Friday, September 24, 2010

कवि लीलाधर जगूड़ी से ओम निश्चल की बातचीत - 4

(पिछली किस्त से जारी)

ओम निश्चल: व्यवस्था, राजनीति और आम आदमी को लेकर जैसा मोहभंग और गुस्सा धूमिल में था वैसा अत्यंत सलीकेदार विस्फोट ‘नाटक जारी है’ के बाद आपमें दिखायी देता है। कदाचित धूमिल को और जीवन मिल सका होता तो उनके और भी रंग उभर कर सामने आते। पिर भी इन कविताओं को लेकर धूमिल का क्या मानना था। उनसे कैसी चर्चाएं होती थीं?

लीलाधर जगूड़ी: धूमिल अपने थोडे समय में ही अपनी विलक्षणताओं के लिए पहचान लिये गये थे। धूमिल मुझे अपना प्रतिद्वन्द्वी मानते थे। इससे उन्हें नहीं मझे बहुत नुकसान हुआ। मैने धूमिल की शैली में धूमिल से बेहतर होन की कोशिश की जो कि गलत था । इसलिए मैने ‘इस यात्रा में’ संग्रह से अपने अलग होने की घोषणा की। धूमिल को इस संग्रह में कोमलता अधिक दिखायी दी और कोमल होना उनकी नजर में कमजोर होना था । उन्होंने मूझे एक पत्र भी लिखा था जिसका एक अंश मैने इस यात्रा में के तीसरे नये संस्कारण की लंबी भूमिका में दिया है। इसमें संदेह नहीं कि अपनी काव्य भाषा मैं ‘इस यात्रा में’ पा सका और उसके बाद ‘बची हुई पृथ्वी’ में। उसके बाद ‘भय भी शक्ति देता है’ में और तदनंतर ‘ईश्वर की अध्यक्षता में’ पा सका। डा काशीनाथ सिहं पहाड़ियों से तो परिचित थे जैसे कि विद्यासागर नौटियाल और बटरोही से, लेकिन पहाड़ों से परिचित न थे। एक कविता में देवदार के पेड़ का जिक्र आया तो उन्हे वह नकली पेड़ लगा । डा काशीनाथ सिंह के हवाले से कल्पना में इस आशय का मुझे संबोधित एक पत्र भी छापा। लेकिन जब ‘बलदेव खटीक’ कविता ‘परिवेश‘ पत्रिका में पहले पहल छपी तब धूमिल शिरोवेदना से ग्रस्त हो चुके थे। ‘बलदेव खटिक’ के प्रति अपनी खुशी का इजहार करते हुए धूमिल ने मुझे अपनी कुछ पंक्तियां अस्पताल में सुनाईं। ‘लोहे का स्वाद लोहार से मत पूछो’ उस घोड़े से पूछो जिसके मुहं में लगाम है, ये पंक्तियां मेरे अलावा किसी ने नहीं सुनी थी। मैंने तत्काल एक पोस्ट कार्ड से ये पंक्तियां डाँ नामकर सिंह को, दिल्ली भेजीं। ये ही धूमिल की आखिरी पंक्तियां थीं। धूमिल होते तो उनमें अपने को बदलने की पर्याप्त क्षमता थी। न बदलते तो भी धूमिल का महत्व कम न होता। धूमिल कविता में परिवर्तन के प्रति उत्सुक और चितिंत दोनों थे। धूमिल बड़ी प्रतिभा थे।

ओम निश्चल: 1980 से सेवानिवृति काल सन 2000 तक आप अनवरत लखनऊ में रहे । सूचना विभाग उतर प्रदेश को आपकी सेवा से एक नया दृष्टिकोण मिला । भय भी शक्ति देता है, अनुभव के आकाश में चाँद, और ईश्वर की अध्यक्षता में तीनों महत्वपूर्ण संग्रह इन्ही बीस वर्षां में पूरे हुए। अकादमी पुरस्कार भी लखनऊ में रहते हुए ही मिला । क्या यह मेघदूत के यक्ष का निर्वासन था या नौकरी बोध के तहत स्वैच्छिक वरण या कि पिर लखनऊ की रिहाइश किसी तदर्थवाद का परिणाम थी?

