पिछले कुछ दिनों में 'कबाड़ख़ाना' और 'कर्मनाशा' पर कुछ पोस्ट्स आई हैं जो मई २०१० के आखिरी सप्ताह की मेरी हिमाचल यात्रा से निकली हैं। जब पहली बार रोहतांग की कुछ छवियाँ साझा की थीं तब भाई मुनीश और कुछ अन्य मित्रों ने रोहतांग के बाबत कुछ लिखने को कहा था जो टलता रहा । दरअसल , आजकल लिखने से अधिक पढ़ने का क्रम गतिमान है। अभी एक बार फिर प्रो० कृष्णनाथ की पुस्तक 'स्पीति में बारिश' पढ़ गया हूँ। यह मेरी पसंदीदा किताबों में से एक है। इस किताब में लिखे शब्दों के रस्से के सहारे हिमालयी लोक में विचरने का एक अलग व विलक्षण अनुभव है। इस बार यात्रा से लौटकर ( एक बार फिर ) इस पुस्तक को पढ़ना एक दूसरी तरह के पाठकीय अनुभव से गुजरना था। अभी तक जिन जगहों को शब्द - चक्षुओं से देखता आ रहा था उनमें से कुछ को निज की आँख से देख आया हूँ। देख क्या आया हूँ निहारकर भाग आया हूँ । यह देखना कितना और किस तरह का देखना ( हुआ ) है, असमंजस में हूँ .... खैर , रोहतांग अभी चर्चा में है। उसके नीचे , उसके पार्श्व से कुल्लू - मनाली से लाहुल - लेह को जोड़ने के लिए सबसे लम्बी सुरंग बन रही है। 'स्पीति में बारिश' पुस्तक ने भी एक सुरंग बनाई है - मेरी स्मृति के पहाड़ों में। मैं एक साधारण पाठक हूँ। रोहतांग के इतिहास - भूगोल , अतीत - वर्तमान के बारे में मुझे कोई रिसर्च नहीं करनी है। मैं तो बस अपनी पसंदीदा किताब ( 'स्पीति में बारिश' / कृष्णनाथ ) के दो अंश इस उम्मीद से सबके साथ साझा करना चाहता हूँ कि जिन्होंने इसे पढ़ा है उन्हें इसमे लिखा गया कुछ - कुछ ताजा हो जाय और जिन्होंने नहीं पढा है उनमें पढ़ने रुचि ( शायद ) जग जाय। । तो आइए देखें:
'स्पीति में बारिश' से झाँकता रोहतांग
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रोहतांग भोटी मूल का शब्द है। भोटी भाषा में इसे रोथङ ला कहते हैं। रो का मतलब है शव थङ का मतलब है स्थान, मैदान ; ला तो दर्रा या जोत को कहते हैं। रोथङ माने शव का मैदान। इस दर्रे को पार करने में पुराने जमाने में जैसे शव बिछ जाते थे। रोटांग ( रोहतांग ) के पथार पर पहुँचकर अभी भी शव जैसा विवर्ण और ठण्डा अनुभव होता है। यहाँ पत्थर जमाकर हिम दुर्दिन में फँसे यात्रियों के लिए एक कुटिया है। यहाँ आस पास मैदान है। शव का मैदान , इस ऊँचाई से कुल्लू तक एक दुनिया है। जैसे पहाड़ी पर्यटक केब्द्र होते हैं। व्यास नदी है, देवदार के वन हैं, दूर बर्फ़ से ढ़ँकी चोटियाँ हैं ; कभी हरे कभी नंगे पहाड़ हैं। रोहतांग के इस पार यह दुनिया छूट जाती है।
उस पार हिम की कोख में लाहुल - स्पीति की घाटियाँ हैं। इधर तो हिमाचल है , उधर हिम - आर्त प्रदेश। बर्फ़ से ठिठुरा हुआ है। जहाँ बारिश प्राय: नहीं होती , सिर्फ़ बर्फ़ पड़ती है। अक्टूबर - नवम्बर से मई - जून तक यह घाटियाँ बर्फ़ से ढँकी रहती हैं। जब बर्फ़ पिघलती है तो एक फसल होता है। अधिकांश खेतों में दो बार फसल बोते हैं। एक बार जौ बोते हैं। दूसरी बार कठ्ठ बोते हैं। पाटन घाटी में प्राय: दो फसलें होती हैं। हिमानी चोटियों पर तो बर्फ़ कभी पिघलती नहीं। जब से हिमगिरि है तब से वह बर्फ़ है। कहते हैं कि सौ बरस बर्फ़ जमी रह जाय तो मणि हो जाती है। यहाँ तो जब से हिमालय हुआ तब से बर्फ़ है। शायद लाखों बरस से बर्फ़ पिघली नहीं है। तो यह तो मणियों की मणि हो गई होगी। और इतना करीब कि हाथ बढ़ा कर छू लें। यह हिमलोक रोहतांग के पार है।
