Monday, September 28, 2009

'होगी जय, होगी जय, हे पुरूषोत्तम नवीन।'



दशहरा , दुर्गापूजा, विजयादशमी पर सभी को शुभकामनायें - बधाई !

शाम को रावण का पुतला जलेगा और देवी विदा होंगी. हर कोई इस त्योहार को अपने तरीके से मना रहा है , मनाना भी चाहिए . उत्सव और उल्लास के क्षण हम सबके जीवन में आते रहें , ऐसी कामना है !आज निराला जी की लंबी कविता ' राम की शक्ति पूजा' की बार - बार याद आ रही है . जैसा कि सबको पता है यह कविता हिन्दी की लम्बी कविताओं की परम्परा में मील का पत्थर है और सचमुच में एक कालजयी रचना है. रावण और आसुरी शक्तियों पर विजय को लेकर उठे राम के मन का संशय देवी ही दूर करती हैं. आइए इस लम्बी कविता के अंतिम हिस्से को एक बार पढ़ें , देखें और अपने भीतर के कलुष को टटोलें और उस पर विजय प्राप्त करने की सोचें !

प्रस्तुत है निराला जी की कविता ' राम की शक्ति पूजा' का अंतिम अंश -

हैं नहीं शरासन आज हस्त तूणीर स्कन्ध
वह नहीं सोहता निविड़ जटा दृढ़ मुकुटबन्ध,
सुन पड़ता सिंहनाद रण कोलाहल अपार,
उमड़ता नहीं मन, स्तब्ध सुधी हैं ध्यान धार,
पूजोपरान्त जपते दुर्गा, दशभुजा नाम,
मन करते हुए मनन नामों के गुणग्राम,
बीता वह दिवस, हुआ मन स्थिर इष्ट के चरण
गहन से गहनतर होने लगा समाराधन।
क्रम क्रम से हुए पार राघव के पंच दिवस,
चक्र से चक्र मन बढ़ता गया ऊर्ध्व निरलस,
कर जप पूरा कर एक चढाते इन्दीवर,
निज पुरश्चरण इस भाँति रहे हैं पूरा कर।
चढ़ षष्ठ दिवस आज्ञा पर हुआ समाहित मन,
प्रतिजप से खिंच खिंच होने लगा महाकर्षण,
संचित त्रिकुटी पर ध्यान द्विदल देवीपद पर,
जप के स्वर लगा काँपने थर थर थर अम्बर।

दो दिन निःस्पन्द एक आसन पर रहे राम,
अर्पित करते इन्दीवर जपते हुए नाम।
आठवाँ दिवस मन ध्यान्युक्त चढ़ता ऊपर
कर गया अतिक्रम ब्रह्मा हरि शंकर का स्तर,
हो गया विजित ब्रह्माण्ड पूर्ण, देवता स्तब्ध,
हो गये दग्ध जीवन के तप के समारब्ध।
रह गया एक इन्दीवर, मन देखता पार
प्रायः करने हुआ दुर्ग जो सहस्रार,
द्विप्रहर, रात्रि, साकार हुई दुर्गा छिपकर
हँस उठा ले गई पूजा का प्रिय इन्दीवर।

यह अन्तिम जप, ध्यान में देखते चरण युगल
राम ने बढ़ाया कर लेने को नीलकमल।
कुछ लगा न हाथ, हुआ सहसा स्थिर मन चंचल,
ध्यान की भूमि से उतरे, खोले पलक विमल।
देखा, वहाँ रिक्त स्थान, यह जप का पूर्ण समय,
आसन छोड़ना असिद्धि, भर गये नयनद्वय,
'धिक् जीवन को जो पाता ही आया है विरोध,
धिक् साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध
जानकी! हाय उद्धार प्रिया का हो न सका,
वह एक और मन रहा राम का जो न थका।
जो नहीं जानता दैन्य, नहीं जानता विनय,
कर गया भेद वह मायावरण प्राप्त कर जय।

बुद्धि के दुर्ग पहुँचा विद्युतगति हतचेतन
राम में जगी स्मृति हुए सजग पा भाव प्रमन।
'यह है उपाय', कह उठे राम ज्यों मन्द्रित घन
'कहती थीं माता मुझको सदा राजीवनयन।
दो नील कमल हैं शेष अभी, यह पुरश्चरण
पूरा करता हूँ देकर मात एक नयन।'
कहकर देखा तूणीर ब्रह्मशर रहा झलक,
ले लिया हस्त लक लक करता वह महाफलक।
ले अस्त्र वाम पर, दक्षिण कर दक्षिण लोचन
ले अर्पित करने को उद्यत हो गये सुमन
जिस क्षण बँध गया बेधने को दृग दृढ़ निश्चय,
काँपा ब्रह्माण्ड, हुआ देवी का त्वरित उदय।

'साधु, साधु, साधक धीर, धर्म-धन धन्य राम!'
कह, लिया भगवती ने राघव का हस्त थाम।
देखा राम ने, सामने श्री दुर्गा, भास्वर
वामपद असुर स्कन्ध पर, रहा दक्षिण हरि पर।
ज्योतिर्मय रूप, हस्त दश विविध अस्त्र सज्जित,
मन्द स्मित मुख, लख हुई विश्व की श्री लज्जित।
हैं दक्षिण में लक्ष्मी, सरस्वती वाम भाग,
दक्षिण गणेश, कार्तिक बायें रणरंग राग,
मस्तक पर शंकर! पदपद्मों पर श्रद्धाभर
श्री राघव हुए प्रणत मन्द स्वरवन्दन कर।


'होगी जय, होगी जय, हे पुरूषोत्तम नवीन।'
कह महाशक्ति राम के वदन में हुई लीन।

3 comments:

मुनीश ( munish ) said...

Thnx for this post ! Jai Dussehra .

Sumit Pratap Singh said...

दशहरे की शुभकामनायें यूं ही
अच्छी-२ रचनाओं का निर्माण करते रहें...

Unknown said...

स्थिर स्पाइडरमैन को हिला रहा फिर-फिर संशय।
रह-रह प्रकट दूरस्थ बीप में विलेन जय भय।।
नारडा हाय उद्धार प्रिया का हो न सका।
वह एक और मन रहा मैन्ड्रेक का जो न थका।।
कहा संकल्पबद्ध हो सुन मेरे यार लोथार।
अगले जन्म, डैड के कंधे पर देखूंगा यह त्यौहार।।