लीलाधर जगूड़ी: देखिए, उतराखण्ड बने तो अभी दस वर्ष होने को हैं सन 1949 से पहले भले ही हम टिहरी रियासत के रहने वाले थे लकिन टिहरी रियासत को क्रांतिकारी श्रीदेव सुमन और उनके द्वारा स्थापित प्रजामंडल के संघर्षों और बलिदानों से 49 में आजादी मिली। रियासत का विलय संयुक्तप्रांत उतरप्रदेश में कर दिया गया। अंग्रेजी में यू॰ पी॰ यथावत बना रहा। इस तरह लखनऊ मेरा परदेश नहीं था बल्कि अपने राज्य की राजधानी के रूप में घरदेश ही था।

लखनऊ आने के बाद लंबी कविताएं लिखी जानी कम हो गयीं। एक कारण यह भी हो सकता है कि पहाड़ पर पैदल बहुत चलना पड़ता था इसलिए कविताएं अक्सर लंबी हो जाती थीं लखनऊ में पैदल चलने के अवसर कम हो गये थे। लखनऊ में लेखकों की संगत अच्छी मिल गयी। ‘भय भी शक्ति देता है’ तो ‘घबराये हुए शब्द’ के ठीक दस वर्ष बाद 1991 में आया . संग्रह वह बहुत पसंद किया गया। एक बार मैंने रघुवीर सहाय जी से कहा कि आपको अकादमी पुरस्कार ‘हँसो हँसो जल्दी हँसो’ पर जब नही दिया गया तो मुझे अकादमी के तौर तरीकों पर बहुत गुस्सा आया। तब उन्होंने कहा कि आपको तो अकादमी पुरस्कार ‘बची हुई पृथ्वी पर’ मिल जाना चाहिए था। पुरस्कार प्राप्ति का बुरा तो किसी को नहीं लगता लेकिन वह किसी अच्छे रचनाकार का चरम उदेश्य कभी नही होता। रचनात्मकता में श्रेष्ठतर या नव्यतर होते जाना यह आकांक्षा या यह स्पर्धा बहुधा काम करती रहती है। श्रेष्ठतर का अभिप्राय यह है कि जो अच्छा है उसे और अच्छा करने के लिए निरंतर निपुणता और सुधार से गुजरना। उदाहरण के लिए तुलसीदास अगर आज होते में उनसे पूछता कि-बूंद अघात संहहिं गिरि कैसे। खल के बचन संत सहं जैसे। बूंद की कोई बहुत बडी मार नहीं होती । अगर यहां वारि अघात या वृष्टि अघात होता तो अधिक सटीक होता।...

ओम निश्चल: आपको याद होगा कि भाषा के असहज तेवर के प्रयोग और चौंकाने वाले शब्दों को छोड़ने की सलाह कभी सर्वेश्वर ने दी थी पर यह आपकी कविता का स्थायी भाव ही बनता गया है। उतरोतर आपने इस शक्ति को नयी भाषा ईजाद करने की प्रयोगशाला भी माना है। इसके पीछे आपकी क्या रणनीति रही है नये शब्दों की ईजाद के लिए आप अपनी कविता को किस रूप में देखते है।

