अमजद इस्लाम अमजद साहब ४ अगस्त १९४४ को जन्मे थे. मूलतः नाटककार के तौर पर जाने जाने वाले अमजद को उनके नाटक ’वारिस’ ने उर्दू साहित्य संसार में ख़ासी प्रसिद्धि दी.
कविता में नज़्म उनका पसन्दीदा फ़ॉर्मैट है.
आज पढ़िये उनकी एक नज़्म:
वक़्त से कौन कहे यार, ज़रा आहिस्ता
गर नहीं वस्ल तो ये ख़्वाब-ए-रिफ़ाक़त ही ज़रा देर रहे
वक़्फ़ा-ए-ख़्वाब के पाबन्द हैं
जब तक हम हैं!
ये जो टूटा तो बिखर जाएंगे सारे मंज़र
(तीरगी-ज़ाद को सूरज है फ़ना की तालीम)
हस्त और नेस्त के माबैन अगर
ख़्वाब का पुल न रहे
कुछ न रहे
वक़्त से कौन कहे
यार, ज़रा आहिस्ता
(वस्ल: मिलन; ख़्वाब-ए-रिफ़ाक़त: साथ रहने का सपना; वक़्फ़ा-ए-ख़्वाब: सपने का ठहराव; मंज़र: दृश्य; तीरगी-ज़ाद: अन्धेरे में रहने वाला; फ़ना: मृत्यु; हस्त और नेस्त: होना और न होना; माबैन: बीच में)
3 comments:
बेहतरीन नज़्म...
जरा आहिस्ता...ये अहसास बिखर ना जाए...
बहुत उम्दा नज़्म पढ़वाई आपने अमजद इस्लाम अमजद साहब की. आभार मित्र.
बहुत-बहुत धन्यवाद
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