Monday, September 13, 2010

अल रबवेह - आख़िरी भाग

(पिछली किस्त से जारी)

फ़िलिस्तीनी अधिकारियों द्वारा लिए गए निर्णयों के बाद अल रबवेह की पहाड़ी पर महमूद दरवेश की कब्र के चारों तरफ़ बाड़ लगा दी गई है और उस पर कांच का बना एक पिरामिड स्थापित कर दिया गया है. अब उनकी बग़ल में उकड़ूं बैठ पाना सम्भव नहीं. हमारे कान अलबत्ता उनके शब्द अब भी सुन सकते हैं और वे वैसे ही बने रहेंगे. और हम उन्हें दोहरा सकते हैं:


मुझे ज्वालामुखियों के भूगोल पर काम करना है
हताशा से खण्डहर तक
लॉट के समय से हिरोशिमा तक
जैसे कि मैं जिया ही नहीं अब तक
उस वासना के साथ जिसे अभी जानना है मैंने
सम्भवतः वर्तमान और भी दूर चला गया है
और नज़दीक आ गया है बीता हुआ कल
अओ मैं थामता हूं वर्तमान का हाथ इतिहास के आंचल के साथ चलने को
और चक्कर काटते समय से बचने को
जिसमें पहाड़ी बकरियों की भगदड़
कैसे बच सकेंगे मेरे आने वाले कल?
इलैक्ट्रॉनिक समय की गति से
या मेरे रेगिस्तानी कारवां की मन्थर चाल से?
मेरे पास काम बचा है आखीर तक करने को
जैसे मैं देख ही नहीं सकूंगा आने वाले कल को
और मेरे पास काम है आज के लिए, जो यहां है ही नहीं
सो मैं सुनता हूं
हौले-हौले
अपने दिल की चींटी सरीखी धड़कन को.

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