Thursday, December 24, 2009
मिर्ज़ा ग़ालिब को सुनिये रफ़ी साहब की आवाज़ में
आज मोहम्मद रफ़ी साहब का जन्मदिन है. इस मौक़े पर सुनिये उनकी गाईं मिर्ज़ा असदुल्ला ख़ां याने चचा ग़ालिब की चन्द ग़ज़लें.
बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल है दुनिया मेरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे
इक खेल है औरंग-ए-सुलेमाँ मेरे नज़दीक
इक बात है ऐजाज़-ए-मसीहा मेरे आगे
होता है निहाँ गर्द में सहरा मेरे होते
घिसता है जबीं ख़ाक पे दरिया मेरे आगे
मत पूछ के क्या हाल है मेरा तेरे पीछे
तू देख के क्या रंग है तेरा मेरे आगे
ईमाँ मुझे रोके है जो खींचे है मुझे कुफ़्र
काबा मेरे पीछे है कलीसा मेरे आगे
गो हाथ को जुम्बिश नहीं आँखों में तो दम है
रहने दो अभी साग़र-ओ-मीना मेरे आगे
मुद्दत हुई है यार को महमाँ किये हुए
जोश-ए-क़दह से बज़्म चराग़ाँ किये हुए
माँगे है फिर किसी को लब-ए-बाम पर हवस
ज़ुल्फ़-ए-सियाह रुख़ पे परेशाँ किये हुए
इक नौबहार-ए-नाज़ को ताके है फिर निगाह
चेहर फ़ुरोग़-ए-मै से गुलिस्ताँ किये हुए
जी ढूँढता है फिर वही फ़ुर्सत के रात दिन
बैठे रहें तसव्वुर-ए-जानाँ किये हुए
"ग़ालिब" हमें न छेड़ कि फिर जोश-ए-अश्क से
बैठे हैं हम तहय्या-ए-तूफ़ाँ किये हुए
ज़िक्र उस परीवश का और फिर बयाँ अपना
बन गया रक़ीब आख़िर था जो राज़दाँ अपना
मंज़र इक बुलंदी पर और हम बना सकते
अर्श से इधर होता काश के मकाँ अपना
दर्द-ए-दिल लिखूँ कब तक, ज़ाऊँ उन को दिखला दूँ
उँगलियाँ फ़िगार अपनी ख़ामाख़ूँचकाँ अपना
हम कहाँ के दाना थे किस हुनर में यक्ता थे
बेसबब हुआ "ग़ालिब" दुश्मन आस्माँ अपना
*अपने शानदार कबाड़ी भाई संजय पटेल ने आज के मौके पर एक शानदार पोस्ट लगाई है. पढ़ें ज़रूर:
रफ़ी साहब के ड्रायवर अल्ताफ़ भाई की यादें
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3 comments:
Laajawaab.
Bahut Bahut Aabhaar.
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2009 के श्रेष्ठ ब्लागर्स सम्मान!
अंग्रेज़ी का तिलिस्म तोड़ने की माया।
दादा क्या कमाल की चीज़ लगाई है आपने. रफ़ी के साथ मज़ा ये है कि वे गाते गाते तलफ़्फ़ुज़ की डिक्शनरी बन जाते हैं.मजाल है कि गायकी के हुनर दिखाते वक़्त शब्द क़ुर्बान हो जाएँ.आज ही एक विवाह समारोह में आकाशवाणी इन्दौर के सेवानिवृत्त अधिकारी और कुमार गंधर्व के शिष्य श्री नरेन्द्र पण्डित मिल गए. वे देवास में रहते हैं. इसी देवास में एक और हस्ती थी उस्ताद रज्जब अली ख़ा साहब. बड़े सख़्त तबियत के गायक . पण्डितजी ने उनसे भी सीखा. गालियों से बात करते थे ख़ाँ साहब. सूफ़ियाना तेवर थे उनके. कभी कोई फ़िल्म नहीं देखने गए. एक ही फ़िल्म देखी हातिमताई और सिर्फ़ इसलिये कि उसमें रफ़ी साहब का गाया परवरदिगारे आलम तेरा ही सहारा....सुनना था और पण्डितजी बताते बताते आज सिसकने लगे कि इस नग़्मे को सुनकर ख़ाँ साहब रज्जब अली ख़ाँ दहाड़े मार कर रोने लगे. शेर जैसी दहाड़ वाला उस्ताद ...रफ़ी साहब की मलमली आवाज़ पर आँसू बहा रहा था....तो दादा ये था रफ़ी साहब का असली सवाब जो काशी क़ाबे की यात्रा से भी बड़ा था किसी गुलूकार के लिये.
गो हाथ को जुम्बिश नहीं आँखों में तो दम है
रहने दो अभी साग़र-ओ-मीना मेरे आगे
my fav.
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