लीलाधर जगूड़ी: सर्वेश्वर जी ने असहज और चौंकाने वाले शब्द प्रयोग को ‘नाटक जारी है’ के संदर्भ में कहा था। मै यह मानता हूं कि ‘नाटक जारी है’ की भाषा उग्र, उखड़ी हुई और स्थापित कविता की काव्य भाषा से एकदम अलग ही नहीं बल्कि अपरिचित सी भी लगती है। उस में बिम्ब और यहां तक कि तुक भी उन सामाजिक स्थितियों से लिये गये हैं जिनका प्रवेश सरस्वती के मंदिर में सहजता से नहीं था। कुजात अस्पृश्य शब्दों से ग्रहण करने योग्य कोई बात कहना एक हठयोग तो था । भाषा का वही अटपटापन ‘इस यात्रा में’ भी है लेकिन उसकी उन्होने तारीफ़ की। क्योंकि कविताओें का सन्दर्भ यहां एकदम बदला हुआ है। ‘नाटक जारी है’ में समाजपरक भाषा है और ‘इस यात्रा में’ प्रकृति परक। प्रकृति प्रेम परिवार और समाज शायद चल जायेगा। लेकिन व्यवस्था विरोध और क्रान्ति, एक स्पष्ट सांस्कृतिक एकता से रहित देश में बघारना, शायद समय पूर्व की कार्यवाही बनकर रह गया। यह कविता की ही नहीं पूरे समाज की विपलता है । कविता ठीक हो लेकिन व्यवस्था और समाज जीवन जीने की सारी परिस्थितियां, तथा कथित आजादी के बावजूद इतनी खराब हों कि गालियों का भी कोई मतलब न रह जाय, ऐसे में ठीक ठाक कविता का क्या मतलब बैठता है ? ‘नाटक जारी है’ में उस समय के युवा होते एक व्यक्ति (जो कि कवि भी है,) के परिस्थितियों से दंशित दुर्वचन हैं। ‘नाटक जारी है’ में भले ही साधु वचन न हों लेकिन उस में ‘टेलीफ़ोन पर’ जैसी कविता भी है जो 60-70 के भारत के बीच विपत्ति में एक पुल बनाती है, जिस से संवादो को एक नया रूप मिला है, जो हिन्दी कविता का स्वभाव नहीं था। कविता में भी आदत पैदा करनी पडती है। जिस कविता के हम आदी हैं उसके खिलाफ़ एक और नयी काव्य आदत 1960 के बाद की कविता ने पूरे समाज में पैदा की और यह सब मंच पर बिना गाये बजाये हुआ। यह लघु पत्रिकाओं की देन थी। लधु पत्रिकाओं ने आधुनिक कविता के स्वर और संदर्भ को नयी शक्ति प्रदान की। कविता में शब्द और भाषा प्रयोग कवि का एकदम निजी मामला होते हुए भी एक सामाजिक अभिव्यक्ति का हिस्सा बन जाता है। इसलिए प्रयोग के उपरांत ही उस पर विचार किया जा सकता है प्रयोग से पूर्व नहीं। प्रयोग से पूर्व निषेध एक भ्रूण हत्या जैसा है । तब युवा कवि का अर्थ 30 वर्ष तक था अब 45 और 55 वर्ष के युवा कवियों का जमाना है। इस समय की हिन्दी कविता प्रौढों की कविता है। इसमें युवा हस्तक्षेप कहीं दिख ही नहीं रहा। मुझे 2021में कुछ उम्मीद है। इक्कीसवीं सदीं के 20 वर्षीय लडके लडकियों से। नयी भाषा युवा पीढी पैदा करती है उस भाषा पर युवा लोगों की पकड़ भी अच्छी होती है भले ही इस्तेमाल में कुछ ढीलापन और अनुभव हीनता की भलक मिले। लेकिन नये साहस और सच्चे प्रयासों के दर्शन होते हैं। भारत में इंतजार भी ऊब नहीं तपस्या है।

शब्द गढ़ना और शब्दों का नया प्रयोग यह कवियों की विशेषता रही है। मेरी कविता में और कुछ अच्छी कहानियों में जितने नये शब्द आजादी के बाद आये हैं उनसे एक नया कोश तैयार किया जा सकता हैं। शब्द ही नहीं मुहावरे भी काफ़ी गढे़ गये हैं। इतालवी विदुषी मारियोला आफ़रीदी ने एक बार मुझे से पूछा था कि आपकी एक कविता में झांसा शब्द आया है, क्या यह झांसी का पुल्लिंग है? आजादी के बाद आये नये शब्दों की अलग से एक डिक्शनरी प्रकाशित होनी चाहिए।

शब्द कोश तो रणनीति के तहत बनाया जा सकता है, कविता नहीं बनायी जा सकती। नये शब्दों के लिए लगातर प्रतिष्ठित शब्दों का देहातीकरण करना अभिव्यंजना को एक बक्से से दूसरे संदूक में डाल देना है। न भूलें कि ‘यह खून को देखकर निशाने की तारीप का युग है। मृत्यु लोक में यह मर जाने का नही मारे जाने का युग हैं।’

(जारी)

1 comment:

समयचक्र said...

काफी अच्छी बातचीत का ब्यौरा प्रस्तुत किया है ... नाटकों और कविताओं के बारे में बहुत कुछ जानने का मौका मिला ...आभार