Friday, February 19, 2010

मेरी जिंदगी में किताबें - 2


छुटपन से ही पापा तरह-तरह की किताबें लाकर मुझे देते थे। उनमें लिखी कहानियां मैंने सैकड़ों बार पढ़ी थीं। रोम का वह दास, जिसे भूखे शेर के सामने छोड़ दिया गया था और शेर उसे खाने के बजाय उसके पैरों के पास बैठकर उसके तलवे चाटने लगा था, क्‍योंकि बहुत साल पहले जब वो शेर घायल था, एंड्रोक्‍लीज ने उसके पैरों में से कांटा निकाला था। शेर ने उसे नहीं खाया। वो कहानी मैं रोज एक बार जरूर पढ़ती थी।

पापा के पास रूसी कहानियों की एक किताब थी। एक किताब धरती और आकाश के बारे में थी, जिसमें जर्दानो ब्रूनो, कोपरनिकस और गैलीलियो की कहानियां थीं। जर्दानो ब्रूनो को लंबे-लंबे चोगे पहने और हाथों में क्रॉस लिए पादरियों ने इसलिए जिंदा जला दिया था क्‍योंकि वो कहता था कि अंतरिक्ष का केंद्र पृथ्‍वी नहीं सूर्य है। किताब में लिखा था कि ब्रूनो बाइबिल के खिलाफ बोलता था। मैंने बाइबिल नहीं पढ़ी थी, लेकिन दस साल की उमर में ब्रूनो की कहानी पढ़ने के बाद ही मैंने जाना कि धर्म और मुल्‍कों की सत्‍ताओं पर बैठे लोगों के साथ कितने बेगुनाहों के खून से रंगे थे। उन्‍हीं के कारण कोपरनिकस ने कभी वो नहीं कहा, जो उसे लगता था कि सच है और गैलीलियो ने डरकर माफी मांग ली थी, लेकिन फिर भी उन लोगों ने उसे जेल में डाल दिया था। पापा के पास और भी बहुत सारी कहानियां थीं।

मैं उन कहानियों के साथ बड़ी हुई, जिनमें लिखी हुई हर बात जिंदगी की असल किताब में गलत साबित होने वाली थी, फिर भी उन कहानियों पर मेरा विश्‍वास आज भी कायम है। असल जिंदगी में कॉरपोरेटों में बैठा शेर एंड्रोक्‍लीजों को भी खा जाता है। फिर भी मैं चाहूंगी कि मेरा बच्‍चा एंड्रोक्‍लीज की कहानी पढ़कर बड़ा हो और वो एंड्रोक्‍लीज पर भरोसा करे।

किताबें पापा की सबसे अच्‍छी दोस्‍त थीं। वो कहते थे कि उत्‍तर प्रदेश के जिला प्रतापगढ़ के जिस छोटे से गांव में वो पैदा हुए थे, वहां से होकर उनके बेहतर इंसान बनने का सारा सफर इन्‍हीं किताबों से होकर गुजरा था। मुझे भी एक बेहतर इंसान बनना था, इसलिए मैंने उन किताबों को हमेशा अपने पास संभालकर रखा, जिन्‍होंने सबसे कमजोर और अवसाद के क्षणों में हमेशा मेरा साथ निभाया। उन किताबों को हमेशा ऐसे सहलाया, दुलराया और अपनी छाती से लगाया, मानो वही मेरी प्रेमी हों। वही मुझे संसार के सब गूढ़, अजाने इलाकों तक लेकर जाएंगी, सृष्टि के अभेद्य रहस्‍यों का भेद खोलेंगी। वो मुझे ऐसे प्रेम करेंगी, जैसा प्रेम के बारे में मैंने सिर्फ किताबों में पढ़ा था।

