जलसा के पहले अंक से आपका परिचय कराते हुए मैंने आपको देवीप्रसाद मिश्र की एक कविता पढ़वाई थी. आज पढ़िए उसी सीरीज़ से एक और कविता -
सजनी
कि सजनी अब तो रहा न जाए
पानी में तेज़ाब घोल दे नदी चुरा ले जाए
रात बनाए रक्खे कोई दिया न जलने पाए
गाना इतना तेज़ लगा दे बात न होने पाए
हवा धुंए से भर दे सीधे पेड़ काटने आए
बात कहो तो हाथ पकड़ ले औ पिस्तौल दिखाए
बहुत प्यार करने का वादा करके घर न आए
कि साजन सत्ता होता जाए
कि साजन कुत्ता होता जाए
कि सजनी अब तो रहा न जाए
5 comments:
waah ..kya baat hai . gajab .. mukt kanth se badhayi ..iss kavita ke liye .
अद्भुत्…अद्भुत्…भयावह…जैसे रीढ़ की हड्डी को सिहरा दिया हो
bhai wah , achchi kalpana hai..
bahut khoob.........
अच्छी कविता|
जलसा मिल गई है. धीरे-धीरे लुत्फ़ लेकर पढना जरी है. शुरुआत छातों की गुफ्तगू से हुई और देर तक वहीं अटकी रही. कमाल की पेंटिंग है हुसेन की और इस पर प्रकाशकीय ( सम्पादकीय?) टिप्पणी भी बहुत अच्छी है. देवीप्रसाद और हेम पिछले दिनों रोहतक आये थे. देवी जी को सुनना शानदार था और अब पढना भी. वैसे भी इस किताब\पत्रिका में एक से बढ़कर एक कई यादगार चीजें हैं. मनमोहन ने `कल जो बातें की थीं` , वो कल तक दिल-दिमाग पर अटकी रहेंगी. शुभा की `अधूरी बातें` वंचित तबकों के बारे में सच्ची बातें हैं. और वीरेन जी की कविता, योगेन्द्र आहूजा के वो यादगार वाक्य....क्या बात है. ...
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