Wednesday, January 6, 2010

वर्ष २०१०: 'शब्दों के गढ़ों और मठों से बाहर आयें साहित्यकार'

आबिद सुरती, प्रोफ़ेसर कमला प्रसाद और निदा फाज़ली की नए साल पर दी गयी राय को लेकर हमें मिली प्रीतेश बारहठ की टिप्पणी उत्साहित करती है. उन्होंने लिखा है- 'मेरा मानना यह है कि प्रतिभाशाली लोग थोड़े में छलकते नहीं हैं, उनकी दृष्टि हमेशा गहरी और व्यापक होती है इसलिये किसी साहित्यकार का नववर्ष के उत्सवों में नाचना तो संभव नहीं है, इनसे सूखे आशावाद के नाम पर गाना भी नहीं गवाया जा सकता है. लेकिन इस बहाने इन्हें कुरेदकर आप जो राह पूछ रहे हैं वही श्रेष्ठ है, क्योंकि चुप्पी टूटेगी तो बदलाव की आशा भी जागेगी, तब तारीख़ के साथ शायद दिन भी बदले.' आज प्रस्तुत हैं यह रायशुमारी-


लीलाधर जगूड़ी (वरिष्ठ कवि): एक उम्मीद तो यही है कि साल २००९ में जो काम नहीं कर सका वे २०१० में जरूर कर सकूंगा. दूसरी उम्मीद यह करता हूँ कि साल २०१० साल २००९ की पुनरावृत्ति न हो. मैं चाहता हूँ की खेती-बाड़ी और बागवानी संबंधी उत्पादनों के बारे में भारत में एक नयी शुरुआत हो. राष्ट्रीयता के बारे में विचारों को लेकर बदलाव आना चाहिए. अब अपनी-अपनी अंतरराष्ट्रीयता न हो बल्कि सबकी एक जैसी अंतरराष्ट्रीयता हो तो अच्छा होगा. हम राष्ट्रों के नागरिक होते हुए भी विश्व नागरिकता की और बढ़ सकें तो संयुक्त राष्ट्र संघ को वीजा जारी करने का अधिकार मिल जाएगा...वरना काहे का संयुक्त राष्ट्र संघ?

साहित्य जगत में इस समय मुझे दो ख़तरे स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं जो २००९ ने पैदा नहीं किये लेकिन २००९ में वे पुख्ता अवश्य हुए हैं. एक तो कविता के प्रति लगावाहीनता की बात जाहिर की गयी है जो एक अभिशाप से कम नहीं है. कवियों को कविता की ताकत और उसकी लोकप्रियता के बारे में फिर से सोचना चाहिए. दूसरा खतरा यह है कि गद्य को कविता की शक्ति से वंचित किया जा रहा है. यह गद्य के लिए शुभ लक्षण नहीं है. साहित्य अपनी तमाम विधाओं में आगे बढ़ता हुआ नहीं दिख रहा है. उम्मीद है कि २०१० में निबंधों और नाटकों की एक नयी शुरुआत होगी ताकि गद्य में काव्य-गुण बचा रह सके.


चंद्रकांत देवताले (वरिष्ठ कवि): जो उम्मीदें १९५० में थीं वे निरंतर कम होती जा रही हैं. भले ही लोग मुझे निराशावादी होने के कटघरे में खड़ा कर दें, इस देश की वास्तविक जनता के लिए मुझे २०१० में कोई उम्मीद नज़र नहीं आती. यह सारा तमाशा अर्थशास्त्र का हो रहा है और ज़िंदगी की बुनियादी समस्याएं नेपथ्य में ढंकी हुई हैं.

भविष्य में मैं चाहूंगा कि शिक्षा के सामान अवसर हों. जो शिक्षा अमीर आदमी के बेटे-बेटियों को मिलती है वही इस देश के गरीब आदमी के बच्चों को मिलना चाहिए. स्वास्थ्य सुविधाएं, स्वच्छता की सुविधाएं गाँवों, दलित बस्तियों और झुग्गी-झोपड़ियों में...सब जगह एक जैसी होना चाहिए. जनता के प्रतिनिधि, वे चाहे संसद में हों या विधानसभाओं में...यदि वे सदन का बहिष्कार करते हैं तो राष्ट्रीय संवैधानिक शपथ की अवमानना के आरोप में उन पर मुक़दमा चलाया जाए और उनकी सदस्यता समाप्त की जाए. न्याय-प्रणाली का जो अन्याय गरीब, कमज़ोर और असमर्थ लोग भुगत रहे हैं, वह तुरंत समाप्त होना चाहिए. यह सपना पूरा होना बहुत कठिन है, इसलिए मुझे अधिक उम्मीद नज़र नहीं आती.

साहित्य बिरादरी से मैं यही अपेक्षा करूंगा कि वे शब्दों के गढ़ों और मठों से बाहर आयें तथा जितना संभव हो, अपना प्रतिरोध सड़क पर दर्ज़ कराएं.

पंकज बिष्ट (कथाकार-उपन्यासकार): मैं उम्मीद करता हूँ कि हमारे शासक वर्ग में बेहतर समझ जाग्रत होगी. दूसरी ओर मैं देश की आम जनता से भी उम्मीद करता हूँ कि अगले वर्षों में वह अपने अधिकारों के प्रति अधिक सचेत होगी और अपने साथी नागरिकों के प्रति एक न्यायिक दृष्टिकोण अपनाएगी.

देश की आर्थिक नीतियों से जो वर्ग सबसे ज्यादा लाभान्वित है, उसे यह समझना चाहिए कि यह सब किसकी कीमत पर हो रहा है. लोग विस्थापित हो रहे हैं, उनकी ज़मीनें छीनी जा रही हैं. अगर विकास इस कीमत पर हो रहा है तो चेत जाना चाहिए. अगर लोगों को जीने के अधिकार नहीं मिलेंगे तो जो तथाकथित आर्थिक सफलताएं इस राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था में नज़र आ रही हैं, वे ज्यादा दिन नहीं टिकेंगी.

