियों में पला एक नौजवान थिएटर करते - करते और कापी कागज के अभाव में एक कोठरीनुमा घर के फर्श पर गणित की गुत्थियाँ सुलझाते -सुलझाते न केवल सिविल इंजीनियर बन जाता है बल्कि भायखला के एक पालीटेक्निक कालेज में पढ़ाने भी लगता है. वह कक्षाओं में थ्योरी ऒफ स्ट्रुक्चर, हायड्रोलिक्स, स्ट्रेन्थ ओफ मेटेरियल , आरसीसी स्टील अदि पढ़ाता है किन्तु उसके पस्दंदीदा विषयों में शुमार होते हैं - थिएटर, स्तानिलावस्की, गोर्की, चेखव, दोस्तोवयस्की, ग़ालिब , कबीर आदि - आदि. एक तरफ अभियांत्रिकी के सिद्धान्त और प्रयोग - अनुप्रयोग तथा दूसरी ओर रंगमंच, साहित्य, सिनेमा, संगीत , शायरी... प्रोफ़ेसर साहब को बालीवुड से फिल्म लिखने के बुलावे आते हैं और वे प्रोफ़ेसर कादर खान के नाम से नरेन्द्र बेदी की फिल्म 'बेनाम' के डायलाग्स लिखते हैं. मामला चल निकलता है, गाड़ी दौड़ पड़ती है लेकिन खान साहब को लगता है कि इस चकाचौंध की मायानगरी में प्रसिद्धि है , पैसा है लेकिन अपने भीतर बैठे हुए उस अध्यापक का क्या करें जो बार - बार परेशान होता है कि उसकी क्लास उसे बुला रही है, हसरत से इंतजार कर रही है।
इसके बाद की कथा तो लगभग एक सीधी , सरल रेखा खीचने जैसी है. प्रोफ़ेसर कादर खान से फिल्म लेखक, अभिनेता , निर्माता, निर्देशक, टीवी कार्यक्रम प्रस्तोता कादर खान के बनने , सँवरने और बदलने की कथा . हिन्दी की मुख्यधारा के सिनेमा की कद्दावर शख्सियत मनमोहन देसाई की 'रोटी' (१९७४) के अतिरिक्त संवाद लेखक से शुरुआत कर कादर खान ने लगभग सौ फिल्मों के लिए लिखा जिनमें 'परवरिश', 'अमर अकबर अंथोनी', 'खून पसीना' , 'मुकद्दर का सिन्दर' , 'सुहाग' , 'लावारिस' ,देशप्रेमी' , 'शराबी' , 'पाताल भैरवी' ,'खून भरी मांग' ,'आंटी नंबर वन' , आदि -इत्यादि ने बाक्स आफिस पर टिकट बिक्री के झांडे गाड़े. हिन्दी उपन्यास जगत के जगमगाते सितारे गुलशन नंदा के उपन्यास पर बनी यश चोपड़ा की फिल्म 'दाग' (१९७३) से फ़िल्मी अभिनय के क्षेत्र में कदम रखने वाले इस रंगमंच कलाकार ने तीन सौ से ज्यादा फिल्मों में काम किया जिनमें कुछ शुरुआती फिल्मों में वकील, पुलिसवाला, विलेन - खलनायक - गद्दार के रोल हैं किन्तु बाद में गोविन्दा, डेविड धवन, शक्तिकपूर और अरुणा ईरानी के साथ हास्य अभिनेता या कामेडियन की उनकी छवि खूब जमी. यह हास्य एक चलताऊ और भदेस किस्म का हास्य था जिसमें अभिनय के वाचिक और आहार्य रूप ही प्रमुखता से मुखर होते दिखाई दिए. भाषायी और शाब्दिक तोड़ - मरोड़ , अतिनाटकीय अंग संचालन, द्विअर्थी संवादों की अदायगी, नए मुहावरों की गढ़ाई आदि - इत्यादि नें उन्हें हिन्दी सिनेमा के कामेडियन की परिवर्तित छवि के प्रतिनिधि के रूप में स्थापित किया. उनके इस रूप की आलोचना भी कम नहीं हुई है और प्राय: भौंड़े किस्म के हास्य को बढ़ावा देने के आरोप भी उन्हें कम नहीं झेलने पड़े हैं .उनकी हँसोड़ छवि को टेलीविजन वालों ने भी भुनाया और 'हँसना मत' जैसे सीरियल की आमद हुई.'