रोहतांग को भृगुतुंग से भी जोड़ने की कोशिश चली है। महाभारत के अनुशासन पर्व में भृगुतुंग के माहात्म्य का वर्णन महामुनि अंगिरा ने महर्षि गौतम से किया था - जो अलोलुप हो तीन रात तक भोजन छोड़ भृगुतुंग के महानद में स्नान - आचमन करता है वह ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो जाता है। श्री लालचंद प्रार्थी ने 'कुलूत देश की कहानी' ( कुल्लू , १९७१ ) में रोहतांग को भृगुतुंग का अपभ्रंश माना है। भृगुतुंग का रोहतांग कैसे बनता है ? वैसे तो भाषा में कुछ का कुछ हो सकता है। लेकिन यह तो ज्यादती लगती है। इससे कुछ सहज तो आरोह - थांग, आरोहण का स्थान लगता है। इससे रोहतांग बन सकता है। वैसे यह सीधा नहीं है। मैं समझता हूँ कि रोथङ से रोहतांग है। रोथङ ला से रोहतांग दर्रा या जोत है। मैं कभी रोहतांग , कभी रोथङ, कभी रोटांग , कभी तीनों का इस्तेमाल करता हूँ।
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शान्त चित्त से रोहतांग को देखता हूँ।
बर्फ़ की फिसलन के बीच रास्ता है। यहाँ हिम मणि की तरह भास्वर नहीं है। मृत्यु की तरह धूसर है। जहाँ आकाश की छाया पड़ती है वहाँ नीला , बैंगनी है। चाहे शब्द , अर्थ की वासना का आरोप हो , मुझे लगा कि हिमानी कब्रगाह है जहाँ अनाम शव बिछे हुए हैं जिन पर न कोई 'क्रास' है , पटिया है। अनाम , अकाल मूरत अजूनी। मरणस्मृति होती है। जो मर गए हैं उनकी स्मृति , जो मरने वाले हैं उनकी स्मृति और उन सब शवों के आगे है मेरा शव। मैं अपने कन्धे पर चढ़ अपना शव देखता हूँ। शव स्थान देखता हूँ। रोटांग देखता हूँ।
इस शव के स्थान पर भी एक मढ़ी है। पत्थर का जमाव। गुहा मानुष , अमानुष के लिए एक द्वार है। एक भोट परिवार है। जो शायद आने - जाने वालों के लिए चाय - शाय दे सकता है। पेट पालने के लिए आदमी - जन कहाँ - कहाँ रहते हैं ! इसके आगे एक मोड़ आता है। बायीं ओर बर्फ़ की चट्टान है। जैसे थक्का की थक्का जमायी हुई पीली पड़ती हुई हड्डियाँ हैं। इन्हें काट कर रास्ता है। रास्ता यहाँ सँकरा है। सँकरा है वह रास्ता जो जिन्दगी की ओर जाता है। चौड़ा है वह रास्ता जो मृत्य की ओर जाता है। रास्ते पर फिसलन है। जीप फिसले तो मृत्यु के उस चौड़े रास्ते पर जाए। अभी तो जिन्दगी के सँकरे रास्ते पर हैं।
तीसरा पहर है। काल का और जिन्दगी का भी। फिर भी मौसम बहुत अच्छा है। शायद रोहतांग इस ऋतु में , इस वेला में , इतना अच्छा कम ही होता है। फिर यह समय आए , न आए। बर्फ़ पर चलने का , फिसलने का , गिरने, गिर कर फिर उठने, चलने का मन होता है। हम रोहतांग जोत के शीर्ष पर हैं। एक पट बताता है रोहतांग , समुद्र सतह से ऊँचाई १३०५० फ़ीट।
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किताब : स्पीति में बारिश / लेखक: कृष्णनाथ / प्रकाशक : वाग्देवी प्रकाशन, सुगन निवास , चन्दन सागर , बीकानेर - ३३४००१ , राजस्थान , भारत।
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8 comments:
आनन्द आ गया पढ़कर....
