Monday, September 20, 2010

अनुभव के आकाश में कविता - 4

(पिछली किस्त से जारी)

जगूड़ी को पढ़ने समझने के लिए चिर सजगता चाहिए। इसके लिए कान खुले रखने पड़ते हैं। इंद्रियों की लगाम थामे रहनी होती है। एक भी पंक्ति की चूक आस्वाद भंग कर सकती है। वे कविता में जो कहते हैं उसका समसामयिकता से ज्यादा लेना देना नहीं होता। वे इतने पते की बात कहते हैं कि हमारी अक़्ल के बंद दरवाजे भी खुल उठते हैं। रोज एक कम कविता में रोज एक न एक के चले जाने की बात करते हुए वे जब कहते हैं, ताज्जुब है कभी भी उस एक का खाना नहीं बचता/ कभी भी उस एक के सोने की जगह सूनी नहीं रहती---तो पूरी कविता हमें विचलित कर देती है और बताती है कि इस दुनिया में कोई भी अपरिहार्य नहीं है। हत्यारा और तानाशाह को लेकर हिंदी में तमाम कविताएँ होंगी। पर जगूड़ी की कविता हत्यारा बिल्कुल अलग है। हमारे समय में ऐसे तत्वों को जो नायकत्व हासिल हुआ है, उसे पूरी सांकेतिकता से जगूड़ी हमारे सामने रखते हैं। इस तरह कि हम उन हत्यारों को लोकेट कर सकते हैं। उनकी लड़ाई कविता अपने दौर की चर्चित कविताओं में है जिसमें उन्होंने लिखा है---दुनिया की सबसे बड़ी लड़ाई आज भी एक बच्चा लड़ता है/ पेट के बल, कोहनियों के बल और घुटनों के बल। और इस कविता की इन पंक्तियों के लिए आज भी उन्हें याद किया जाता है---

मेरी कविता हर उस इंसान का बयान है
जो बंदूकों के गोदाम से अनाज की ख्वाहिश रखता है
मेरी कविता हर उस आँसू की दरख्वास्त है
जिसमें आँसू हैं


इसी कविता में उनका यह भी कहना है कि दुनिया का मैदान लड़ाई का मंच न बने क्योंकि यह बच्चे के खेल का मैदान है। कवि की यह शुभाशा उसके स्वच्छ, निर्मल मन की गवाही देता है। पेड़ की आजादी के माध्यम से उन्होंने एक नागरिक की स्वतंत्रता की अभिलाषा से जुड़े कुछ सवाल उठाए हैं जिससे यह पता चलता है कि आजादी सिर्फ़ उत्सवता की एक संज्ञा भर है, सचमुच की आजादी से उसका लेना देना नहीं। मुझे अफ़्रीकी कवि डान मातेरा की एक कविता याद आती है, जिसमें शासक गुलाम व्यक्ति को यह अहसास दिलाते हुए कि वे कुछ माँगे, वह खेत माँगता है, रोटी और कपड़े माँगता है और यह सब उसे मिलता भी है। फिर धीरे धीरे शासक की उदारता पर भरोसा करते हुए एक दिन आजादी की ख्वाहिश कर बैठता है। यही बात शासक को स्वीकार्य नहीं है। वह खेत वापस ले लेता है और उसे जंजीरों में जकड़ देता है। आजादी इतनी आसान होती तो अप्रीका में अफ़्रीकी नेशनल काँग्रेस को एक लंबा संघर्ष न छेड़ना पड़ता। अंग्रेजों से ही आजादी पाने में हमें कितने बरस लगे। इसलिए पेड़ की आजादी कविता पढ़ते हुए स्वतंत्रता और शोषण के व्यापक भावबोध से गुजरना पड़ता है। गुमशुदा की तलाश भी एक ऐसी ही कविता है । शहरों में रोज ब रोज दाखिल होते ऐसे बेशुमार चेहरों की भीड़ देख सकते हैं जिनके पास खोने को कुछ नहीं है और पा सकना भी एक दुस्वप्न है। कवि को वह घबराए हुए शब्द की तरह लगता है। क़्या हमें ऐसे चेहरे अक़्सर नहीं दिखाई देते जो होते हुए भी गुमशुदा जैसे हैं। आजादी के इतने सालो बाद भी हम इन्हें वह सम्मानजनक पहचान और रिहाइश नहीं दे पाए हैं जिनके ये हकदार है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने लिखा था, भगवान अब भी बच्चों को धरती पर भेज रहा है। इसका अर्थ यह है कि वह मानव जाति से अभी निराश नहीं हुआ है। जगूड़ी लिखते हैं, बच्चा पैदा होने का मतलब है फिर एक आदमी खतरे में पड़ा। वे भविष्य के कवि हैं। उन्हें भविष्य में रोटी, कपड़े मकान, पानी ,अन्याय और विषमता के तमाम संकट अभी से दीख रहे हैं। जीवन की आगामी मुश्किलों का उन्हें अंदाजा है।

जगूड़ी की कविता में भाषा अलग से चमकती है। पर वह भाषा का उत्सव नही है। वह दुर्निवार अभिव्यक्ति के लिए भाषा का कारगर इस्तेमाल है। आत्मविलाप कविता में जैसा जगूड़ी लिखते हैं यह उस कौल करार का एक निर्वचन भी है जिसके जरिए वे शब्दों को पुनरुज्जीवित करना चाहते हैं। यह एक जीवंत कवि का कर्तव्य भी है कि वह शब्दों का परिष्कार करे और देखे कि भाषा में फूटते नए कल्ले शब्द की कोशिकाओं को पूरी आक्सीजन दे रहे हैं--

अपनी छोटी और अंतिम कविता के लिए
मुझमें जो थोड़ा सा रक्त शेष है
मैं कोशिश करूँगा वह दौड़ कर
शब्द के उस अंग को जीवित कर दे
जो भाषा की हवा से मर गया है


ऐसा नही कि जगूड़ी की कविता किसी तार्किक निष्कर्ष तक पहुँचाने वाली कविता है किन्तु वह दूध का दूध और पानी का पानी करने की क्षमता से अवश्य लैस है जहाँ रूढि़बद्ध, पवित्र, और नैतिकता के ताप से समुज्ज्वल परंपरागत आशय भरभरा कर गिर पड़ते हैं और साप दिखाई देता है कि गिरावट, अवसरवादिता, मूल्यहीनता और क्रूरता किस हद तक हमारी
जीवन शैली में घुस गयी है।

(समाप्त)

1 comment:

नीरज गोस्वामी said...

दुनिया की सबसे बड़ी लड़ाई आज भी एक बच्चा लड़ता है/ पेट के बल, कोहनियों के बल और घुटनों के बल

प्रशंशा के लिए उपयुक्त शब्द नहीं मिल रहे...निशब्द हूँ...शुक्रिया आपका इस आलेख के लिए...


नीरज