पहली तस्वीर जसुली दताल की मूर्ति की है बाकी शौका समाज और वहां के लैन्डस्केप. सभी फ़ोटो डॉ. सबीने लीडर के खींचे हुए हैं और एक कॉफ़ीटेबल बुक Uttaranchal: A Cultural Kaleidoscope में छप चुके हैं.
सत्तू की इन पिन्डियों को धलंग कहा जाता है. शौकाओं का कोई भी धार्मिक अनुष्ठान इनके बग़ैर पूर्ण नहीं होता. अनुष्ठान के उपरान्त इनका वितरण प्रसाद के तौर पर किया जाता है.
शौका लोगों के बारे में मेरे पास श्री रतनसिंह रायपा की लिखी हुई एक किताब है. फ़िलहाल उसे एक फ़ोटोग्राफ़र मित्र ले गए हैं. किताब वापस आते ही उसकी डीटेल्स आपको मेल कर दूंगा. किताब धारचूला से छपी है और सम्भवतः अब भी उपलब्ध है.
अशोक जी, पहली बार यही किस्त हाथ लगी तो पीछे जाकर सारी किस्तें एक साथ पढ़ गया. मैं यात्रा वृतांतों का दीवाना हूँ और घर बैठे ही दुनिया भर की सैर कर ली है. आज आपका यात्रा यह वृतांत पढ़कर ऐसा लगा कि राहुल सांस्कृत्यायन जी के साथ फिर तिब्बत यात्रा पर चल पड़ा हूँ. आपकी वर्णन शैली में जो रवानगी है वह दृश्य को जीवंत बना देती है, ऐसा लगता है हम उसका एक हिस्सा बन चुके हैं. अति उत्तम........
जसुली दताल के बारे में मैं इसी सफ़रनामे के तीसरे हिस्से में विस्तार से लिख चुका हूं भाई धीरेश! ये रहा लिंक : http://kabaadkhaana.blogspot.com/2009/11/blog-post_27.html
14 comments:
अशोक जी,
अभी चिट्ठाचर्चा से यहाँ आया हूँ. बाकी पोस्टें भी पढता हूँ. वाकई ये चित्र देखकर तो और पढने की बेचैनी बढ़ गयी हैं.
नयनाभिराम चित्र...आँखें धन्य हुईं...
नीरज
सुन्दर चित्र. शौका लोगों के बारे विस्तार से जानना चाह्ता हूँ. परात मे ये सतू की पिण्डियाँ किस अवसर पर बनती हैं? किसी ईष्ठ के लिए बलि/ भोग है क्या?
अजेय भाई
सत्तू की इन पिन्डियों को धलंग कहा जाता है. शौकाओं का कोई भी धार्मिक अनुष्ठान इनके बग़ैर पूर्ण नहीं होता. अनुष्ठान के उपरान्त इनका वितरण प्रसाद के तौर पर किया जाता है.
शौका लोगों के बारे में मेरे पास श्री रतनसिंह रायपा की लिखी हुई एक किताब है. फ़िलहाल उसे एक फ़ोटोग्राफ़र मित्र ले गए हैं. किताब वापस आते ही उसकी डीटेल्स आपको मेल कर दूंगा. किताब धारचूला से छपी है और सम्भवतः अब भी उपलब्ध है.
अशोक जी, पहली बार यही किस्त हाथ लगी तो पीछे जाकर सारी किस्तें एक साथ पढ़ गया. मैं यात्रा वृतांतों का दीवाना हूँ और घर बैठे ही दुनिया भर की सैर कर ली है. आज आपका यात्रा यह वृतांत पढ़कर ऐसा लगा कि राहुल सांस्कृत्यायन जी के साथ फिर तिब्बत यात्रा पर चल पड़ा हूँ. आपकी वर्णन शैली में जो रवानगी है वह दृश्य को जीवंत बना देती है, ऐसा लगता है हम उसका एक हिस्सा बन चुके हैं. अति उत्तम........
सभी चित्र बोल रहे हैं.
marvellous!
जसुली दताल?
जसुली दताल के बारे में मैं इसी सफ़रनामे के तीसरे हिस्से में विस्तार से लिख चुका हूं भाई धीरेश! ये रहा लिंक : http://kabaadkhaana.blogspot.com/2009/11/blog-post_27.html
30 तारीख के बाद बहुत दिन बीत गए हैं अशोक दा. कहां पड़े हो. अगली किश्त का इंतज़ार है.
pahar kee yatra , khus kitta,
daju darma kaha hai,main bhuat dur samunder ke kinere houn,
वाह! बहुत सुन्दर सजीव चित्र हैं।
घुघूती बासूती
I agree with Nishachar!
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