Wednesday, November 25, 2009

एक हिमालयी यात्रा: पहला हिस्सा

(सन १९९५,१९९६,१९९७,१९९९ और २००० में उत्तराखण्ड के सुदूर हिमालयी क्षेत्र में स्थित व्यांस, चौदांस और दारमा घाटियों में कुल मिलाकर तकरीबन ढाई साल रहकर सबीने और मैंने इन घाटियों में रहनेवाली महान शौका अथवा रं जनजाति की परम्पराओं और लोकगाथाओं पर शोधकार्य किया था. भारत-चीन युद्ध से पहले शौका जनजाति को तिब्बत से व्यापार में एक तरह का वर्चस्व प्राप्त था. ये घुमन्तू लोग गर्मियों में तिब्बत जाकर वहां से नमक, सुहागा, ऊन वगैरह लेकर आते थे और जाड़ों में निचले पहाड़ी कस्बों, गांवों और मैदानी इलाकों में व्यापार किया करते थे. प्रामाणिक दस्तावेज़ तो यहां तक साबित करते हैं कि इनमें से कुछ साहसी व्यापारी कालिम्पोंग, दार्जिलिंग और यहां तक कि कर्नाटक तक पहुंचा करते थे. हमारे पहाड़ों के लोगों ने कई पीढ़ियों तक इन्हीं शौकाओं के लाए नमक पर गुज़ारा किया है.

प्रस्तुत यात्रावृत्त सद्यः प्रकाश्य एक लम्बे सफ़रनामे का अनूदित हिस्सा है. इसमें हम दारमा घाटी के एक गांव दुग्तू से चलकर कुमाऊं गढ़वाल का सबसे ऊंचा दर्रा सिन-ला पार करके व्यांस घाटी पहुंचते हैं.)


दांतू से तीदांग

... अगली सुबह हम सामान बांधकर तीदांग की तरफ़ चल पड़ते हैं. लेकिन पहले हमें सौन और दुग्तू गांवों के लोगों के साथ दांतू गांव में चल रहे मशहूर गबला-मेले में जाना होगा. शौकाओं के अति-आदरणीय गबला देवता का थान दांतू में है. नर्तकों की कतार के साथ-साथ हम एक बार फिर दांतू गांव पहुंचते हैं. आज मेले का अन्तिम दिन है और वॉलीबॉल का फ़ाइनल भी. आई. टी. बी. पी. की टीम किसी गांव के साथ खेल रही है. आई. टी. बी. पी. चौकी के प्रभारी सूबेदार महोदय को इस महत्वपूर्ण अवसर पर मुख्य अतिथि बनाया गया है. बन्दरटोपी धारण किए हुए मुख्य अतिथि के सामने एक टूटी सी मेज़ धरी हुई है और वे स्वयं गन्दी दरी से ढंके एक तखत पर विराजमान हैं. लोगों की भीड़ है और कोलाहल.

दांतू गांव


मुख्य अतिथि करीब पचास के हैं और अवसर के अनुरूप उन्होंने कृत्रिम गरिमा ओढ़ रखी है. हम दोनों दतमलसिंह जी की दुकान पर बैठे अपने पोर्टर जयसिंह के आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं. भीड़ बहुत है इसलिए बिक्री बढ़िया हो रही है. बाकी दिनों यह दुकान बहुत सादगीभरी दिखाई देती है पर आज टॉफ़ी, चूरन, सुपारी, तम्बाकू इत्यादि के प्लास्टिक पाउचों की मालाएं सजी हुई हैं. मुख्य अतिथि ने अभी तक हमें नहीं देखा है. हमारे लिए नूडल्स का नाश्ता बन रहा है. जयसिंह भी सामान लेकर पहुंच चुका है. तथाकथित डाकबंगले का चौकीदार उदयसिंह भी साथ है और सुबह सुबह धुत्त है. दतमलसिंह जी हमें आगे की यात्रा की कठिनाइयों की बाबत चेताते हैं और ध्यान रखने की हिदायत देते हैं.