बाप नंबरी बेटा दस नंबरी ' के लिए फिल्मफेयर और 'तकदीरवाला' के लिए स्क्रीन अवार्ड भी खान साहब को मिले .एक निर्माता के रूप में उन्होने गिरीश कर्नाड और शबाना आजमी जैसे कलाकारों को लेकर 'शमा' ( १९८१ ) जैसी सीरियस फिल्म का निर्माण किया किन्तु उसको मिले ठंडे रिस्पांस से वे आहत भी कम नहीं हुए.शायद अपनी इसी खीझ को निकालने के लिए उन्होंने 'उमर पचपन की दिल बचपन का ' ( १९९२ ) जैसी हल्की फुल्की फिल्म का निर्देशन भी किया. धीरे - धीरे उनका लिखना कम होता गया और अभिनय में सक्रियता बढ़ती गई और एक दिन कादर खान हिन्दी सिनेमा की दमकती हुई दुनिया को अलविदा कहकर अपने पसंदीदा पेशे अध्यापन की ओर मुड़ गए.फिल्मी दुनिया ने उन्हें काम , नाम , दाम , ईनाम - इकराम सब दिया लेकिन शायद वह संतुष्टि या आनंद नहीं दिया जो रंगमंच और अध्यापन से मिला था था या कि जिसकी कसक शेष रह गई थी।
तो किस्सा कोताह यह कि प्रोफ़ेसर खान अब फिल्मों के लिए लिखते नहीं , अब पढ़ाते हैं. लगभग एकाध बरस पहले अखबारों में यह पढ़ रखा था कि कादर खान दुबई में कहीं उर्दू और अरबी भाषा पढ़ा रहे हैं उनके विद्यर्थियों में ज्यादातर आप्रवासी , कामगार और अनुवाद के काम से जुड़े हुए लोग हैं. उनकी यह भूमिका कब तक जारी रहेगी , कहा नहीं जा सकता. सुनने - पढ़ने में तो यह भी आया है कि वे अब एक बार फिर अपनी रंगमंडली तैयार रहे हैं .ऐसे वक्त पर जब लोग शोहरत और दौलत कमा लेने के बाद अतीत की जुगाली करते हुए रिटायरमेंट की जिन्दगी जीना पसंद करते हैं तब अपने कादर भाई को पढ़ने - पढ़ाने - नाटक करने के काम में मुब्तिला देखना भला लगता है. कादर खान साहब को ग़ालिब से बेइंतहा मुहब्ब्त है , वे ग़ालिब के साहित्य के मशहूर टीकाकार भी हैं. अस्तु , उस्ताद, गुरुजी, मास्साब, सर, प्रोफ़ेसर कादर खान के पहले प्यारे पेशे की उन्नति , सफलता और बढ़ती के लिए ढ़ेर सारी शुभकामनाओं के साथ महाकवि ग़ालिब की मशहूर ग़ज़ल के ये चंद शेर -
फिर कुछ इस दिल को बेकरारी है.
सीन: जुया - ए- जख़्मे कारी है.
फिर जिगर खोदने लगा नाखून,
आमदे फ़स्ले लाल:कारी है .
फिर उसी बेवफा पे मरते हैं.
फिर वही ज़िन्दगी हमारी है।
18 comments:
कादर खान के द्विअर्थी फूहड़ हास्य प्रस्तुत करने वाली छवि से बिलकुल अलग यह रूप प्रस्तुत करने के लिए आभार ..!!
प्रोफ़ेसर खान का यह पहलू जानकर अच्छा लगा कि वे अपनी हसरतें तो पूरी कर रहे हैं, उम्र हसरतें पूरी करने में बाधा नहीं होती, सीख भी मिली।
बहुत अच्छा आलेख, बधाई आपको, खान साहब के बारे में यह पहलू उजागर करके ।
As a dialogue writer he did full justice to his job, but i think his pairing with Shakti Kapur gave us some of the cheapest and third class comedy ever done on silver screen of Hindi cinema. Today we have a crop of well educated film makers with a different style of film making where he can not fit. Considering the amount of garbage he produced in the name of comedy , he does not deserve any emotional farewell either.
