Tuesday, May 4, 2010

हिमालय में प्लूटोनियम - सी आई ए का एक और अपराध

इधर दिल्ली में हुए कोबाल्ट रेडियेशन की बहुत चर्चा है और यह खासी चिन्ता का विषय भी है. लेकिन आज से करीब चालीस साल पहले अमरीका ने हिमालय की पवित्र चोटियों पर ऐसा पाप किया था जिसके परिणाम क्या हुए या क्या हो रहे हैं या क्या होंगे, कोई नहीं जानता. पीटर ली के एक लम्बे और महत्वपूर्ण लेख के कुछ अंश प्रस्तुत हैं



शीतयुद्ध के दौरान सी आई ए ने कुछ कामों को हर सूरत में सरंजाम देना ही था - कम्यूनिज़्म को रोकने के लिए कैसी भी कीमत चुकाई जा सकती थी और किसी भी तरह की तकनीकी बाधा को पराजित किया जा सकता था. और चीन के मिसाइल कार्यक्रमों की ख़ुफ़िया सूचना प्राप्त करने के लिए कोई भी पहाड़ फ़तह किया जा सकता था.

लोप नोर में चीन द्वारा किये जा रहे मिसाइल परीक्षणों की जासूसी करने के लिए सी आई ए ने एक हैबतनाक ऑपरेशन किया था - दुनिया के चुनिन्दा पर्वतारोहियों की मदद से नन्दा देवी और नन्दा कोट की चोटियों पर परमाणु ऊर्जा से चलने वाली लिसनिंग डिवाइसेज़ स्थापित करने का प्रयास. लेकिन इस हिमालयी अभियान में सी आई ए ने लिसनिंग डिवाइसेज़ के लिए इस्तेमाल होने वाले प्लूटोनियम नामक तत्व के चलते होने वाले दुष्परिणामों को पूरी तरह नज़र अन्दाज़ कर दिया था जिसका खतरा उस मिशन में शामिल लोग आज तक महसूस करते हैं.

१९६६ में चार पाउन्ड प्लूटोनियम नन्दादेवी में खो गया था और आज तक कोई नहीं जानता कि उसका क्या हुआ या उन शेरपाओं और पर्वतारोहियों का जो इस अभियान में शामिल थे. मालूम तो यह भी नहीं कि जिस चोटी की बर्फ़ पिघल कर गंगा नदी में जाती है, उस गंगा के किनारे बसने वाले लोगों के साथ क्या क्या हो चुका है और होने वाला है.

न्यू यॉर्क की थंडर्स माउथ प्रेस द्वारा २००६ में प्रकाशित पीट ताकेदा की लिखी पुस्तक एन आई ऑन टॉप ऑफ़ द वर्ल्ड में इस ख़ौफ़नाक अभियान के विस्तृत विवरण पढ़ने को मिलते हैं.

यह बहुत सीधा सा मिशन था. यह सैटेलाइट और डिजिटल उपकरणों से पहले का समय था जब सामान्य रेडियो उपकरण लगी हुई मिसाइलें सन्देश भेजा करती थीं जिन्हें कोई भी अपने रेडियो रिसीवर पर प्राप्त कर सकता था.

अपने सिग्नल्स को दुश्मनों से दूर रखने की नीयत से चीन ने अपनी मिसाइलों का परीक्षण लोप नोर में किया. बाहरी संसार का कोई भी व्यक्ति इन सिग्नल्स को सिर्फ़ और सिर्फ़ हिमालय की चोटी से ही सुन सकता था. सो सी आई ए ने निर्णय लिया कि वह २५००० फ़ीट की ऊंचाई पर नन्दा देवी कॊ चोटी पर अपना रिसीवर स्थापित करेगी.

हिमालय की कठिन परिस्थितियों के कारण यह असम्भव था कि इस रिसीवर की देखभाल कोई मानव कर पाता. चूंकि रिसीवर की बैटरियां लगातार बदली जानी होती थीं, सी आई ए ने इसका समाधान खोज निकाला. अमरीकी अन्तरिक्ष अभियानों में इस्तेमाल होने वाले रेडियोसोटोपिक थर्मल जेनेरेटर यानी आर टी जी के इस्तेमाल का निर्णय ले लिया गया.

१९६५ में एवरेस्ट फ़तेह करने वाले पहले भारतीय कैप्टेन एम एस कोहली को फ़्रिज के आकार के इस उपकरण को नन्दादेवी की चोटी पर पहुंचाने के अभियान हेतु सारी तैयारियां करने का ज़िम्मा सौंपा गया.

कोहली ने भी अपने संस्मरण लिखे हैं. विवरणों में कुछ अन्तर होने के बावजूद दोनों का नैरेटिव करीब करीब एक सा है.

१९६५ के पतझड़ में एक भारतीय-अमरीकी दल नन्दादेवी के बेस कैम्प तक पहुंचा. इकत्तीस लोगों के इस दल को बेस कैम्प में हैलीकॉप्टर द्वारा उक्त रिसीवर, आर टी जी और प्लूटोनियम २३८ की सात छड़ें मुहैय्या कराई गईं जिन्हें चोटी तक पहुंचाने में तीन सप्ताह लगे.



जब ये लोग चोटी पर पहुंचने ही वाले थे, मौसम बेतहाशा ख़राब हो गया. पर्वतारोहण का सीज़न समाप्त हो चुका था और रिसीवर स्थापित करने का कोई भी प्रयास अब अगले साल से पहले सम्भव न था. बजाय इस तमाम उपकरणों को वापस नीचे लाने की जेहमत उठाने के, यह तय किया गया कि उन्हें एक चट्टान से बांध कर वहीं छोड़ कर अगले साल आ कर काम को अंजाम दिया जाय.

अगले साल वसन्त में जब ये पर्वतारोही वापस उस जगह पहुंचे तो यह देख कर उनके होश उड़ गए कि वह पूरी की पूरी चट्टान बर्फ़ अपने साथ नीचे कहीं बहा ले गई थी.

रिसीवर, आर टी जी और प्लूटोनियम की छड़ें सम्भवतः हज़ारों फ़ीट नीचे किसी ग्लेशियर में दफ़न थे. इन्हीं ग्लेशियरों से उत्तर भारत के मैदानी इलाकों को पानी मिलता है. बेतहाशा प्रयास किये गए कि इन चीज़ों को वापस खोज लिया जाए पर ऐसा हो न सका और आखिरकार सी आई ए ने अपने हाथ खड़े कर दिये

फ़ोटो: ऊपर नन्दादेवी में बर्फ़ीला तूफ़ान, नीचे हिमस्खलन के बाद बाहर निकलते पीट ताकेदा

(जारी)