Monday, May 3, 2010
दूर से अपना घर देखना चाहिये
वरिष्ठ कवि विनोद कुमार शुक्ल की यह विख्यात कविता मुझे अभी अभी सुन्दर ठाकुर ने फ़ोन पर सुनाई. मुझे लगा कि इसे यहां आप के साथ बांटा जाना चाहिये.
दूर से अपना घर देखना चाहिए
विनोद कुमार शुक्ल
दूर से अपना घर देखना चाहिए
मजबूरी में न लौट सकने वाली दूरी से अपना घर
कभी लौट सकेंगे की पूरी आशा में
सात समुन्दर पार चले जाना चाहिए.
जाते जाते पलटकर देखना चाहिये
दूसरे देश से अपना देश
अन्तरिक्ष से अपनी पृथ्वी
तब घर में बच्चे क्या करते होंगे की याद
पृथ्वी में बच्चे क्या करते होंगे की होगी
घर में अन्न जल होगा की नहीं की चिंता
पृथ्वी में अन्न जल की चिंता होगी
पृथ्वी में कोई भूखा
घर में भूखा जैसा होगा
और पृथ्वी की तरफ लौटना
घर की तरफ लौटने जैसा.
घर का हिसाब किताब इतना गड़बड़ है
कि थोड़ी दूर पैदल जाकर घर की तरफ लौटता हूँ
जैसे पृथ्वी की तरफ
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7 comments:
दूर से अपना घर देखना चाहिए
...vinod kumar shukl ji ki kavita kafi achhi hai.padhvane ke liye dhanyavaad,
इस कविता सा सीधा सा अर्थ है कि किसी भी चीज को आंखों से सटाकर नहीं देखा और समझा जा सकता कुछ दूरी तो चाहिये ही। इसे सभी के द्वारा समझा जाना बहुत ही आवश्यकह है।
acchhi kavita vinod kr. shukl ji ki. gahre bhaav.
दो तीन बार पढ़कर...हर बार एक नया अर्थ पा रहा हूँ.
बहुत गहरी रचना. आभार प्रस्तुत करने का.
हेवी ड्यूटी है मालिक !!
दूर से ही
वाह, इस अन्दाज मे भी सोच सकते है, नही सोचा था...
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