८० के मध्य तक हिंदी सिनेमा की मनोरंजन प्रधान ,मसाला फिल्मों में अपनी तमाम लाचारियों और कमियों के बावजूद एक अजब भोलापन हुआ करता था जो राजकुमार और शत्रुघ्न सिन्हा को भी दर्शनीय बनाता था मगर उस भोल-पन का गला घोंटने का श्रेय कादर खान , डेविड धवन, शक्ति कपूर , गोविंदा और दक्षिण भारत के कुछ अनाम निर्माता - निर्देशकों को जाता है . हैरत है चरण दास चोर जैसी नितांत शाकाहारी रचना बैन की जाती है और इस किस्म का कमीना सिनेमा धड़ल्ले से बाज़ार में है .
कादर खान जी के बारे में इतना कुछ जानकर अच्छा लगा
सफ़दर की एक लाइन मैंने रोहतक के एक प्रोग्रेसिव नाटक इदारे की दीवार पर लिखी देखी थी जो कुछ इस तरह थी कि हम खुद को फूहड़ नाटक करने की इजाज़त नहीं दे सकते. अब ये हैरानी है कि थिएटर, स्तानिलावस्की, गोर्की, चेखव, दोस्तोवयस्की, ग़ालिब , कबीर आदि का चाहने वाला मनोरंजन के नाम पर ऐसा गटर पेश करता रहता है. (ek ziddi dhun)
अच्छा है .वैसे बीच में वे भी बाजारवाद की आंधी में चढ़ गए थे ओर दक्षिण में बनी हिंदी फिल्मो में उन्होंने भी काफी फूहड़ संवाद लिखे थे ओर अभिनय भी किया था
कादिर खान तो अपनी पटकथा लेखनी और अभिनय द्बारा जाने जाते हैं पूरे भारत में ......... बहुत अच्छा लगा उनके बारे में जान कर
मुनीश जी से सहमत
मित्रो,
मुनीश जी (और अशोक कुमार पाण्डेय जी भी) की बत से असहमत होने का कोई कोई कारण नहीं है.मैं भी लगभग वही / वैसी ही बात कह रहा हूँ-
"यह हास्य एक चलताऊ और भदेस किस्म का हास्य था जिसमें अभिनय के वाचिक और आहार्य रूप ही प्रमुखता से मुखर होते दिखाई दिए. भाषायी और शाब्दिक तोड़ - मरोड़ , अतिनाटकीय अंग संचालन, द्विअर्थी संवादों की अदायगी, नए मुहावरों की गढ़ाई आदि - इत्यादि नें उन्हें हिन्दी सिनेमा के कामेडियन की परिवर्तित छवि के प्रतिनिधि के रूप में स्थापित किया. उनके इस रूप की आलोचना भी कम नहीं हुई है और प्राय: भौंड़े किस्म के हास्य को बढ़ावा देने के आरोप भी उन्हें कम नहीं झेलने पड़े."
मैं स्वीकार करता हूँ कि अगर यह पोस्ट कहीं से emotional farewell लग रही तो मेरी कमी मानी जा सकती है किन्तु अध्यपन के पेशे के प्रति सम्मान की भावना के आलोक में यदि इसे देखा जाय.. तो ..
बाकी आप लोग / पाठक लोग जैसा समझें !
बहुत बार व्यक्ति का वास्तविक किरदार परिस्थितियों के कारण बाहर नहीं आ पाता है। कई बार वक्ति स्वयं भी अपने किरदार की हत्या कर देता है, यह कमजोरी है। कादिर साहब के साथ इनमें से क्या हुआ है वे खुद ही जानें !!!
अध्ययन - अध्यापन की उनकी लगन सम्माननीय है।
इस जानकारी के लिए धन्यवाद। कई बार सिनेमा के पर्दे पर दिखाई देनेवाली छवि को ही हम सब कुछ मान लेते हैं। लेकिन, असलियत लगभग हर बार इतर ही होती है।
उत्तम पोस्ट !
कादर खान का व्यावसायिक हास्य पक्ष ही अबतक हम जान सके थे जो कत्तई अच्छा नहीं था। सम्वाद लेखक के रूप में उन्हें सस्ती लोकप्रियता भी खूब मिली थी।
लेकिन आपने उनके जिस उज्ज्वल पक्ष के बारे में बताया है उसके लिए खान साहब को आपसे ‘शुक्रिया’ कहना चाहिए। हम आपको धन्यवाद देते हैं। अच्छी पोस्ट।
achhi aur rochak post.
dhanyawaad.
Rashmi.
Mention of films often excites me as i grew up watching lot of films. There was no t. v. in our home ,but my father often took us to movies so that we didn't miss t.v.
प्रोफेसर कादरखान के बारे में विस्तार से बताने के लिए धन्यवाद।
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