Friday, September 17, 2010

अनुभव के आकाश में कविता - 1

"वसुधा" पत्रिका के नवीनतम अंक में लीलाधर जगूड़ी जी पर ख़ासी सामग्री है. पटना में रहने वाले श्री ओम निश्चल ने उन की कविताई पर एक लम्बा और महत्वपूर्ण आलेख लिखा है. साथ ही उनसे एक लम्बा साक्षात्कार भी किया है.
आज से इन दोनों रचनाओं को बतौर सीरीज़ कबाड़ख़ाने पर प्रस्तुत किया जाएगा.

("वसुधा", जगूड़ी जी और श्री ओम निश्चल का आभार)


अनुभव के आकाश में कविता: परिप्रेक्ष्यः लीलाधर जगूड़ी

ओम निश्चल

आज जब लगभग अधिकांश कविता शब्दों की स्पीति का कारोबार बनती जा रही है, लीलाधर जगूड़ी उन कवियों में आते हैं, जिन्होंने अनुभव और भाषा के बीच कविता को जीवित रखा है। अनुभव के आकाश में उड़ान भरने वाले वे हिंदी के एक मात्र ऐसे कवि हैं जिनके यहाँ शब्द किसी कौतुक या क्रीड़ा का उपक्रम नहीं हैं, वे एक सार्थक सर्जनात्मकता की कोख से जन्म लेते हैं। बार बार दुहराई गयी , भोगी हुई जीवन पद्धति से दुहे गए अनुभव को नए नए रुपाकारों में व्यक्त करने का काम जगूड़ी वर्षों से कर रहे हैं, कुछ इतनी तल्लीनता और तार्किक व्यग्रता के साथ कि अनुभव की वह पूंजी, संवेदना और भाषा का वह स्रोत सर्वथा अजाना, अनछुआ और अ-व्यक्त लगे। अनुभव को भाषा और संवेदना की नई प्रतीतियों में बदलने में निष्णात जगूड़ी जैसे कवि को भी अक्सर किसी नई बात को कहने के लिए किसी गूँगे के शब्दकोश-सा अवाक् रह जाना पड़ता है। सरलता और सहजता के हामी कदाचित यह न जान पाएं कि कितना कठिन है कितने ही कठिन पर सरल-सा कुछ बोल देना। वे लिखते हैं---अपना मुख आईने में, आईना अपने हाथ पर/ पिर भी अद्भुत वाणी-सा यह यथार्थ पकड़ में नहीं आता। वे भाषा को एक जैसे किटप्लाई में बदलने के खिलाफ़ हैं। एकरसता, एकरूपता और एकीकरण रचनात्मकता के लिए क्षरण और ऊब के कारक हैं। अनुभव, भाषा और संवेदना के वैविध्य के लिए ही उन्होंने कहा है --- भाषाएं भी अलग अलग रौनकों वाले पेड़ों की तरह हैं। सबका अपना अपना हरापन है/ कुछ उन्हें काट कर उनकी छवियों का एक ही जगह बुरादा बना देते हैं।

इस तरह एक बात तो तय है कि नवीनता, जगूड़ी का पहला लक्ष्य है। अनुभव में भाषा में, संवेदना में ,कथ्य में नवता। किन्तु केवल नवीनता ही कविता बनने का अचूक उपाय नहीं है। भाषा की नवीनता मात्र कविता नहीं है, न ही संवेदना के नएपन से कविता का कोई रूपाकार बन सकता है। वह तभी बनता है जब कुल मिला कर यह लगे कि वाकई एक नई कविता का जन्म भी हुआ है। हर बार कलपदार भाषा, वक्तृता का प्रभावी उदाहरण नहीं हो सकती यदि वह अनुभव में पगी हुई न हो। जगूड़ी ने भाषा को एक रचयिता की तरह बरता और माँजा है। उसका निर्माता बनने का दंभ उनमें नहीं है, गो कि अपने समकालीन कवियों में भाषा के सर्वाधिक नए प्रयोग उन्होंने ही किए हैं।