तीदांग का रास्ता पकड़ने के लिए हमें वॉलीबॉल कोर्ट से होकर गुज़रना होगा क्योंकि और कोई रास्ता है ही नहीं. हमें देखते ही खेल रुक जाता है. मुख्य अतिथि की निगाह जैसे ही हम पर पड़ती है, उन्हें जैसा दौरा पड़ जाता है. वे हमसे करीब बीस मीटर दूर हैं और वहीं से चिल्लाकर "हैलो सर! गुडमॉर्निंग मैडम!" वगैरह करते हैं. फिर हमें पास आने का निमंत्रण दिया जाता है और बाद में कैम्प में लन्च करने का भी. मैं उनकी तरफ़ देखता भी नहीं क्योंकि उनकी आवाज़ बता रही है वे जमकर पिए हुए हैं. वे ऐसी अंग्रेज़ी बोल रहे हैं जिसे खूब दारू पीकर अंग्रेज़ी न जाननेवाले धाराप्रवाह बोला करते हैं. हम बिना रुके, बिना इधर-उधर देखे चलते जाते हैं - वे चीखते रहते हैं. मुझे अपनी पीठ पर सैकड़ों निगाहों की गड़न महसूस हो रही है. सबीने कुछ उखड़ गई सी दीखती है पर मैं उससे चलते रहने का निवेदन करता हूं. बारिश आने से पहले-पहले हमें अपने गन्तव्य तक पहुंच जाना चाहिए.

उदयसिंह अब भी हमारे साथ है. हालांकि हमने उसके गैस्टहाउस में रहने-खाने का हिसाब कर दिया है पर उसका अनुग्रह है कि वह जहां तक मुमकिन हो हमारे साथ आना चाहता है क्योंकि इसके बाद शायद हम दोबारा दारमा घाटी कभी न आएं. उसने खूब च्यक्ती (स्थानीय शराब) पी रखी है और खूब भावुक हो रहा है. करीब एक किलोमीटर तक हमारे साथ चलने के बाद वह हमें सावधानी बरतने की हिदायत देता है और अन्ततः विदा लेता है. वह मुझसे हाथ मिलाता है और फिर जयसिंह से भाइयों की तरह गले मिलता है. फिर हमें दोबारा दारमा आने का न्यौता देता है और बताता है कि हम भले लोग हैं.

वह भरी भरी आंखों से हमें देख रहा है. हम करीब पन्द्रह दिन उसके साथ रहे हैं. मैं पचास का एक नोट उसकी तरफ़ बढ़ाता हूं - वह साफ़ मना कर देता है. मैं कहता हूं कि वह बच्चों की मिठाई के लिए है. वह कुछ नहीं कहता पर उसकी आंखें आंसुओं से भर जाती हैं. मैं आगे बढ़कर उसे गले लगा लेता हूं और पचास के नोट पर ज़ोर नहीं देता. अब वह खुश लगता है. सबीने मुस्करा कर कहती है: "अच्चा उदैसिंह जी!"

...

रास्ते में केवल एक गांव पड़ता है. ढाकर सम्भवतः पूरे दारमा की सबसे छोटी बसासत है. इस साल एक या दो परिवार ही गर्मियों के लिए ऊपर आए हैं.

बरसातों में धौलीगंगा



करीब आठ किलोमीटर धलीगंगा के किनारे किनारे मुलायम ऊंचाई चढ़ते हुए हम तीदांग में हैं. रास्ते भर हमें कोई भी नहीं मिला. तीदांग पहुंचने से पहले हमें दूर पल्थी के गुलाबी खेतों की धुंधली छटा दिखलाई देती है - ये इस घाटी के अन्तिम गांव हैं - सीपू और मारछा.