कभी साहित्‍य और राजनीति का गढ़ कहे जाने वाले शहर इलाहाबाद के ऑक्‍सफोर्ड में जहां मैंने बीए तक पढ़ाई की, वहां तब तक पढ़ने-लिखने का कुछ संस्‍कार बाकी था। जिनके भी साथ मेरी दांत कटी यारी थी, वो सब किताबों से वैसे ही मुहब्‍बत करते थे। कोई अंबानी नहीं था और न शहर में कॉरपोरेट का व्‍यापार था। हमारी जेबें खाली होती थीं, लेकिन ट्यूशन, आकाशवाणी या अखबार में कोई छोटा-मोटा लेख लिख देने से जो भी मामूली सी रकम हाथ में आती, उसे बचा-बचाकर हम किताबें खरीदते थे। दस लोग मिलकर एक छोटी सी लाइब्रेरी बना लेते और आपस में मिल-बांटकर किताबें पढ़ते। हालांकि उस पढ़ने का संसार भी बहुत सीमित था। ज्‍यादातर पार्टियों की बुकलेट्स, प्रगति और रादुगा प्रकाशन के भीमकाय उपन्‍यास और मार्क्‍सवाद क्‍या है, दर्शन क्‍या है, भौतिकवाद क्‍या है, आदि-आदि के बारे में छोटी-छोटी पुस्तिकाएं होती थीं। तब पढ़ने का ऐसा भूत था कि हाथ लगा कोई लिखा शब्‍द अनपढ़ा नहीं रहता था। और तो और, आज जिस अखबार को मुंह उठाकर भी नहीं देखती, तब अमर उजाला के एडीटोरियल तक छान जाया करती थी। आज जब पढ़ने को इतना अथाह मेरे अपने घर में है और पढ़ने का वक्‍त नहीं है, सोचती हूं ये किताबें उस उम्र में मिली होतीं तो?

लेकिन वक्‍त इस तेजी से गुजरा है और उसने ऐसे मेरे हमसफरों की शक्‍लें बदल दी हैं कि दस साल पहले का उनका ही रूप उनके सामने रख दिया जाए तो शायद उन्‍हें यकीन न हो कि ये वही हैं। जब हम पढ़ रहे थे, किसी को आभास तक नहीं था कि अचानक इस देश की इकोनॉमी का चेहरा इतने वीभत्‍स अनुरागी ढंग से बदल जाएगा। पत्रकारिता तब कोई ऐसा ग्‍लैमरस पेशा नहीं था, और न ही उसमें यूं नोटों की बरसात होती थी। तब इलाहाबाद शहर में 10-10 रुपए जोड़कर सतह से उठता आदमी और कितनी नावों में कितनी बार खरीदने वालों को पता नहीं था कि सिर्फ दस साल के भीतर वो देश की राजधानी में ऐसी अकल्‍पनीय तंख्‍वाहों पर ऐसी आलीशान जिंदगियां जी रहे होंगे, जो उनके छोटे से शहर और घर में दूर की कौड़ी थी।

कितनी आसानी से किसी को सबकुछ देकर उसका सबकुछ छीना जा सकता है और वो उफ तक नहीं करेगा, उल्‍टे इस छीन जाने के बदले आपका एहसानमंद होगा। इलाहाबाद के वो साथी आज भी दिल्‍ली के पुस्‍तक मेलों में परिवार के साथ घूमते हुए मिल जाते हैं और आज जब किताबें न खरीद पाने की कोई मुनासिब वजह नहीं है, कोई किताब नहीं खरीदता। मोटी तंख्‍वाहें घर और गाड़ी के लिए लोन देने वाले बैंक उठा ले जाते हैं और जो बचता है, वो मॉलों और गाड़ी के पेट्रोल में खत्‍म हो जाता है। बचता आज भी कुछ नहीं। आज भी व़ो वैसे ही फोकटिया हैं, जैसे इलाहाबाद में हुआ करते थे। ये पैसा बस अपर क्‍लास हो जाने के एहसास की तरह उनके दिलों में बसता है। पहले वे जानते थे, अब नहीं जानते कि वे किस वर्ग के हिस्‍से हैं।

पहली किस्‍त - मेरी जिंदगी में किताबें

5 comments:

Ashok Pande said...

बढ़िया पोस्ट, मनीषा!

शुक्रिया.

कविता रावत said...

Pahale samay ki rooprekha se Aaj ke badalte samay ki bilkul sahi tasveer prastut ki hai aapne. Bahut achhla laga.....
Bahut shubhkamnayne.

मुनीश ( munish ) said...

I am also a small-towner and can appreciate ur concerns even though i may not agree with all of them.

naveen kumar naithani said...

प्रगती-प्रकाशन (बाद में रादुगा प्रकाशन )मास्को की किताबों से एक खास तरह की खुश्बू आती थी.हमारे देहरादून में अनिकान्त-प्लेस में mk universal नाम की एक दुकान होती थी.उन किताबों की याद दिलाने का शुक्रिया.बहुत सी किताबें अभी खजाने में बची हैं और उनसे वह खुश्बू अब भी आती है-बरसात की नमी में उन्हें एक बार टटोलिये!

उन्मुक्त said...

आपके पापा ठीक कहते थे,बेहतर इंसान बनने के सफर किताबों से होकर गुजरता है।