ग्यारह-बारह संग्रहों के विराट काव्य फलक पर जगूड़ी को देखें तो वे एक महाकवि की सामर्थ्य रखने वाले कवि के रूप में दिखते हैं। जगूड़ी ऐसे कवि हैं जो हर बार नए प्रयोग, नई हिकमत, नई दृष्टि के साथ कविता के मैदान में उतरते हैं। यथार्थ के बहुस्तरीय छिलके उतारते हुए वे हर बार अपने अनुभवों पर नया रंदा लगाते हैं। उनकी भाषा की बुनावट इकहरी नहीं है, वे कहीं भावुक कवि की तरह पेश नहीं आते, बाल्कि निरन्तर नए और पेचीदा अनुभवों के साथ जीते हैं। उनके लिए एक रचनात्मक झूठ भी सर्जना का एक बड़ा सत्य बन कर उभरता है। उनकी तमाम लंबी कविताओं से हम यह समझ सकते हैं कि वे केवल लंबी कविताओं के फ़ैशन से परिचालित नहीं हैं बाल्कि अनुभव का, समय का, तात्कालिक परिस्थितियों का एक घना प्रतिबिम्ब उनमें समाया है। ठीक से देखें तो वे आधुनिक भारत और उसके लोकतंत्र की एक निर्मम और निर्भय व्याख्या की तरह लगती हैं।

कवितामय जीवन के वरण के शुभारंभ में ही उनके भीतर प्रकृति को, ऋतुओं को, देश को, पहाड़ को, सौंदर्य को, प्रेम को समझने-बूझने की एक अद्भुत व्यग्रता दीख पड़ती है, और इस बातचीत में कहे अनुसार, अगले जन्म में भी कवि-जीवन ही उन्हें काम्य है। उनके पहले ही संग्रह शंखमुखी शिखरों पर की ज्यादातर कविताएं मंत्र की तरह गूँजती और सम्मोहित करती हैं। वे लिखते हैं, मेरी आकाशगंगा में कभी बाढ़ नहीं आई/ मेरे पास तट ही नहीं है जिन्हें मैं भंग करने की सोचूँ/ एक साँवला प्यार है मेरे पास सेबार जैसा/ जिसे पाने के लिए बहुत बार भेजे हैं/ धरती ने बादलों के उपहार। यही वह रोमांचक दौर है जब प्रकॄति के साथ उन्होंने मानवीय संबंधों की छुअन महसूस की। इस यात्रा में संकलित अमृत में वे इस अनुभूति की बानगी देते हैं---हमेशा नहीं रहते पहाड़ों के छोए/ पर हमेशा रहेंगे वे दिन जो तुमने और मैंने एक साथ खोए। (इस यात्रा में) यह स्वप्निल, रोमानी और कोमल गाँधार की सी अनुगूँजवाली पंक्तियाँ जगूड़ी के भीतर के बुनियादी स्वभाव का भी एक परिचय देती हैं। पर जगूड़ी स्निग्धता के कवि नहीं हैं, वे अनुभव के जटिल पठारों पर यात्रा करने वाले कवि हैं, जहाँ जीवन का अयस्क और खनिज बिखरा है। यथार्थ की यह वह विन्ध्याटवी है, जिसमें सेंध लगाने से प्रायः कवि घबराते हैं। पर जगूड़ी अपनी कविताओं में यथार्थ की अपनी विन्ध्याटवी रचते हैं। वे स्वप्निल-सी शुरुआती दुनिया छोड़ कर धूमिल के संग-साथ तुरत फ़ुरत आजाद हुए देश के लोकतंत्र का एक नक़्शा खींचते हैं,तो तमाम विद्रूपताएँ उनका पीछा करती हैं। नाटक जारी है इन्हीं दिनों और ऐसे ही खुरदुरे अनुभवों की उपज हैं।

