Sunday, December 13, 2009

एक हिमालयी यात्रा: सातवां हिस्सा





(पिछली किस्त से जारी)

हम अपने जूते उतारते हैं. पैरों में ज़रा ज़रा सनसनी महसूस होती है अलबत्ता बर्फ़ उन्हें पत्थर बना चुकी है. इगलू के भीतर एक बड़ा सा आईना है. सोलर लालटेन की मद्धम रोशनी में मैं अपना प्रतिविम्ब देखता हूं. ऐसा लगता है पिंडारियों के किसी गिरोह ने मेरी ज़बरदस्त ठुकाई की है.

सबीने मुझे खुद को आईने में देखता हुआ देखती है और हंसने लगती है: "नो चान्स फ़ॉर यू नाउ, चोको! नो मोर प्रेटी कुमाऊंनी वाइफ़ फ़ॉर यू! हू वुड मैरी सच एन अगली येती! ..."

"पहले तुम अपनी नाक देखो ..." चिढ़ाने की बारी अब मेरी है. दरवाज़े पर खटखट होती है और एक लड़का दो बाल्टियों में गर्म पानी लेकर भीतर आता है.

वह बाल्टी रखकर जाने ही को है जब बाहर हल्लागुल्ला सुनाई देता है. सुनाई दे रही आवाज़ों में एक आवाज़ जयसिंह की जैसी लगती है.

बाहर जाकर देखता हूं. जयसिंह को कोई आधा दर्ज़न सिपाही घेरे हैं - सारे के सारे धुत्त. आंखों में आंसू भरे जयसिंह भय से कांप रहा है. सिपाहियों ने बेबात जयसिंह को अपमानित और परेशान किया है. चरवाहों के तम्बुओं से वापस कैम्प की तरफ़ लौटते उसे इन टुन्न सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया और उससे परमिट वगैरह की बाबत फ़िज़ूल सवालात किए. जब तक बिचारा कुछ समझ पाता उसे गिरफ़्तार किए जाने का फ़रमान सुना दिया गया. मुझे पक्का यकीन है उन्होंने जयसिंह के साथ हाथापाई भी की होगी.

मैं सिपाहियों को सारे कागज़ात दिखाकर चेताता हूं कि वापस पिथौरागढ़ और दिल्ली जाकर मैं उच्चाधिकारियों तक इस वाकये की रपट लिखवाऊंगा. इसका असर फ़ौरी होता है और वे नकली माफ़ी मांग कर अपने रास्ते निकल जाते हैं. चलो आखिरकार सब सुलझ तो गया - मैं जयसिंह की पीठ थपथपाता हूं

इगलू के दरवाज़े पर एक बार फिर खटखट होती है. इस बार करीब एक दर्ज़न सिपाही अपने कमान्डैन्ट के साथ सामने हैं. कमान्डैन्ट का व्यक्तित्व इस कदर बेहूदा और मनहूस है ... वह कोई पचास-बावन साल का है और चालढाल में भारतीय सेना के फ़ील्डमार्शल की हज़ारवीं कार्बन कॉपी के ठसके का बदतमीज़ प्रदर्शन करने के कुटैव से पीड़ित है. इस कार्य को अंजाम देने के लिए सस्ती उबकाईभरी रम का प्रचुर इस्तेमाल भी किया गया है.

"क्या मैं आपके पेपर्स देख सकता हूं, सर?"

मेरी खीझ अपनी हद पार करने को है.

"ज़रूर. पर मुझे लगता है कि आप यह काम कल करते तो कहीं बेहतर होता." इस बार सबीने कमान्डैन्ट से ढिठाई से कहती है.

"देखिये यह एक वर्जित इलाका है और बगैर सही काग़ज़ात के यहां कोई नहीं घूम सकता."

"मुझे मालूम है सर और हम पिछले दो महीनों से इस इलाके में घूम रहे हैं. और रही बात काग़ज़ात की ..."

