Saturday, August 22, 2009

कोमल कोठारी का परिचय और दम मस्त कलन्दर



१९२९ में जोधपुर में जन्मे श्री कोमल कोठारी ने उदयपुर में शिक्षा पाई और १९५३ में अपने पुराने दोस्त विजयदान देथा (जो अब देश के अग्रणी कहानीकारों में गिने जाते हैं) के साथ मिलकर 'प्रेरणा' नामक पत्रिका निकालना शुरू किया. 'प्रेरणा' का मिशन था हर महीने एक नया लोकगीत खोजकर उसे लिपिबद्ध करना. उनके परिवार के राष्ट्रवादी विचारों और कोमल कोठारी के संगीतप्रेम का मिलाजुला परिणाम यह निकला कि उनकी दिलचस्पी १८०० से १९४२ के बीच रचे गए राजस्थानी देशभक्तिमूलक लोकगीतों में बढ़ी. यहीं से उनके जीवन का एक नया अध्याय शुरू हुआ. उन्होंने राजस्थान की मिट्टी में बिखरी अमूल्य संगीत सम्पदा से जितना साक्षात्कार किया उतना वे उसके पाश में बंधते गए.

कई तरह के काम कर चुकने के बाद कोठारी जी १९५८ में अन्ततः राजस्थान संगीत नाटक अकादेमी में कार्य करने लगे और अगले चालीस सालों तक उन्होंने एक जुनून की तरह राजस्थान के लोकसंगीत को रेकॉर्ड करने और संरक्षित करने का बीड़ा उठा लिया.

१९५९-६० के दौरान वे कई दफ़ा जैसलमेर गए और लांगा और मंगणियार गायकों से मिले. काफ़ी समझाने बुझाने के बाद वे १९६२ में पहली बार इन लोगों के संगीत को रेकॉर्ड कर पाने में कामयाब हुए.

उन्हीं की मेहनत का नतीज़ा था कि १९६३ में पहली बार मंगणियार कलाकारों का कोई दल दिल्ली जाकर स्टेज पर अपनी
परफ़ॉर्मेन्स दे सका.

कोठारी इस से कहीं आगे ले जाना चाहते थे जीवन से लबालब भरे इस संगीत को. १९६७ में इन कलाकारों के साथ उनकी स्वीडन की यात्रा के बाद चीज़ें इस तेज़ी से बदलीं कि आज राजस्थान के लगातार विकसित होते पर्यटन की इस संगीत के बिना कल्पना भी नहीं की जा सकती

१९६४ में श्री कोठारी ने 'रूपायन' नामक संस्था की स्थापना की. संगीत को रेकॉर्ड कर के संरक्षित करने का विचार उन्हें पेरिस में बस चुके एक भारतीय संगीतविद देबेन भट्टाचार्य से मिला. भट्टाचार्य साहब की पत्नी स्वीडन की थीं और उनके प्रयासों से ही लांगा-मंगणियार संगीत को पहली बार अन्तर्राष्ट्रीय मंच प्राप्त हुआ.

हमारे समय में लोकसंगीत की महत्ता, आवश्यकता और प्रासंगिकता को रेखांकित करना उनके जीवन का ध्येय था और वे इस में सफल भी हुए.

भारत सरकार ने उनके योगदान को पहचाना और उन्हें पद्मश्री तथा पद्मभूषण से सम्मानित किया.

अप्रैल २००४ में कैंसर से उनकी मृत्यु हो गई.

पिछली चार पोस्ट से चल रही राजस्थानी लोकसंगीत की इस सीरीज़ को मैं उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि देकर फ़िलहाल समाप्त करता हुआ फ़्रांस की एक संस्था द्वारा रेकॉर्ड करवाया गया अतिविख्यात 'दमादम मस्त कलन्दर' सुनवा रहा हूं - एक बिल्कुल नया कलेवर देखिये भाषा और अदायगी का:



डाउनलोड लिंक:
http://www.divshare.com/download/8258676-318

वर्ष २००० में इंग्लैंड की ए. आर. सी. म्यूज़िक प्रोडक्शन्स कम्पनी ने दुनिया भर के बंजारों के संगीत पर तीन सीडी का एक संग्रहणीय अल्बम निकाला था. इस अल्बम में जयपुर में रहने वाले हमीद ख़ान के लोकसंगीत-केन्द्रित बैन्ड 'मुसाफ़िर' की एक प्रस्तुति 'निंदरेली' का भी आनन्द लीजिये:

निंदरेली:



डाउनलोड लिंक:
http://www.divshare.com/download/8248268-da5

3 comments:

Swatantra said...

Your blog is beautiful.. Reading this making me think that there are many people on this earth i dont know and so much to learn from them. Thanks for sharing!!

वाणी गीत said...

राजस्थान लोक संगीत की अनमोल संपदा से चुने गए ये मोती {गीतों की श्रृंखला} अनमोल हैं.. आभार ..!!

Rakesh Singh - राकेश सिंह said...

आपने समृद्ध राजस्थानी लोग गीतों अनमोल भेंट हम सबों को दी है |

आपका तहे दिल से सुक्रियादा करता हूँ |