आज सुबह आपने निज़ार क़ब्बानी की कुछ छोटी छोटी प्रेम कविताएं पढ़ीं. उसी क्रम को बढ़ाते हुए अब पेश हैं इसी कवि की प्रेम कविताओं की अगली किस्त. मैं उम्मीद करता हूं यह इन प्रेम कविताओं की आख़िरी किस्त नहीं होगी.
भाषा
जब आदमी प्यार करता है
कैसे इस्तेमाल कर सकता है वह पुराने शब्दों का?
क्या अपने प्रेमी को चाहने वाली स्त्री को
व्याकरणविदों और भाषाशास्त्रियों के साथ लेटना होगा?
जिस स्त्री से मैंने प्रेम किया
उस से कुछ नहीं कहा मैंने
सिवाय इसके
प्रेम के सारे विशेषणों को
एक सूटकेस में भरकर
मैं हर भाषा से दूर भाग आया
प्रेम की तुलना
मैं तुम्हारे बाक़ी प्रेमियों जैसा नहीं दीखता, प्यारी!
अगर उनमें से कोई तुम्हें एक बादल देगा
तो मैं दूंगा बारिश
अगर वह तुम्हें लालटेन देगा
मैं तुम्हें चन्द्रमा दूंगा
अगर वह तुम्हें एक टहनी देगा
मैं तुम्हें दूंगा पेड़
और अगर वह तुम्हें एक जहाज़ देगा पानी का
तो मैं तुम्हें यात्रा दूंगा.
जब मैं प्यार करता हूं
जब मैं प्यार करता हूं
मुझे लगता है मैं बादशाह हूं समय का
मैं धरती और इस पर की हर चीज़ का मालिक
और अपने घोड़े पर सवार होकर जाता हूं सूरज के भीतर
जब मैं प्यार करता हूं
मैं बन जाता हूं पानीदार रोशनी
जिसे आंखें नहीं देख सकतीं
और मेरी नोटबुक में कविताएं बन जाती हैं
छुईमुई और पोस्ते के खेत.
जब मैं प्यार करता हूं
पानी फूट पड़ता है मेरे हाथों से
घास उगती है मेरी जीभ पर
जब मैं प्यार करता हूं
मैं बन जाता हूं सारे समय से परे समय
जब मैं प्यार करता हूं एक स्त्री से
सारे पेड़
भागते हैं मेरे पीछे नंगे पांव ...
5 comments:
chun chun ke upmaayein di hai...gazab soch...
nice [post
बेहतरीन !
प्रेम की भाषा को शब्दों की आवश्यकता कहाँ ?
प्रेम की इन कविताओं ने प्रेम के अंतहीन रुपहले देस में पहुंचा दिया ...सच प्रेम तो ऐसा ही होता है
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