तीदांग


तीदांग में मकानों की दो या तीन कतारें हैं. इन्हीं में से किसी एक में मेरा संगीतकार - अध्यापक दोस्त भुवन पांडे रहता है. वह हमें स्कूल में मिलता है. एक कमरे के स्कूल में कोई दर्ज़न भर बच्चे पढ़ते हैं - पहली से आठवीं तक - भुवन इकलौता अध्यापक है. (जारी है)

(तीदांग और दांतू के फ़ोटो http://sadanandsafar.blogspot.com से साभार)

12 comments:

मनोज कुमार said...

दिलचस्प

विजय गौड़ said...
This comment has been removed by the author.
Dr. Zakir Ali Rajnish said...

बहुत ही जीवंत संस्मरण।
जारी रखिए।

-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

विजय गौड़ said...

सिनला के टाप तक एक बार जाना हुआ- व्यास घाटी से होते हुए। कोटी के बाद आई टी बी पी चैक पोस्ट पर हमारे पास जमा थे वरना दारमा घाटी में उतर जाते। उसके पहले वाले साल बर्फ़ बारी में, जब आई टी बी पी के जवान पोस्ट बन्द कर कोटी आ रहे थे, हताहत हो चुके थे, खौफ़ अगले वर्ष पोस्ट खुलने तक बना हुआ था। रैकी टीम ने सिनला पार नहीं किया था। लिहाजा आई टी बी पी हमें यूंहीं निकल जाने नहीं देना चाहती थी।
खैर, फ़िर कभी जाना हुआ तो देखा जाएगा पर आपका यह संस्मरण तो उस पार को दिखा ही रहा है।

Sunder Chand Thakur said...

Ashok tumahre sansmaran hamesha hi bahut achche lage hain. is sansmaran ko padhne laga to ye bahut jaldi khatm ho gaya. isliye nivedan hai ki kuch lambe sansmaran dalo. Tasviron ke saath sansmaran padhane ka maza hi kuch aur hai...aur woh bhi himalaya ki yatra ka...khusnaseeb ho...yahi himalaya tumhe bachaye hue hai...irshya hoti hai tumse aur garoor bhi ki aisa kabit dost hai...jio beta ek swastha jeewan..ek creative jeewan jio...

Anil Pusadkar said...

शानदार्।

अजेय said...

मज़ा आया. मानो लेखक मेरे ही गाँव आ रहे हों. बहुत से शब्द अपनी बोली के पहचान पाया.यथा- डबला, तिदांग, चग्ति, .... मैं ने उत्तराखंड के ये सुदूर क्षेत्र नही देखे. लेकिन पढ़ - सुन कर बार बार महसूस किया है यहाँ के निवासियो का मेरे पुर्खों से ज़रूर कोई नज़दीकी रिश्ता रहा होगा. कभी विजय गौड़ के साथ घूमूँगा ये पूरा देश.
जारी रहें, पहाड़ देख कर इधर झाँका था, अब पूरा देख कर ही रहूँगा.

Anonymous said...

Pahle bhi kaha tha... pata nahin pahuncha ki nahin? Fir suno...

Apne paas
Bahut khoobsoorat haokar
Lautne ke liye...
Tum har maati se guzro...

Haan mere hamsafar...
Meare Yaayaawar...

Tum har oonchi neechi
Ghaati se guzro...

Love...
Beyond Himalayas...

Snowa Borno

Ek ziddi dhun said...

Ashok bhai, achche admi ka certificate mil gaya, jarur Udya singh bhala admi hoga.
`Koi sada hi use sada kahe
Lage hai hamen to......`
S. Thakur sahi kah rahe hain. aise kabil admi ko swasthy ka khyal karte hue jyada kam karna chahiye

मुनीश ( munish ) said...

For the first time someone is opening up an entire new civilization in Blogosphere! Historic ! Matchless ! A very account Engrossing indeed !

मुनीश ( munish ) said...

A very engrossing account of journey ,sure !

नीरज गोस्वामी said...

क्षमा करें मैं देर से आया लेकिन आँखें तृप्त हो गयीं...फोटो और वर्णन दोनों कमाल के हैं...
नीरज