सबीने कागज़ात लेकर तैयार है. कमान्डैन्ट अफ़सर जैसा दिखने की भरपूर कोशिश कर रहा है.

"हम्म! कागज़ तो ठीक लग रहे हैं ... मगर ..." वह किसी न किसी बहाने से कुछ कमी निकालने की फ़िराक में लगा हुआ है ... "अपके परमिट में आपके पोर्टर का नाम दर्ज़ नहीं है."

"जयसिंह जी पांगला के नज़दीक दंदौला गांव के रहनेवाले हैं और नियमों के हिसाब से स्थानीय लोगों को किसी परमिट इत्यादि की ज़रूरत नहीं पड़ती. और आपको कोई और शंका है तो कृपा करके अपने उच्चाधिकारियों से बात करे. अभी हम थोड़ा आराम करना चाहेंगे. थैंक्यू सो मच."

खीझ और गुस्से में मैं पलटता हूं. वह सबीने से कह रहा है - "मैं चाहूंगा कि कल किसी वक्त आकर आप हमारे कैम्प में अपने नाम रजिस्टर करवाने आएं."

इतनी भीषण यात्रा के बाद इस गैरज़रूरी घटना ने जी खट्टा कर दिया है. मैं ज़ोर ज़ोर से कमान्डैन्ट और उसकी टुन्नटुकड़ी को करीब दस लाख गालियां समर्पित करता हूं. बीदांग में गिफ़्ट में मिली व्हिस्की की बची हुई बोतल इस सत्कर्म को अंजाम देने हेतु अनुप्रेरक का काम करती है.

(जारी)

3 comments:

Himachal Mittra said...

मोहित चौहान का गाया ओ आमा जी वाला लोक गीत मुझे भी बहुत पसंद है. दूसरी पंक्ति में दुबड़ी नहीं तू बड़ी शब्‍द है. इस गीत का पाठ और मोहित के बारे में थोड़ी सी जानकारी हमने इस बार के हिमाचल मित्र (शरद अंक) में दी है. इस लिंक पर यह पेज देखा जा सकता है - http://himachalmitra.com/1209/20%20Pahari%20kalam%20lokgeet.pdf

मुनीश ( munish ) said...

This permit, inspector Raj is one of the reasons for making border populace alineated . Either It must end or be made traveller-friendly.

अजेय said...

anoop jee kaa bhool sudhaar:

प्रिय अजेय जी,
धन्‍यवाद.
मैं ही गलत हूं. यू ट्यूब में यह गीत सुन सुन कर मैंने ही यह पाठ बना डाला और कबाड़ी मित्रों के बीच भी दखल दिया. भाई सिद्धेश्‍वर जी से भी माफी मांगता हूं.
अजेय, आपकी प्रतिक्रिया पढ़कर मैंने मंडी में केशव चंद्र जी को फोन किया. उनके कहने पर चंबा में विजय शर्मा जी से बात की. आपके पाठ की पुष्टि हुई.
अब मेरे दिमाग की खिड़की खुली. मैं सोचता था. बेटी बड़ी हो गई, प्रेम में पड़ गई. लेकिन मामला यह नहीं है, नायिका प्रेम में दुबली हुई है.
खेद इस बात का भी है कि हमने हिमाचल मित्र में 'तू बड़ी' वाला ही पाठ छापा है. अगले अंक में इस भूल का सुधार करना होगा. भाई विजय शर्मा से निवेदन किया है कि इसका प्रामाणिक या प्रचलित पाठ हमें उपलब्‍ध करा दें.
इस प्रसंग से यह सबक भी मिला कि लोक गीतों के पाठ को किसी जानकार व्‍यक्ति से लेना चाहिए. और सबसे बड़ा सबक यह कि खुद को हरफन मौला समझने की बेवकूफी नहीं करनी चाहिए.
क्षमा और आभार
अनूप