(पिछली किस्त से जारी)
ओम निश्चल: जिन दिनों कविता मे आप उभर रहे थे काव्य मूल्यों में सपाट बयानी का बोलबाला था किस तरह इस प्रवृत्ति ने आपको लुभाया और पीछा किया क्या कभी इससे पिण्ड छुडाने की इच्छा नहीं हुई? अगर हुई तो किस रूप में?
लीलाधर जगूड़ी: लगता है आप मुझे रूपवादी बनाकर ही मानेंगे। जब कि भौतिकवादी होने के लिए रूपवादी होना जरूरी है। निर्गुण से सगुण की ओर आना भौतिकता है। कविता जिन जिन रूपों में उस समय स्थापित थी, उसमें जो तत्व सब में था वह थी कविता की सगुणता और लयात्मकता। कविता की गेयता या गीतात्मकता नहीं। हर अच्छी कविता की एक अपनी रिद्म थी और आज भी हर अच्छी कविता अपनी एक खास लय (चाल) के साथ आती है। छायावादियों ने भी लयों का अविष्कार किया था और प्रसाद जी की ‘प्रलय की छाया’ कविता उसका पहला बेहतर उदारण है। यह कविता न होती तो ‘निराला’ न होते। हर नया कवि पुराने कवि से जन्म लेकर नये गुल खिलाता है। सपाट बयानी से निराला बहुत खेल चुके थे और कुछ लोगों ने उसको एक सरल खेल समझकर कविता को बहुत बिगाड़ा और आज भी बिगाड़ रहे हैं। मुक्तिबोध, राजकमल चैधरी और घूमिल ने इस सपाट बयानी वाली लय को कापी गम्भीर आशयों से भर दिया। सपाट बयानी भी कबीर जैसी रहस्यमय गहराई की मांग करने लगी। उसी से आज की कविता का ढांचा खडा हुआ है। आज की सपाट बयानी मूर्त और अमूर्त का संगम है।
मैंने कविता के हर मुकाम और मोड़ के साथ शामिल होकर अपने को बदलने के बहुत से गुर सीखने की कोशिश की है। सपाट बयानी किसी को थोथा कवि भी बना सकती है और किसी को कुछ ज्यादा ही अर्थवान। इसके आदर्श उदाहरण अज्ञेय, रघुबीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और श्रीकान्त वर्मा हैं। एक सपाट बयानी वह भी जिससे भवानी प्रसाद मिश्र अपने कविता तैयार करते है। अलग तरह का खिचांव लिए हुए एक सपाट बयानी विजयदेव नारायण शाही की है। चन्द्रकान्त देवताले, विष्णु खरे, भगवत रावत की सपाट बयानी एकदम अलग तरह की है, जो विष्णुचन्द्र शर्मा के विद्रोही स्वर के निकट जाती है। हिन्दी में सरलता का आग्रह और दुराग्रह हांकता रहता है। कवि भाव की सरलता नहीं भाषा की सरलता की ओर चल जाते हैं पर कुछ कवि सपाटबयानी की खराब हद तक चले जाते हैं। लेकिन उक्त कवियों ने सपाटबयानी को उस तरह शक्ति में बदला है जिस तरह आज कल कूडे़ से खाद और बिजली पैदा की जा रही है। ये गैर पारम्परिक ऊर्जा वाले अक्षय स्रोतों के कवि हैं।
ओम निश्चल: जगूड़ी जी, परम्परा, मौलिकता और आधुनिकता की अक्सर चर्चा होती है। आपका कहना है कि परम्परा को हर बार नये विचारों वाली देह चाहिए होती है। नये होने की यह परम्परा है। परम्परा और आधुनिकता दोनों कविता में मौलिकता का पोषण कैसे करते हैं? करते भी हैं या नहीं?