कई प्रकाश-वर्ष पहले न सिर्फ पढ़ी बल्कि बांटी भी थी ये पुस्तक मैंने .
दृश्य देखकर व पढ़कर मन आह्लादित हो गया ।
देर से आने के लिए क्षमा चाहता हूँ . क़ृष्णनाथ जी का गद्य हिप्नॉटिक है.मैं इस भाषा का कायल हूँ. लेकिन यह रोह्तांग उन का देखा हुआ और सोचा हुआ भले ही हो, भोगा हुआ नहीं है.इधर कुछ गाईड टाईप के विद्वानो ने पहाड़ की बड़ी ही मिस्टिक छवि बनाई है. क्यों कि सैलानी भी पहाड़ मे ऐसा ही कुछ मिस्टीरियस देखने आता है. उस के पास कुछ सेल्फ प्रोजेक्टेड पूर्वाग्रह युक्त बिम्ब होते है. ...अपनी विशफुल थिंकिंग से प्रेरित . ईश्वर् जैसा कुछ देखने आता है वह यहाँ.. जो शहर में रहते हुए वह खुद नही बन सकता. वह जब अपने इन भीतरी बिम्बों को सच मुच के दृष्यो पर आरोपित कर के देखता है मतिभ्रम मे पड़ जाता है.गलती सैलानी की नही है, भारत मे पर्यटन की अवधारणा मे ही एक मौलिक लोचा है. हमे पर्यटक की जेब से पैसा झाड़ने का एक ही एक उपाय नज़र आता है... कि पर्यटन स्थल को थोड़ा मिस्तिसिज़्म् मे रंग दो. यह मसला दर असल प्रोफेशनल है.यहाँ तक बात आंशिक रूप से जस्टिफ़ाईड भी है. लेकिन मामला जब बड़े साहित्यकारों और नामवर विद्वानो तक पहुँचता है तो इसे महज़ व्यव्सायिक विवशता कह कर नही टाला जा सकता.पिछले चार दशको में हिमालय के बाहर भीतर घूमते हुए मै ने भी हिमालय मे एक ईश्वर को देखा है ...थका हारा बीड़ी पीता हुआ. सम्भवतः कृष्णनाथ जी और आध्यात्म के उस तल पर जीने वाले अन्य लोगों को यह अटपटा लगे....हो सकता है यह मेरा पूर्वाग्रह हो..कबाड़ियों से प्रतिक्रिया चाहूँगा.
सिधेश्वर भाई, एक और रहस्योद्घाटन करना चाहता हूँ.लाहुल के भोट भाषी रोहतंग को इस नाम से नही जानते. न ही मेरी सूचना मे किसी भोटी ग्रंथ मे 'रोथंग' शब्द आया है. कुल्लू -मण्डी के लोग इसे ज़रूर रटाँग कहते हैं लेकिन वे लोग तो भोट भाषी नही हैं. है न दिल चस्प? आप बेशक कुछ न करना चाहें कृष्णनाथ जी इस पर एक बार फिर से विचार करना चाहेंगे.
अजेय भाई, सच कहा आपने। मुझे अक्सर लगता ( रहा) है कि पहाड़ॊं को लेकर हमारे(!) मन - मस्तिष्क में हमेशा या तो रहस्यात्मकता रही है या ऊहात्मकता की हद से परे तक जाने वाला सरलीकरण। जहाँ एक ओर पर्यटन की चालू परिपाटी ने पहाड़ों को मौज - मजे की जगह में बदल दिया है वहीं दूसरी ओर अध्येताओं की एक बड़ी जमात उनमें निरन्तर / अनवरत अध्यात्म खोजने की हामी रही है, गोया वहाँ साधारण मनुष्य बसते ही न हों !
और क्या कहूँ?
यही है असली माल ! आज भी इसे पढ़ कर मज़ा आया !
वास्तव मैं देखने लायक जगह है
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