सन् साठ आजादी के बाद के मोहभंग का एक ऐसा मोड़ है जिसने केवल राजनीति की दिशा ही नहीं बदली, साहिात्यिक विधाओं के कथ्य और फ़ैब्रिक को भी दूर तक प्रभावित किया। कविताओं को देखें तो साठोत्तर पद इसी मोड़ का परिचायक है। अकविता के उन्माद को चीर कर आगे बढ़ना तब वाकई कठिन था। पर धूमिल और जगूड़ी ने एक रास्ता बनाया। विक्षोभ और मोहभंग को तार्किकता में रूपायित करने की चेष्टा की। संसद से सड़क तक में यदि धूमिल अपने समय को रूपायित करते हैं तो नाटक जारी है में जगूड़ी अपने समय को । बाद के दिनों में प्रकाशित रात अब भी मौजूद है, बची हुई पॄथ्वी, घबराए हुए शब्द, भय भी शक्ति देता है -- उस वक्त की राजनैतिक, आार्थिक और सामाजिक हलचलों, अन्तर्ध्वनियों का ही काव्यात्मक विस्फोट हैं। भय भी शक्ति देता है, अनुभव के आकाश में चाँद और ईश्वर की अध्यक्षता में जैसे बेहतरीन संग्रह जगूड़ी ने दिए पर उन्हें समझने वाला समाज न मिला। उनकी कविताओं को लेकर भरोसेमंद टीकाओं का अभाव है। कदाचित यह कारण हो कि वे बहुत ही पेचीदा, जटिल और बहुस्तरीय अनुभवों के कवि हैं, जिन्हें समझना कठिन है। उनकी कविताएँ एक बार में ही पूरा नहीं खुलतीं। जितना हम उन्हें समझने का दावा करते हैं, उतना ही अबोध वे हमें घोषित करती हैं। यों तो हर अच्छी कविता की विशेषता यही है कि वह बार बार पढ़ी जा कर भी नई की नई बनी रहे। उसकी भाषा-संवेदना हर बार ताज़ा लगे। जगूड़ी की कविताओं में यह खूबी है। वे अपने प्रतीकों, बिम्बों, उपमानों, उत्प्रेक्षाओं को मैला और बासी नहीं होने देते। यही वजह है कि पेड़ और बच्चे के प्रतीक और बिम्ब से रची उनकी अनेक कविताएँ ऊब का निर्माण नहीं करती हैं। वे रोमांचित कर देने वाली अनुभूति और प्रतीति कराती हुई एकरसता का भंजन करती हैं। उस समय की एक कविता का एक आखिरी हिस्सा है---जड़ों के सत्संग से लौटकर / मौसम के सामूहिक कीर्तन में हिल रहे थे पेड़। या पेड़ कविता का यह अंश-

उसकी आँखों में अनेक इच्छाओं के कोमल सिर हैं
जिन्हें जब वह निकालेगा तो बचपन की मस्ती में
हवा, रोशनी और सारे आकाश को दूध की तरह पी जाएगा...
आओ और मुझे सिर ऊँचा किए हुए उससे ज्यादा जूझता हुआ
उससे ज्यादा आत्मनिर्भर कोई आदमी बताओ
जो अपनी जड़ें फैला कर मिट्टी को खराब होने से बचा रहा हो।

(जारी)

2 comments:

विजय गौड़ said...

जगूड़ी जी का यह साक्षात्कार वाकई पढ़वाया जाने वाला है अशोक भाई। मैं खुद भी चाहता था लेकिन समय अभाव के कारण टाइप करना संभव न हो रहा था। आप इसे प्रस्तुत करके उस मह्त्वपूर्ण बात को भी प्रस्तुत करेंगे जिसमें जगूड़ी जी ने कहा है, "कवि होने को की योग्यता को किसी पाठ्यक्रम की तरह स्पष्टत: लक्षित नहीं किया जा सकता।" आगे बात और भी खूबसूरत तरह से कही गई है।

alka mishra said...

मुझे बहुत शर्मिन्दंगी महसूस हो रही है,यह सोचकर कि आपके ब्लॉग पर मेरी निगाह पहले क्यों न पडी