Wednesday, March 24, 2010
और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं
ग़ज़ल गायकी का पर्याय मानी जाने वाली अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादी यानी बेग़म अख़्तर सुना रही हैं फ़िराक़ गोरखपुरी साहेब की लिखी एक मशहूर ग़ज़ल
सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं
लेकिन इस तर्क-ए-मुहब्बत का भरोसा भी नहीं
यूँ तो हंगामे उठाते नहीं दीवान-ए-इश्क
मगर ऐ दोस्त कुछ ऐसों का ठिकाना भी नहीं
मुद्दतें गुजरी तेरी याद भी आई न हमें
और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं
मुँह से हम अपने बुरा तो नहीं कहते कि फिराक
है तेरा दोस्त मगर आदमी अच्छा भी नहीं
इस कम्पोज़ीशन में बेग़म ने इस ग़ज़ल के जिन शेरों को नहीं गाया, ये रहे -
ये भी सच है कि मोहब्बत में नहीं मैं मजबूर
ये भी सच है कि तेरा हुश्न कुछ ऐसा भी नहीं
दिल की गिनती न यगानों में न बेगानों में
लेकिन इस जल्वागाह-ए-नाज से उठता भी नहीं
बदगुमां होके न मिल ऐ दोस्त जो मिलना है तुझे
ये झिझकते हुए मिलना कोई मिलना भी नहीं
शिकवा-ए-शौक करे क्या कोई उस शोख़ से जो
साफ़ कायल भी नहीं, साफ़ मुकरता भी नहीं
मेहरबानी को मोहब्बत नहीं कहते ऐ दोस्त
आह मुझसे तो मेरी रंजिश-ऐ-बेजा भी नहीं
बात ये है कि सुकून-ए-दिल-ए-वहशी का मकाम
कुंज-ए-जिन्दा भी नहीं बौशाते सेहरा भी नहीं
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5 comments:
साथियो!
आप प्रतिबद्ध रचनाकार हैं. आप निसंदेह अच्छा लिखते हैं..समय की नब्ज़ पहचानते हैं.आप जैसे लोग यानी ऐसा लेखन ब्लॉग-जगत में दुर्लभ है.यहाँ ऐसे लोगों की तादाद ज़्यादा है जो या तो पूर्णत:दक्षिण पंथी हैं या ऐसे लेखकों को परोक्ष-अपरोक्ष समर्थन करते हैं.इन दिनों बहार है इनकी!
और दरअसल इनका ब्लॉग हर अग्रीग्रेटर में भी भी सरे-फेहरिस्त रहता है.इसकी वजह है, कमेन्ट की संख्या.
महज़ एक आग्रह है की आप भी समय निकाल कर समानधर्मा ब्लागरों की पोस्ट पर जाएँ, कमेन्ट करें.और कहीं कुछ अनर्गल लगे तो चुस्त-दुरुस्त कमेन्ट भी करें.
आप लिखते इसलिए हैं कि लोग आपकी बात पढ़ें.और भाई सिर्फ उन्हीं को पढ़ाने से क्या फायेदा जो पहले से ही प्रबुद्ध हैं.प्रगतीशील हैं.आपके विचारों से सहमत हैं.
आपकी पोस्ट उन तक तभी पहुँच पाएगी कि आप भी उन तक पहुंचे.
मैं कोशिश कर रहा हूँ कि समानधर्मा रचनाकार साथियों के ब्लॉग का लिंक अपने हमज़बान पर ज़रूर दे सकूं..कोशिश जारी है.
मन भया प्रसन्न्न्न्न !
Match the colomns--शायद दिमाग की कसरत होती है /
उप्रोक्त पहला comment (बिलाशक एक नेक-खयाल है ! )की अपील से लाल बहादुर शास्त्री जी की विदेशो मे बसे भारतीय वैग्यानिको से की गयी अपील याद आ गयी,जिस्मे उन्से भारत मे आ कर काम करने के लिये कहा गया था /
इस्के तहत श्री जयन्त विश्नु नर्लिकर,वाकई मे सब कुछ छोड्कर हिन्दुस्तान आ भी गये थे/और फ़िर यही पर काम किया.. /
उन्के जो साथी वैग्यानिक थे ,आगे चल्कर उन्हे नोबल भी मिला था minus श्री जयन्त विश्नु नर्लिकर .........
(मुझे लग्ता है इसी पर शाह्रुख खान की "परदेस" भी बनी थी / )
पता नही क्यो ये वाक्या याद आ गया...पता नही क्यो ?!
गज़ल लाजवाब है,.........विशयान्तर के लिये क्शमा प्रार्थी हु /
पुर-सूकून देती बेहतरीन गजल है। वाह, बहूत खूब।
वाह बेगम अख्तर ... ।
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