Sunday, May 16, 2010

एक अकर्मण्य दिवस का उजाला झरता जाता है धीरे - धीरे


वेरा पावलोवा छोटे कलेवर की बड़ी कविताओं के लिए जानी जाती हैं। उनके पन्द्रह कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। संसार की बहुत सी भाषाओं में उनके कविता कर्म का अनुवाद हो चुका है जिनमें से स्टेवेन सेम्योर द्वारा किया गया अंग्रेजी अनुवाद 'इफ़ देयर इज समथिंग टु डिजायर : वन हंड्रेड पोएम्स' की ख्याति सबसे अधिक है। यही संकलन हमारी - उनकी जान - पहचान का माध्यम भी है। स्टेवेन, वेरा के पति हैं और उनकी कविताओं के ( वेरा के ही शब्दों में कहें तो ) 'सबसे सच्चे पाठक' भी। १९६३ में जन्मी वेरा पावलोवा आधुनिक रूसी कविता का एक ख्यातिलब्ध और सम्मानित नाम है। वह संगीत की विद्यार्थी रही हैं। इस क्षेत्र में उनकी सक्रियता भी है किन्तु बाहर की दुनिया के लिए वह एक कवि हैं - 'स्त्री कविता' की एक सशक्त हस्ताक्षर। लीजिए प्रस्तुत हैं उनकी दो कवितायें -












वेरा पावलोवा की दो कवितायें
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

०१-

'हाँ' कहना

क्यों इतना छोटा है 'हाँ' शब्द
इसे होना चाहिए
सबसे लम्बा
सबसे कठिन
ताकि तत्क्षण निर्णय न लिया जा सके
इसके उच्चारण का।
ताकि बन्द न हो परावर्तन का पथ
और मन करे तो
बीच में रुका जा सके इसे कहते - कहते।

०२-

निरर्थकता का अर्थ

हम धनवान हैं
हमारे पास कुछ भी नहीं है खोने को
हम पुराने हो चले
हमारे पास दौड़ कर जाने को नहीं बचा है कोई ठौर
हम अतीत के नर्म गुदाज तकिए में फूँक मार रहे हैं
और आने वाले दिनों की सुराख से ताकाझाँकी करने में व्यस्त हैं।

हम बतियाते हैं
उन चीजों के बारे में जो भाती हैं सबसे अधिक
और एक अकर्मण्य दिवस का उजाला
झरता जाता है धीरे - धीरे
हम औंधे पड़े हुए हैं निश्चेष्ट - मृतप्राय
चलो - तुम दफ़्न करो मुझे और मैं दफ़नाऊँ तुम्हें।

------------

नोट : वेरा पावलोवा की कुछ कवितायें और परिचय 'कर्मनाशा' के इस पन्ने पर है। दोनों कविताओं के शीर्षक अनुवादक द्वारा।

2 comments:

Udan Tashtari said...

गहरी बातें..आत्मसात करने को!

मीनाक्षी said...

हम अतीत के नर्म गुदाज तकिए में फूँक मार रहे हैं--- सच कहा है कि भाषा में अलंकार हों तो भाव की खूबसूरती और भी बढ़ जाती है..