Friday, November 20, 2009

एक दिव्य जलयात्रा



रानी जयचन्द्रन की दो कविताओं के अनुवाद आप 'कबाड़ख़ाना' पर पहले भी देख चुके हैं । उनकी हाल ही में प्रकशित कविता पुस्तक Echoes of Silence में बहुत अच्छी कवितायें हैं। आज इसी संग्रह से एक कविता The Celestial Voyage का अनुवाद प्रस्तुत है।


एक़ दिव्य जलयात्रा / रानी जयचन्द्रन

जब प्रसन्नता से परिपूर्ण मैं
अग्रसर हूँ खेती हुई एक नाव
तो सुनाई दे रही है एक लयबद्ध ताल
क्या यह प्रवाह से भरे जल की ध्वनि है ?
अथवा आवाज है मेरे भीतर हिलोरें मारते आह्लाद की ?
क्या यह स्पंदन है मेरे हृदय का ?
या फिर
कोई आलाप है हाँफते हुए मन - मस्तिष्क का ?

मन्द शीतल हवा
जो संदेशवाहि्का है
पुष्पित होते चंपक की भीनी सुवास की
वही इस क्षण उर्ध्वमान किए जा रही है अंतरात्मा को
स्वर्गिक ऊँचाइयों की ओर
और जिसने मेरे मस्तक पर सजा दिया है
सुबह - सुबह की धुन्ध का दिपदिपाता मुकुट।

घास चरते मृग , चह - चह करते विहग
गीत गाती कोकिल , प्रस्फुटित होते पुष्प
नर्म - नाजुक तृण , छाया बाँटने वाले वॄक्ष
कुमुद की पंखुड़ियों पर जमे हुए तुहिन कण..
समूचे दृश्य को बना रहे हैं देवताओं का उपवन - देवोद्यान
जिसमें अवतरित हो रहा है
स्वर्गिक आभा का सहज सतत समुच्चय।

कोहरे में स्नात सघन वन प्रान्तर से
झाँक रहे हैं सुनहले किरणों के पुंज
रुपहली ढलानों पर फिसल रहा है रश्मित आलोक
जिसकी छुवन से पिघल रही है जमी हुई ओस
और छितरा रही है छोटी- छोटी बूँदें
जो समीरण के वेग में प्रशान्ति भर कर
इस सुन्दर दृश्य को बनाए जा रही हैं एक रहस्यपूर्ण संसार।

मैं सुन रही हूँ...सुन रही हूँ
मन्द हवा की आहट - सरसराहट
बहुत स्पष्ट है
अपनी ही लहरों से भरी यह लोरी
जो मेरे अशक्त अंतस में आह्लाद कर
उसे हिरन की तरह
चौकड़ियाँ भरने को प्रेरित कर रही है लगातार।

क्या मैं लम्बे समय तक खेती रह सकूँगी यह नाव ?
क्या मैं अकेले ही देखती रहूँगी
प्रकृति का यह अनुपम उपहार
यह दृश्य
जिसमें समाहित हुआ है दिव्यता का दिव्य भाव ?

अब जबकि बिन माँझी की मेरी नौका
सौन्दर्य से भरे तट तक पहुँचने से है बस थोड़ी ही दूर
देखती हूँ कि नाविक तो बैठा है बिल्कुल पास
अपनी थपकियों से मेरी व्याकुलता का शमन करता
धीरे - धीरे पतवार चलाता
जैसे रची जा रही हो कोई शोभाकृति चुपचाप.
मेरे ह्रूदयस्थल में अंकुरित होने लग गई हैं
कोमल भावनायें अकस्मात
और पंखों को फैलाकर गंतव्य की ओर भरने लगी हैं उड़ान
मैं स्वयं को समर्पित कर देती हूँ
जैसे कि कोई सजल सरिता
समुद्र की विशालता में हो जाती है विलीन।

प्रेम की वाणी से पूरित चुप्पी और एकान्त ने
प्रार्थनाओं से भर दिया हैं मेरे अंतर्मन को
इस उदात्त ऊष:काल में बह जाने दो मुझे
हो जाने दो मग्न मुग्ध मुदित बेपरवाह।

कोई विघ्न न डाले
वरदान से आप्लावित इस मन:लोक में
कोई नष्ट न कर दे
इस स्वर्गिक संसार को
प्रेम के शाश्वत प्रतीक
कृष्ण की तरह और राधा की तरह
अनश्वरता से सहेज लेने दो इस अद्भुत जलयात्रा को
जो मुझे बनाए जा रही है
तुम्हारा एक सच्चा साथी और एक प्रसन्नचित्त दोस्त।

5 comments:

कामता प्रसाद said...

अभी दस बार और पढूंगा फिर बताऊंगा कि कितनी बार पढ़ने पर यह बासी लगने लगेगी।
साधुवाद।
कहीं से भी अनुवाद नहीं लग रहा है, अगर किसी को लग रहा हो तो बताये।

सागर said...

कुछ ब्लोग्स पर बेहतरीन कविता से रु-ब-रु होता हूँ... यह भी उनमें से एक है... यह कवितायेँ रास्ता दिखाती हैं... साथ ही लेवल रखना भी सिखाती हैं...

Arshia Ali said...

दिव्य यात्रा के दर्शन कर मन प्रसन्न हो गया।
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क्या स्टारवार शुरू होने वाली है?
परी कथा जैसा रोमांचक इंटरनेट का सफर।

मुनीश ( munish ) said...

wish i could be sensible once more to appreciate poetry again ! i am lost perhaps .

Sunder Chand Thakur said...

Munish I too am lost...such a beautiful exploration of nature and human senses...oh...great work..