Saturday, October 10, 2009

काग़ज़ का खम्भा या खम्भे का काग़ज़

वह एक जंगल है जिस पर कागज़ से बने एक शेर का शासन चलता है. उस जंगल में कई तरह के प्राणी विचरण किया करते हैं. देश-काल-परिस्थिति बदलने के हिसाब से उनमें से कभी-कभार कोई दूसरा भी शेर की खाल पहन लेता है. शर्त यही होती है कि वह प्राणी कागज़ का बना हो. दरअसल जंगल में रहने वाले सारे जानवर अलग-अलग तरह के कागज़ों से बने होते हैं. उनका काम कागज़ से बने हथियारों की मदद से कागज़ ही से बने एक महल में रहने वाले कागज़ी लोगों के जीवन को सुरक्षित रखना और बेहतर बनाना होता है.

('कागद कथा', भाग एक अध्याय एक से उद्धृत)




(फ़ोटो http://vkman.wordpress.com से साभार)

एक सच्चा वाक़या बयान करता हूं. मेरा एक मित्र अमरीका में नौकरी करता है. साल में एक दफ़ा अपने माता-पिता से मिलने यहां आता है. पिता सरकारी स्कूल में पढ़ाते थे, फ़िलहाल रिटायर हो चुके हैं.

दोस्त के आने की ख़बर सुनकर जाहिर है उस से मिलने उसके घर जाना होता था. अक्सर वह बिजली विभाग के किसी दफ़्तर गया पाया जाता था. और मुझे उसके लौटने तक उस के पिता से सौ बार सुना जा चुका 'रागदरबारी' के लंगड़-प्रकरण सरीखी उनकी एक संघर्षगाथा को पुनः सुनना पड़ता था.

रिटायरमेन्ट के समय मिली पीएफ़ की रकम से साहब ने मैदानी इलाके में एक प्लॉट खरीदा ताकि बुढ़ापे के जाड़ों की धूप सेकने को अपना खुद का एक ठीहा बनाया जा सके. प्लॉट एक परिचित के माध्यम से खरीदा गया. परिचित के किसी चचेरे भाई के किसी दोस्त के किसी प्रॉपर्टी डीलर से सम्बन्ध थे. तो बिना देखे, हर किसी की भलमनसाहत पर भरोसा रखते हुए जो प्लॉट इन्हें मिला उसके बीचोबीच बिजली का ट्रान्सफ़ॉर्मर था. रजिस्ट्री हो चुकी थी, पैसे का धुंआं निकल चुका था. तो पिछले तीन सालों से एक पखवाड़े के लिए घर आए मेरे दोस्त का ज़्यादातर समय बिजली विभाग के बाबुओं से अपने पिता द्वारा उक्त ट्रान्सफ़ॉर्मर को हटाए जाने सम्बन्धी आवेदन का स्टैटस मालूम करने में बीता करता था. कभी बड़ा साहब दौरे पर गया होता, कभी कोई अनापत्ति प्रमाणपत्र कम पड़ जाता.

"दिस कन्ट्री वुड नेवर इम्प्रूव! हू वान्ट्स टु कम टू दिस गटर! आई रादर टेक माई पेरेन्ट्स अलोन्ग नैक्स्ट टाइम!" अमरीका से ही लाई सिन्गल माल्ट व्हिस्की के घूंट लगाता मेरा भारत महान को इसी तरह की लानतें-मलामतें भेजता मित्र किसी शुभ दिन अमरीका चला जाता और पिताजी का प्लॉट बमय ट्रान्सफ़ॉर्मर के बरकरार बना रहता.

यह बेहद इत्तफ़ाकन हुआ कि मेरा एक स्कूली सहपाठी एक पार्टी में टकरा गया जो बिजली महकमे में एक्ज़ीक्यूटिव इंजीनियर बन कर पिछले ही हफ़्ते मेरे शहर पोस्टेड हो कर आया था. अमरीकावासी दोस्त के पिताजी को इस बात की भनक लगने में करीब दसेक दिन लगे और वे बड़ी आशा के साथ अपने शाश्वत बनते जा रहे विद्युतविभागीय दुख की फ़ाइलों का पुलिन्दा यह कह कर मेरे घर छोड़ गए कि बस मेरे दोस्त के एक दस्तख़त से उनका काम बन जाएगा.

अगले ही दिन करीब दस फ़ाइलों का वह पुलिन्दा ले कर मैं अभियन्तामित्र के दफ़्तर गया. उसने फ़ाइलें अपने मातहत किसी कर्मचारी को थमाते हुए कहा कि कामधाम तो होता रहेगा थोड़ा गपशप की जाए.

शाम को उसका फ़ोन आया कि उसने अपने असिस्टेन्ट इंजीनियर को साइट पर भेज कर रपट तैयार करवा ली है और इस काम में प्रार्थी को एक लाख उन्नीस हज़ार रुपये खर्च करने पड़ेंगे क्योंकि ट्रान्सफ़ॉर्मर हटवाने का काम बहुत पेचीदा होता है.

अमरीकावासी मित्र के पिता को बताया तो वे बोले यह रकम तो प्लॉट की कीमत से भी ज़्यादा है. अभियन्तामित्र से मैंने कुछ रियायत करने को कहा तो उसने खुद मौका मुआयना करने का आश्वासन दिया और हफ़्ते भर बाद उक्त रकम को तेईस हज़ार बनाने का चमत्कार कर दिखाया. यह समझौता किये जाने लायक रकम थी.