लीलाधर जगूड़ी: परम्पराओं का जन्म संस्कारित रूढियों से होता है पहली परम्परा अगर कोई है तो वह रस्मो रिवाज है। परम्परा में अनुकरण और परिर्वतन दोनों शामिल हैं। ‘संस्करोतीति संस्कारः’ भी मंजाव का नाम है केवल कर्मकांड का नहीं। जो संस्कारित करे वह संस्कार है। या जिसे हमने अपने में सुधार अथवा मंजाव लाने के लिए अंगीकृत किया हो वह अभ्यास, वह आभास और वह आदत संस्कार की कोटि में रखा जा सकता है। सारी प्रगति मनुष्य के पिछडे़पन का अगला कदम है। आधुनिकता में भी प्राचीनता छिपी रहती है। आधुनिकता किसी न किसी प्राचीनता का नया संस्करण है। पत्थर से आग पैदा करने का आधुनिक स्वरूप है माचिस और लाइटर से आग पैदा करना। प्रक्रिया और परिणाम पहले से मौजूद हैं, बस उपकरण बदल गये हैं। भूख पुरानी है, पीजा आधुनिक है। भूख को भी आधुनिकता की भूख है या कि आधुनिकता की भूख, पीजा से भी नहीं मिटेगी। जिन रूढियों को हम हानिकारक समझते हैं उनको हम परम्परा का हिस्सा नहीं बनने देते। परम्पराओं की अपेक्षा समाज में रूढियां ज्यादा उपजाऊ और टिकाऊ बनी रहती हैं। संस्कारित रूढियों के पारम्परिक स्वरूप को एक मानवीय सामाजिक मूल्य के तहत एक से दूसरी और दूसरी से तीसरी पीढ़ी तक पहुंचाना पड़ता है। यही सांस्कृतिक यात्रा का द्वन्द्व है। अलग अलग संस्कृतियों से उपयोगी परम्पराओं को छांटकर सर्वोपयोगी बनाने का आचरण ही सभ्यताओं का समन्वय और संघर्ष दोनों बन जाता है। आधुनिकता भी लीक से हटकर नहीं बल्कि उसी लीक को एक नयी लीक के रूप में प्रस्तुत करती है। आधुनिकता में समय का ‘आजपन’ बहुत जुडा रहता है। हर समय के अपने आज और अपनी आधुनिकता होती है। किसी पुराने का नया जन्म भी आधुनिकता है। आधुनिकता में सोच और प्रयोग के तत्व ज्यादा होते हैं। आधुनिकता की भी अपनी परम्परा है कि वह चेतना के विकास को तो परिलक्षित करती है लेकिन अपनी आवृत्ति को छिपाती है। साहित्य में परम्परा का वही संबंध है जो नदी का उद्गम से है। साहित्य, संस्कृति और परम्परा का विस्तार करता है।
मौलिकता, थोड़ा हटकर एक दूसरी तरह के पुनरूत्पादन और जिजीविषा के साथ-साथ नयी और उपरिचित उपलब्धियों के उच्च जमावड़े का नाम है। जो अस्तित्व में नही था कुछ लोग उसके अस्तित्व में आने को मौलिकता कहते हैं। जबकि मौलिकता की जड़े परम्परा में हैं। मौलिकता का अस्तित्व उन्हीं जड़ों से अपना पुनरूद्भव प्राप्त करने में है। उदाहरण के लिए कोई एकदम नया विचार भी किसी क्रिया अथवा प्रतिक्रया में अपनी जडे़ं रोपता हुआ पैदा होता है। वह क्षीण और कमजोर हो सकता है, उसे धीरे धीरे किसी बच्चे या पौधे की तरह पुष्ट करना पड़ता है। एक दिन वही पौधा पेड. बन जाता है। हर बार पुराने पत्तों को गँवाकर, पुराने अंगो पर नये अंग उगाते हुए वह नये पत्तों से भर जाता है। कुछ पेड़ कटाई छंटाई से नये होते है। कुछ पेड़ धूप, आंधी बरसात और वज्रपात जैसी परिस्थितियों से गुजरने के बाद भी अपनी जड़ों से अपनी वापसी करने लगते हैं। ठीक इसी तरह (दांतो और बालो को छोडकर) मनुष्य अपने अंगो को गंवाता नही है बल्कि उन्ही को विकसित और सुदृढ करता हुआ रोज रोज कुछ नया करने की कूवत से गुजरता है। मनुष्य के कुछ नये अंग उनके कामों और विचारों के मार्पत भी दिखायी देते हैं। इसलिए विचारों का वसंत किसी भी ऋतु में आ सकता है। कटे-पिटे पेड़ जब पिर अपनी मौलि (अपने शीर्ष) उगा लेते है तब वे मौलिक कहलाते हैं। नये पर नये पत्ते स्वभाविक हैं; पुराने पर नये पत्ते मौलिक हैं। मौलिक में एक अस्वाभविकता और असंभवता शामिल रहती है। ठूंठ कैसे मौलिक होते हैं यह मनुष्य को पेड़ से सीखना होगा इस प्रकार मौलिकता किसी की भी अपनी सृजन परम्परा का हिस्सा है। वही किसी दृश्य विचार और स्थापत्य को आधुनिक बनाने वाला तत्व भी है। नये की अपेक्षा जितने आप पुराने हैं उतने ही अधिक अवसर हैं आपके सामने मौलिक होने के। मौलिकता का एक अर्थ उच्चाशय उदात्त दृष्टि भी है। इसी से शिखर और सिर की मौलि का भी कुछ इस प्रकार का सम्बंध है कि जो दूर तक देखे और दूर से ही दिख जाये। सृजन के क्षेत्र में मौलिक, कटे हुए या विच्छिन्न भाग का फिर से उग आना है। इसलिए मौलिक, का एक अर्थ पहले जैसा नया और वास्तविक भी है।
कविता में वाक्य को कहां से कहां पुनः रोपित किया जाता है और हम देखते हैं कि ग्रामर की दृष्टि से नहीं बल्कि अभिप्राय की दृष्टि से वहां कुछ अश्रुत, युक्तियुक्त और गतिशील बिम्ब उसी सरलतम भाषा से उत्पे्रक्षित होने लगते हैं। शब्दो की असंगति भी अर्थ की नयी संगति पैदा कर देती है ।
(जारी)
2 comments:
शानदार .......
पर ये मौलिकता ......इन दिनों हाइबरनेशन में लगती है....बकोल किसी राइटर अब कवियों की सेना है ओर कविताओं का जंगल है .....
जारी रखिये ...दिलचस्प ओर बेबाक बयान है
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