हिन्दी साहित्य के सम्बन्ध में मैं यह चाहता हूँ कि इसकी सरकारों पर निर्भरता घटे. सबसे बड़ी बात मैं यह देखना चाहूंगा कि सरकार द्वारा हो रही पुस्तकों की थोक खरीद बंद हो. इस प्रवृत्ति ने पूरे हिन्दी साहित्य को ख़त्म कर दिया है. अगर हमें अपने साहित्य को बचाना है तो हमारी पुस्तकों का वास्तविक ख़रीदार पाठक-वर्ग तैयार करना होगा.


डॉक्टर विजय बहादुर सिंह (आलोचक, सम्पादक 'वागर्थ'): साल २०१० में लगता है कि लोगों का क्षोभ और ग़ुस्सा बढ़ेगा. न्याय की आकांक्षा ज्यादा प्रबल होगी. जनतांत्रिक संस्थाएं और उसकी जो प्रक्रिया है, उनकी नैतिक उपस्थिति पर लोग संदेह से भरते चले जायेंगे.

सोच रहा हूँ कि आज़ादी के बाद से समाज का लोप हुआ है और सत्ता समाजभक्षी ताक़त के रूप में सामने आयी है. मजबूर होकर लोगों को इस समाज को ज़िन्दा करना होगा ताकि सरकारें समाज के गर्भ से ही पैदा हो सकें. अगर ऐसा होगा तभी कुछ उम्मीद की जा सकती है.

साहित्य से मैं हमेशा यह कामना करता हूँ कि वह लोगों के संघर्ष की क्षमता को और अधिक उद्दीप्त करे. वह लोकचित्त के अधिक करीब आये. ऐसा तभी संभव है जब रचनाकार अपने ज़मीनी यथार्थ को अपनी स्वाधीन आँखों से देखने का सामर्थ्य प्रदर्शित करेगा.


राजेश जोशी (वरिष्ठ कवि): इच्छा तो होती है कि देश में बहुत सारी जो चीज़ें बरसों से अनसुलझी पड़ी हैं उन्हें सुलझाया जाए. उम्मीद है कि आतंकवाद के खिलाफ़ जो लम्बी लड़ाई चल रही है, उसका सकारात्मक हल २०१० में निकलेगा और दुनिया से इस तरह की हिंसा समाप्त होगी. हम कामना करते हैं कि विकास के रास्ते पर देश इस ढंग से चले कि बेकारी, गरीबी और हर तरह की असमानता दूर हो. रोज़गार के नए-नए अवसर पैदा हों.

एक बात गौर करने लायक है कि सांस्कृतिक स्तर पर साल २००९ बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण गुज़रा है. पूरे साल व्यर्थ की उठापटक चलती रही है, संगठनों एवं साहित्यकारों को लेकर विवाद हुए हैं. ज्यादा सृजनात्मक कार्य नहीं हुआ. अकादमियां भी निरर्थक ढंग के विवादों में घिर गयी हैं. इस पर सरकारों को गंभीरता से सोचना चाहिए और इसे सुधारना भी चाहिए. अकादमियां सृजन और कला से जुड़ी होती है इसलिए उन्हें संचालित करने की जिम्मेदारी इसी क्षेत्र से जुड़े लोगों को सौपना चाहिए. मेरा यह भी कहना है कि जिस तरह दिल्ली साहित्य अकादमी का अध्यक्ष अशोक चक्रधर को बनाया गया वह ठीक नहीं हुआ. दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित एक समझदार राजनीतिज्ञ हैं लेकिन इस मामले में उनकी हठधर्मिता गैरवाजिब थी. चक्रधर मेरे मित्र हैं, पढ़े-लिखे व्यक्ति हैं लेकिन वह हिन्दी काव्य-मंचों के लोकप्रिय कवि हैं. हिन्दी साहित्य अकादमी एक गंभीर साहित्यिक संस्थान है. उसमें किसी गंभीर साहित्यकर्मी को लाना चाहिए था.

.......(जारी)

5 comments:

Ashok Pande said...

देवताले जी की बात से पूरा इत्तेफ़ाक.

अच्छी सीरीज़ शुरू की है आपने, विजय भाई. शुक्रिया. पाठकों की राय भी ज़रूर लें. मेरी राय में साहित्यकारों को आईना दिखाने वाला वर्ग भी उतना ही ज़रूरी है.

मनोज कुमार said...

बहुत अच्छा लग रहा है इतने विद्वजनों की बातें पढ़कर सुनकर। आपको साधुवाद।

वाणी गीत said...

एक साथ इतने वरिष्ठ साहित्यकारों के विचार जानकर अच्छा लगा ...!!

Ashok Kumar pandey said...

आर्थिक क्षेत्र में तो यह सच ही है कि अभी कहीं कोई उम्मीद की किरण नहीं दिख रही। सामाजिक क्षेत्र में भी पुनरुत्थानवादी ताकतों के बरक्स कोई वैकल्पिक समाज निर्माण की तैयारी स्पष्ट नहीं दिखाई देती पर कोशिशे पूरी ईमानदारी से हो रही हैं इसमे कोई दोराय नहीं

साहित्य में तो यही बहुत है कि पुरस्कार और मठाधीशों के की जगह साहित्य बहस के केन्द्र में आये। आमीन!!!

मुनीश ( munish ) said...

Itz definitely reassuring to read the valuable comments of all the big honchos of literary circuit here. i think its possible on Kabaadkhaana only.