अगली सुबह जब अमरीकावासी मित्र के पिता रकम लेकर बिजली दफ़्तर पहुंचे तो दोस्त ने उनसे कहा कि अभी पैसा जमा करवाने की आवश्यकता नहीं. उसने यह सलाह भी दी कि फ़िलहाल वे पैसा मेरे पास छोड़ जाएं क्योंकि पता नहीं खम्भों का इन्तज़ाम कब हो जाए. तो साहब यह रकम भी मेरे पास छोड़ दी गई.

उसी शाम अभियन्तामित्र ने अपने घर खाने पर बुलाया. एकाध घन्टे की गपशप के बाद उसे अचानक कुछ याद आया. वह फुसफुसाते हुए बोला: "देखो ये तेरे बुढ़ऊ बहुत शरीफ़ आदमी हैं इसी लिए इनका काम नहीं बनता. अगर मैं इनके पैसे जमा करा लेता तो ऑफ़ीशियली भी इस काम में कम से कम एक साल लगना था. एक तो इनकी एप्लीकेशन अस्सीवें नम्बर पर होती फिर कब कहां से तार आते, कहां से खम्भे और लेबर कब फ़्री होती ... तो ... " उसने आंख मारते हुए कहा: "तेरे परिचित मेरे भी तो कुछ हुए न यार ... ऐसा है तू उनके दस हज़ार रुपए लौटा देना ... कल तक खेत से ट्रान्सफ़ॉर्मर हटा मिलेगा."

मैंने असमंजस और अविश्वास में उसे देखना शुरू किया ही था कि वह बोला: "देख भाई, चाहो तो काम अब भी वैसे ही करवा लो. मगर उसमें कागज़-पत्तर कम पड़े तो फिर अड़ंगा लग सकता है. और क्या पता चुनाव के बाद कहीं मेरा ट्रान्सफ़र हो गया तो! अब काम को ऐसे कराने में क्या हर्ज़ है ... देख, मैं अपना हिस्सा छोड़ रहा हूं ... पर दूसरे इंजीनियर हैं, लाइनमैन हैं, उन्होंने भी तो बच्चे पालने हैं न! और कागज़-पत्तर पर कुछ लिखत-पढ़्त कराने की ज़िद न करें, बोल देना बुढ़ऊ को! फ़िज़ूल काम में अड़ंगा लगेगा."

अगली शाम तक वाकई काम हो चुका था. प्लॉट का ट्रान्सफ़ार्मर हट चुका था, सभी सम्बन्धित 'महोदय' और 'प्रार्थी' पार्टियां सन्तुष्ट थीं. तीन साल तक लंगड़ बनते बनते अमरीकावासी मित्र के पिता की गरदन और पीठ इस लायक नहीं बचे थे कि उन्हें दोबारा सीधा किया जा सके. खैर, जब मैंने उनसे फ़ाइलें वापस ले जाने के बाबत पूछा तो उन्होंने हिकारत से आसमान को देखते हुए कहा: "अरे बेटा खड्डे में डाल सालियों को." अभियन्तामित्र ने इन फ़ाइलों को लेकर जो शब्द इस्तेमाल किए उन्हें यहां लिखा नहीं जा सकता.

(जब अवसर मिलेगा, तभी इसका अगला हिस्सा लिखूंगा. तब तक के लिए जय काग़ज़ देवता की! 'अनन्त रफ़्तार' का आभार.)

7 comments:

मुनीश ( munish ) said...

ऐसा विलक्षण गद्य मैंने कभी नहीं पढ़ा , अनुभव तो ऐसे बहुत हैं . सदस्यों से अनुरोध
है की ये रचना अपने-अपने ब्लॉग पर भी प्रकाशित करें ताकि अधिकतम जनता तक ये पहुंचे
. मैं यमुनोत्री बज़रिये यामाहा महागाथा के उपरांत मयखाने पे इसके प्रकाशन की अनुमति चाहूंगा.
ये अतुल्य-भारत गाथा है और आपका कोई तोड़ नहीं है महाराज .

डॉ .अनुराग said...

बिलकुल रोजमर्रा की घटना सी है ...ओर थानों ओर एक दो जगह की अनुभव .मैंने भी किसी पोस्ट में बांटे है ...इस देश की न्याय प्रणाली जिसे कहते है .कचहरी वहां भी आपका ठीक काम भी पैसे देकर ही होता है.....

Unknown said...

ये है सिलिकन शॉट।
रियल, सर्रियल, सबाल्टर्न यानि चमड़ी और गोश्त के बीच बहते द्रव (खून नहीं) को स्याही बनाकर लिखी गई पोस्ट।

ब्लाग का एक बड़ा काम यह भी है कि वह वहां पहुंचे जहां पापुलर मीडिया सतत पाखंड में जीने की आदत के कारण अभी नहीं जा सकता।

मैं अशोक को थैंक्यू कहता हूं।

मुनीश ( munish ) said...

nice pic. man i mussay ! it says it all !

Unknown said...

मुनीश का मस्सा अच्छा है। क्या पता यह "मस्त से" हो।

Unknown said...

मुनीश का मस्सा अच्छा है। क्या पता यह "मस्त से" हो।

kavita verma said...

sarkari mahakamon ka sajeev chitran . badhaiyan