यह नदी है टौंस. टौंस के बारे में मान्यता यह है कि पौराणिक काल में एक राक्षस का वध किये जाने पर उसका रक्त इस नदी में गिर गया था, जिससे यह दूषित हो गयी. यही वजह है कि इसे तमसा भी कहा जाता है.
पिछले दिनों मैं हिन्दी समाचार एजेंसियों की एक रपट पढ़ रहा था. उसे पढ़कर झटका लगा. मनुष्यों का मनुष्यों को ही अछूत बना देना तो हम देखते-सुनते-पढ़ते आ रहे हैं लेकिन नदियों को अछूत बना देना! वह भी भारत जैसे देश में जहां पेड़-पौधों, नदी-पहाड़ों यहाँ तक कि कण-कण में ईश्वर का वास होना बताया और माना जाता रहा है, माना जाता है! यह रपट उत्तराखंड से सम्बंधित थी
उत्तरकाशी जनपद में दो नदियाँ रुपीन और सुपीन देवाक्यारा के भराड़सर नामक स्थान से निकलती हुई अलग-अलग दिशाओं में प्रवाहित होती हैं. रुपीन फते पट्टी के १४ गाँवों से गुजरती है जबकि पंचगाई, अडोर व भडासू पट्टियों के २८ गाँवों से जाती है. लेकिन इन गाँवों के लोग न तो इन नदियों का पानी पीते हैं और न ही इनसे सिंचाई की जाती है. नैटवाड़ में इन नदियों का संगम होता है और यहीं से इसे टौंस पुकारा जाता है.
लोकमान्यताओं के अनुसार रुपीन, सुपीन और टौंस नदियों का पानी छूना तक प्रतिबंधित किया गया है. वजह धार्मिक मान्यताएं भी हैं. कहते हैं कि त्रेता युग में दरथ हनोल के पास किरमिरी नामक राक्षस एक ताल में रहता था. उसके आतंक से स्थानीय जन बेहद परेशान थे. लोगों के आवाहन पर कश्मीर से महासू देवता यहाँ आये और किरमिरी को युद्ध के लिए ललकारा. भयंकर युद्ध के बाद महासू देव ने आराकोट के समीप सनेल नामक स्थान पर किरमिरी का वध कर दिया. उसका सर नैटवाड़ के पास स्थानीय न्यायदेवता शिव के गण पोखू महाराज के मंदिर के बगल में गिरा जबकि धड़ नदी के किनारे. इससे टौंस नदी के पानी में राक्षस का रक्त घुल गया. तभी से इस नदी को अपवित्र तथा तामसी गुण वाला माना गया है.
एक अन्य मान्यता के अनुसार द्वापर युग में नैटवाड़ के समीप देवरा गाँव में कौरवों व पांडवों के बीच हुए युद्ध के दौरान कौरवों ने भीम के पुत्र घटोत्कच का सिर काट कर इस नदी में फेंक दिया था. इसके चलते भी इस नदी को अछूत माना गया है. मान्यता है कि इस नदी का पानी तामसी होने के कारण शरीर में कई विकार उत्पन्न कर देता है यहाँ तक कि अगर कोई लगातार दस साल तक टौंस का पानी पी ले तो उसे कुष्ठ रोग हो जाएगा!
सामाजिक कार्यकर्त्ता मोहन रावत, सीवी बिजल्वाण, टीकाराम उनियाल और सूरत राणा कहते हैं कि नदी के बारे में उक्त मान्यता सदियों पुरानी है और पौराणिक आख्यानों पर आधारित है. वे कहते हैं कि हालांकि इस नदी के पानी के सम्बन्ध में किसी तरह का वैज्ञानिक शोध नहीं है लेकिन स्थानीय जनता की लोक परम्पराओं में यह मान्यता इस कदर रची बसी हुई है कि कोई भूलकर भी इसका उल्लंघन नहीं करता.
नोट: यह पूरी रपट एजेंसियों की है. इसे यहाँ प्रस्तुत करने के अलावा इसमें मेरा कोई योगदान नहीं है.
2 comments:
संभव है कि लोक मान्यताएं किन्हीं देखे गए दुष्प्रभावों अर्थात empirical evidence पर आधारित हों. इन्हें महज अन्धविश्वास कहना जल्दबाजी होगी. लेख में कुछ स्थानीय लोगों को उद्धृत किया गया है जिनके अनुसार अब तक नदी के पानी की कोई वैज्ञानिक जांच नहीं की गयी है. हो सकता है कि पानी में कोई trace elements हों जिनके कारण लम्बे समय तक पानी का इस्तेमाल करने से बीमारियाँ होती हों. अच्छा तो यह होगा कि पानी की वैज्ञानिक जांच कराई जाए.
विजय भाई यह योगदान क्या कम है कि आपने एक ज्वलंत मसले को उठा दिया है कि नदी की भी अस्पृश्यता खत्म होनी चाहिए और इसके लिए हल्द्वानी वाले भाई अशोक बीड़ा उठायें।
आखिर समाज को विज्ञान की ओर पीठ करके नहीं चलना चाहिए। मुझे नहीं लगता कि नदी अछूत बना देने का कोई वैज्ञानिक कारण होगा।
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